4 घंटे पहले
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“तुमने कमल के पत्तों पर गिरी ओस देखी है कभी? अच्छी लगती है कितनी। है न?” नीलाभ ने पूछा।
“नहीं, कभी देखी नहीं, क्योंकि वह गिरती भी है तो तुरंत फिसल जाती है। कमल के पत्तों पर कभी ठहरती नहीं हैं पानी की बूंदें। तुरंत फिसल जाती हैं उन पर से। जानती हूं, हर चीज क्षणभंगुर होती है, लेकिन कमल उन ओस की बूंदों को अपने ऊपर कुछ पल के लिए ठहरने से कभी नहीं रोकता। हर बात विश्वास और उम्मीद से जुड़ी होती है, इसलिए प्रकृति हो या नियति, उससे जुड़ी किसी भी बात पर फिलॉसफर बनने की जरूरत नहीं होती।” संध्या ने अल्हड़ता से पानी की कुछ बूंदें उस पर उछालते हुए कहा।
दोनों उस समय एक झील के किनारे बैठे हुए थे। “पर पूछा क्यों? जानते तो हो कि मैं तुम्हारी तरह बेकार की उलझनों में खुद को फंसाने में यकीन नहीं रखती हूं।”
“यूं ही मन में ख्याल आया कि जिंदगी भी कभी-कभी बेवजह हाथ से फिसलती जाती है। जिंदगी के कितने पन्ने कोरे रह जाते हैं और उन्हें भरने की अक्सर या तो फुर्सत नहीं मिलती या मौका।”
“आज तुम कुछ अजीब बातें नहीं कर रहे हो?” संध्या ने वहीं पड़े एक पत्ते से खेलते हुए कहा। नरम पत्ते की छुअन से उसे महसूस हुआ मानो नीलाभ ने उसका हाथ थामा हुआ है। उसने पत्ता फेंक कर नीलाभ के हाथ में अपना हाथ फंसा दिया। “यह तो मानना पड़ेगा कि तुम्हारे हाथ लड़कियों से भी ज्यादा कोमल हैं,” संध्या ने उसके कंधे पर सिर टिका दिया।
शाम उतर रही थी और धीरे-धीरे झील के पानी में डूबते सूरज की रोशनी खुद को समाती जा रही थी। फिर पूरी तरह से विलीन हो गई जैसे रोशनी जलमग्न होना चाहती हो।
“मैं तुमसे बहुत प्यार करती हूं। इतना कि तुम मुझे मेरे भीतर समाए लगते हो।” संध्या की आंखें बंद थीं उस समय।
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“मैं जानता हूं,” नीलाभ ने कहा तो संध्या उसके कंधे से सिर हटाकर आंखें खोल, उसे एकटक देखने लगी। उम्मीद कर रही थी कि नीलाभ भी कहेगा कि वह भी उससे बहुत प्यार करता है। हालांकि यह बचकानी बात है, लेकिन कभी-कभी सुनना अच्छा लगता है। लेकिन नीलाभ चुप रहा। बस उसकी आंखों में झांकता रहा जिनमें प्यार का अथाह सागर बह रहा था।
“तुम कुछ नहीं कहोगे?” पूछ ही लिया संध्या ने।
नीलाभ को पता है कि वह बहुत चुलबुली है। जो मन में आता है, उसे तुरंत कह देती है। उसकी अल्हड़ता, उसकी मासूमियत, उसकी चाहतों में रंग भरती है। लेकिन वह कैसे बताए कि उसकी जिंदगी के पन्नों में वह उसका नाम नहीं लिख पाएगा! कैसे कहे की जिंदगी उसके बस में नहीं है। वह तो रेत हो गई है और उसकी मुट्ठी से फिसल रही है। कब उसकी मुट्ठी खाली हो जाएगी, वह समय के सिवाय कोई नहीं जानता। वह तो बस सिर्फ अनुमान लगा सकता है चिकित्सा की शब्दावली के अनुसार।
वह भी कहां जानता था कि कभी ऐसा भी होगा! वरना क्या संध्या को सतरंगी सपने देखने से रोक नहीं लेता? उसके साथ इंद्रधनुष के एक-एक रंग को मन के आकाश पर पूरी शिद्दत से बिखरने से रुक नहीं जाता? संध्या को कैसे बताए? वह तो पूरी तरह से टूट जाएगी। सच बता नहीं सकता तो क्या झूठ का सहारा ले? उसके दिल में अपने प्रति नफरत और कड़वाहट घोलकर क्या उसे बिखरने से बचा सकता है? लेकिन वह संध्या के प्यार से डरता है। वह नहीं करेगी विश्वास उसके झूठ पर। एक कोशिश तो करके देख ही सकता है। और देर करनी भी नहीं चाहिए, तो अभी ही सही!
