माना जाता है कि मथुरा mathura छोड़ने के बाद श्रीकृष्ण shrikrisna पश्चिम की ओर चले गए जहां उन्होंने एक नया नगर बसाया। इसे द्वारिका के नाम से जाना गया जोकि कालांतर में समुद्र में डूब गई। कुछ साल पहले नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ ओसियनोग्राफी ने द्वारिका की खोज
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वर्तमान में द्वारिका गुजरात के काठियावाड इलाके में अरब सागर के द्वीप पर स्थित है। शहर में अनेक द्वार यानी दरवाजे होने के कारण इसका नाम द्वारिका पड़ा था। शहर के आसपास कई लम्बी चहार दीवारें बनाई गई थीं, जो कि आज भी समुद्र के अंदर दिखाई देती हैं। पुरानी द्वारका समुद्र में करीब 300 फीट की गहराई में डूबी है और इसके अवशेष आज भी नजर आते हैं। हालांकि, द्वारका के स्थान के संबंध में भिन्न-भिन्न मत प्रचलित हैं।
जन्माष्टमी के मौके पर दैनिक भास्कर ने आर्कयोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के एडिशनल डायरेक्टर जनरल डॉ. आलोक त्रिपाठी से बात की। आलोक त्रिपाठी ने ही द्वारका में समुद्र के अंदर द्वारका नगरी का पता लगाने वाली टीम को लीड किया था। इसके अलावा हमारी टीम ने पुरातत्वीय स्थलों के शोधक ‘इसरो’ के रिटायर्ड साइंटिस्ट डॉ. पीएस ठक्कर से भी खात बातचीत की। डॉ. ठक्कर के मुताबिक, गुजरात समेत पंद्रह ऐसी जगहें हैं, जो श्रीकृष्ण की मूल द्वारका होने का दावा कर सकती हैं।
द्वारका में 2000 साल पुराने मिट्टी के बर्तन मिले
साल 2007 में द्वारका के समुद्र में खुदाई का काम शुरू किया गया था।
सबसे पहले हम मिलते हैं डॉ. आलोक त्रिपाठी से, जिनकी गिनती देश के शीर्ष पुरातत्वविदों में होती है। उन्होंने ज्ञानवापी मस्जिद का सर्वेक्षण करने वाली टीम का भी नेतृत्व किया था। डॉ. त्रिपाठी 1987 में एक पुरातत्वविद् के रूप में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) में शामिल हुए। उसी वर्ष, एएसआई ने पानी के नीचे पुरातात्विक सर्वेक्षण करने का निर्णय लिया। इसके लिए विभाग को कुछ ऐसे युवा पुरातत्वविदों की आवश्यकता थी, जो समुद्री पुरातत्व में रुचि रखते हों। डॉ. आलोक त्रिपाठी इन मानदंडों पर खरे उतरे और उन्हें अंडरवाटर पुरातत्वविद् के रूप में चुना गया। यह वही समय था, जब द्वारका में अंडरवॉटर सर्वे का काम शुरू किया गया था।
डॉ. त्रिपाठी आगे कहते हैं- 1979 में समुद्र के नीचे द्वारका मंदिर की आसपास खुदाई की गई। तब एक इमारत के नीचे नौवीं शताब्दी के मंदिर का एक हिस्सा पाया गया था। भारतीय पुरातत्व विभाग के डॉ. एसआर राव ने जब वहां खुदाई की तो मिट्टी के कुछ बर्तन भी मिले थे। जांच करने पर ये बर्तन ईसा पूर्व की दूसरी सदी के थे।
डॉ. एसआर राव ने भारतीय पुरातत्व विभाग से रिटायर होने के बाद भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी और सीएसआईआर के साथ मिलकर द्वारका पर एक अंडरवाटर परियोजना शुरू की। जिसमें मैं भी शामिल हुआ। मैंने अपनी पहली डुबकी द्वारका में ही लगाई थी। यह प्रोजेक्ट दो चरणों 2001 और 2005 में किया गया था।