“क्या सोच रहे हो?” संध्या ने उसकी सोच पर जैसे कंकरी उछाली। “कुछ बताना है मुझे।”
“बताने के लिए इतना गंभीर चेहरा बनाने की जरूरत नहीं। बिंदास होकर कहो। तुम्हारी हर बात समझ सकती हूं मैं,” संध्या ने उसके होंठों को ऐसे छुआ जैसे उन पर हंसी बिखेर रही हो।
“मैं तुमसे अब नहीं मिल पाऊंगा,” कहते हुए नीलाभ को लगा मानो उसके स्वर में कांटों की बाड़ उग आई है। कहना इतना तकलीफदेह है तो उसके लिए सुनना कितना पीड़ादायक होगा।
“हो गया मजाक तो चलें?” संध्या जोर से हंसी।
“मैं तुमसे शादी नहीं कर सकता। मेरी कुछ मजबूरियां हैं,” नीलाभ ने अपनी भावनाओं को नियंत्रित करते हुए कहा।
“कोई बात नहीं। मत करो अभी शादी। अपनी मजबूरियों को पहले सुलझा लो। मैं मदद करूंगी और इंतजार भी।”
“तुम किसी बात को समझती क्यों नहीं? कहा न, मैं तुमसे शादी नहीं कर सकता। न अभी, न कभी,” वह झल्ला उठा था।
“तुम क्यों समझ नहीं रहे? मैंने भी कहा कि कोई बात नहीं। अगर अपनी जिंदगी के कोरे पन्नों पर मेरा नाम न लिख पाने का अफसोस खत्म हो गया हो तो क्या अब चलें? रात हो गई है। मुझे तो मच्छर भी काट रहे हैं,” संध्या उठ खड़ी हुई। उसके चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी।
नीलाभ की कोई बात उसे बुरी क्यों नहीं लग रही? वह उस पर अविश्वास क्यों नहीं कर रही? क्यों करती है वह उससे इतना प्यार? प्यार खुशी देता है और नीलाभ से प्यार करके उसे गम ही मिलेगा!
“तुम इतनी जिद्दी क्यों हो? पढ़ी-लिखी हो, नौकरी करती हो और खूब समझदार भी हो, लेकिन जो मैं कह रहा हूं वह तुम्हारी अक्ल में घुस क्यों नहीं रहा?” नीलाभ की आवाज में व्याप्त गुस्सा झील के दोनों किनारों को छू रहा था।
रात होने की वजह से अब वहां कोई नहीं था, सिवाय आकाश में टिमटिमाते कुछ तारों और पत्तों पर रोशनी की लकीर खींचते जुगनुओं के। सोडियम लाइट्स चारों ओर जल चुकी थीं। अंधेरा था तो केवल नीलाभ के भीतर…पर क्या संध्या वह अंधेरा रहने दे सकती है क्या उसेक भीतर?
“मैं सब जानती हूं नीलाभ,” अचानक संध्या ने आसपास फैली नीरवता को भंग किया। “तुम्हें क्या लगता है तुम में आने वाले बदलाव से मैं अनजान थी। मुझसे छिपाकर अस्पताल जाना, वहां एडमिट होना… बहुत पहले ही जान गई थी और अस्पताल जाकर तुम्हारे डॉक्टर से मिलकर सब पता लगा लिया था।”
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“फिर भी?” नीलाभ चौंका। कदम लड़खड़ाए तो उसके पांव की ठोकर खाकर एक पत्थर पानी में गिरा और छपाक की आवाज आई। लहरें उठीं वहां भी और उसके भीतर भी। संध्या ने तुरंत उसका हाथ पकड़ लिया।
“फिर भी क्या? प्यार करती हूं साथ निभाऊंगी। तुम्हारी रहूंगी हमेशा, तुम रहो या न रहो। लेकिन जान लो तुम्हारी जिंदगी के किसी पन्ने को कोरा नहीं रहने दूंगी। हर लाइन पर अपना नाम लिखूंगी। रेत की तरह फिसलती तुम्हारी जिंदगी को जब तक हो सकेगा थामे रखूंगी। अब इसके बाद दार्शनिक बन मेरे सामने गंभीर चेहरा मत बनाना। मैं तुम्हारे होंठों पर हमेशा मुस्कान देखना चाहती हूं। तुम हंसते हुए बहुत अच्छे लगते हो।” संध्या उससे लिपट गई थी। उसके स्वर के कंपन और आंखों की नमी वह देख पा रहा था, लेकिन वह उसके बहते आंसुओं को रोकने के लिए अपना हाथ आगे बढ़ाता, उससे पहले ही संध्या ने उसके हाथों को कसकर थाम लिया और उसकी हथेली को गुदगुदाते हुए बोली, “मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता कि कमल के पत्ते पर ओस टिके या फिसले या रेत की तरह जिंदगी तुम्हारे हाथों की पकड़ से छूटने लगे। मेरे प्यार को ओस की बूंद मत समझना, वह तो विशाल सागर है। चाहे जितनी बूंदें उसमें से निकल जाएं, वह कभी रिक्त नहीं होगा। तुम्हारी जिंदगी के कुछ महीने शेष हैं, यह भी जानती हूं। पर मेरा प्यार हमेशा रहेगा तुम्हारे लिए, तुम्हारे साथ। बड़े आए थे मजबूरियां गिनाकर शादी न करने वाले। कल ही फेरे लूंगी तुम्हारे साथ।”
नीलाभ कुछ कहने ही वाला था, कि वह फिर बोली, “बस बहुत हुआ। मुझे इतनी गंभीर बातें करने की आदत नहीं है। थकान हो गई है। अब चलें?”
नीलाभ उसके साथ कदम मिलाता चल रहा था या उसके प्यार को जी रहा था, समझ नहीं पा रहा था।
“सचमुच बहुत जिद्दी हो तुम,” वह बोला तो संध्या ने एक मीठी मुस्कान के साथ उसे देखा।
-सुमन बाजपेयी