सबसे पहले हमने द्वारका पर हुए शोध कार्य का अध्ययन किया। गुजरात में कुछ अन्य स्थानों को भी द्वारका कहा जाता है। हमने इन सभी जगहों का अध्ययन किया, जिसमें मूल द्वारका, पंच द्वारका, माधवपुर, गिरनार के पास की जगहें शामिल थीं। ये सभी जगहें भगवान श्रीकृष्ण से जुड़ी हैं। इसके अलावा कच्छ में भी अनेक स्थानों का अध्ययन किया। वहां से प्राप्त दस्तावेजों और साहित्य में मिले स्थान की प्राचीनता के उल्लेखों का सत्यापन करने के बाद आखिरकार हमने जलमग्न द्वारका नामक नगर पर शोध कार्य शुरू किया।
समुद्र तल में 3.7 किमी एरिए का सर्वेक्षण किया
द्वारका में समुद्र से खुदाई के दौरान प्राचीन इमारतों के अवशेष मिले थे।
डॉ. त्रिपाठी आगे कहते हैं- साल 2007 में हमने भारतीय नौसेना के साथ मिलकर द्वारका के पास समुद्र में जांच शुरू की थी। उन्होंने समुद्र में हाइड्रोग्राफिकल सर्वेक्षण किया। दो समुद्री मील (3.7 किमी) लंबाई और एक समुद्री मील (1.9 किमी) चौड़ाई के क्षेत्र में साइड स्कैन सोनार और मल्टीबीम सोनार तकनीकों का उपयोग करके सर्वेक्षण किया गया। इसके बाद समुद्र तल का एक 3डी मॉडल तैयार किया गया, जिसके आधार पर एक विशेष अध्ययन किया गया। (सोनार तकनीक का उपयोग समुद्री चट्टानों, डूबे जहाजों, प्राचीन अवशेषों आदि का पता लगाने के लिए किया जाता है।
इस तकनीक में अल्ट्रासोनिक ध्वनि तरंगों को एक ट्रांसमीटर के जरिए समुद्र के तल तक भेजा जाता है। इन ध्वनि तरंगों को वापस लौटने में लगने वाले समय से समुद्र की गहराई का पता लगाया जाता है। अल्ट्रासोनिक ध्वनि तरंगों से समुद्र में पड़ी किसी वस्तु के आकार का भी अनुमान लगाया जा सकता है। पुराणों में किए गए वर्णन के अनुसार, द्वारका शहर वहां स्थित था, जहां गोमती नदी का समुद्र में संगम होता है। इसलिए हमने इस पूरे इलाके सर्वेक्षण किया और 2007 में समुद्र के अंदर जाकर जांच और खुदाई शुरू की।
समुद्र के तल में क्या पाया गया?
‘समुद्र के अंदर काम करने की एक तय समय सीमा होती है। कोई भी गोताखोर समुद्र में अधिक से अधिक तीन घंटे तक काम कर सकता है। इसके लिए हमने समुद्र में 200 बाय 200 मीटर का क्षेत्र सर्वे के लिए चुना। यहीं हमें सबसे ज्यादा अवशेष मिले। ये अवशेष प्राचीन इमारतों के थे। पत्थर के खंडों को काटकर खूबसूरत कलाकृतियां भी बनाई गईं थीं।
वर्तमान की द्वारका नगरी की तस्वीर।
द्वारका समुद्र में कब डूबी थी?
इस सवाल के जवाब में डॉ. त्रिपाठी कहते हैं- हमें जो अवशेष मिले वे पत्थरों के थे। पुरातत्व में कार्बन डेटिंग के लिए कार्बनिक पदार्थ की आवश्यकता होती है। लेकिन समुद्र में पाए जाने वाले जीवाश्म अकार्बनिक थे। ये अवशेष समुद्र की तलहटी में बिखरे हुए थे। समुद्र के जिस सीमित क्षेत्र पर हमने काम किया, वहां कोई कार्बनिक पदार्थ नहीं मिला। इसलिए अब तक यह वैज्ञानिक रूप से ज्ञात नहीं हो सका है कि द्वारका समुद्र में कब डूबी होगी। खुदाई में मिले अवशेषों से पता चला कि ऐतिहासिक तौर पर यहां लगातार निर्माण कार्य होता रहा है। वहां हमें प्राचीन मंदिरों के कई अवशेष मिले हैं। वर्तमान साक्ष्यों के आधार पर यह कहा जा सकता है कि गुप्त काल जिसे, पुराणों का काल माना जाता है, के बाद से द्वारका को कृष्ण का स्थान या विष्णु से संबंधित माना गया है।
द्वारका नगरी के समुद्र में डूब जाने का कोई कारण?
इस बारे में डॉ. त्रिपाठी कहते हैं- ‘पुरातत्ववेत्ता मूल अनुपात के आधार पर अपनी राय बनाते हैं। जहां तक द्वारका के डूबने की बात है तो इसके पीछे कई कारण जिम्मेदार हो सकते हैं। जब तक गहन अध्ययन नहीं हो जाता, तब तक किसी एक सटीक कारण के बारे में कहना सही नहीं है।
द्वारका में अभी भी खुदाई की जरूरत
द्वारका में जो खुदाई हुई है, वह बहुत ही सीमित क्षेत्र में और एक ही स्थान पर हुई है। जब तक द्वारका की व्यवस्थित खुदाई नहीं हो जाती, तब तक इसके स्वरूप के बारे में बहुत स्पष्ट जानकारी नहीं मिल सकेगी और इसके बिना इसके आधार पर कुछ भी कहना अनुचित होगा। अब हम जो निष्कर्ष निकालते हैं, वह अब तक प्राप्त सीमित संख्याओं पर आधारित है। अभी भी और आगे जाने की जरूरत है। किसी एक क्षेत्र में ही किए गए पिछले सर्वेक्षणों से ऐसे परिणाम मिले हैं कि जिसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी। इसलिए आगे भी बहुत सारी जानकारियां मिल सकती हैं।
अब हम द्वारका नगरी के बारे में ‘इसरो’ के रिटायर्ड साइंटिस्ट डॉ. पीएस ठक्कर से उनकी राय जानते हैं… जिनका कहना है कि गुजरात की द्वारका के अलावा ये 14 स्थल भी द्वारका नगरी होने के दावेदार…
‘इसरो’ के रिटायर्ड साइंटिस्ट डॉ. पीएस ठक्कर।
द्वारका नगरी के बारे में डॉ. पीएस ठक्कर कहते हैं- मैंने डॉ. पीएस हेमचंद्राचार्य के ग्रंथ ‘त्रिषष्ठी शलाका पुरुष चरित्र’ के वर्णन पर उपग्रह चित्रों के अध्ययन की मदद से जूनागढ़ के पास एक स्थान ढूंढा था, जिसके श्रीकृष्ण की द्वारका होने की प्रबल संभावना है। इसी तरह आज गुजरात समेत पंद्रह ऐसी जगहें हैं, जो श्रीकृष्ण की मूल द्वारका होने का दावा कर सकते हैं।
श्रीकृष्ण की मूल द्वारका होने के अन्य दावेदार स्थलों में जूनागढ़ जिले के कोडीनार के पास मूल द्वारका, जूनागढ़ जिले का जीर्ण दुर्ग, गिर-सोमनाथ जिले में प्रभास पाटण, पोरबंदर जिले में माधवपुर-विसावाडा, सुरेंद्रनगर जिले में मूली, राजकोट जिले में वांकानेर के पास स्थित पंच द्वारका, देवभूमि द्वारका जिले का बेट द्वारका, कच्छ जिले में रेगिस्तान में दबा मरुडा टक्कर, कच्छ जिले का धोलावीरा और नारायण सरोवर, कोटेश्वर से पश्चिम दिशा में समुद्र में स्थित कानाजी को डेरो शामिल हैं। गुजरात के इन ग्यारह जगहों के अलावा उत्तराखंड में स्थित श्रीनगर और ब्रह्मदेश, म्यांमार में इरावती नदी के किनारे स्थित के पवित्र स्थलों और पाकिस्तान के सिंध प्रांत में स्थित मोहनजोदड़ो जैसे स्थल भगवान श्रीकृष्ण की मूल द्वारका होने के दावेदार हैं। इस तरह इन चौदह स्थलों में साथ आज की द्वारका नगरी जोड़ दी जाए तो द्वारका नगरी के ये पंद्रह स्थल हो सकते हैं।
साहित्य का वर्णन से आज की द्वारका मेल नहीं खाती डॉ. पीएस ठक्कर आगे कहते हैं- साहित्यों और ग्रंथों में द्वारका नगरी का जैसा वर्णन किया गया है, उससे आज की द्वारका नगरी मेल नहीं खाती। अगर हम धर्मग्रंथों में श्रीकृष्ण की द्वारका का वर्णन पढ़ें तो पाएंगे कि द्वारका के आसपास के क्षेत्र में विशाल जंगल, ऊंचे पहाड़, नदियां, बगीचे बताए गए हैं। जबकि आज की द्वारका में ऐसे पहाड़, नदियां या जंगल नहीं हैं। इस प्रकार वर्तमान द्वारका का स्थान साहित्य के वर्णन से मेल नहीं खाता।
द्वारका प्रभास-पाटण (गिर-सोमनाथ) के क्षेत्र में थी?
हरिवंश पुराण में किए गए द्वारका नगरी के वर्णन को तो द्वारका नगरी कुछ रही होगी।
डॉ. पीएस ठक्कर ‘हरिवंश पुराण’ का उदाहरण देते हुए कहते हैं- हरिवंश पुराण में लिखा है कि द्वारका प्रभास-पाटण (गिर-सोमनाथ) के क्षेत्र में थी। द्वारका नगरी पूर्व में तुलसीश्याम, पश्चिम में माधवपुर, उत्तर में गोमती नदी और दक्षिण में समुद्र से घिरी हुई थी। साहित्य से यह भी ज्ञात होता है कि जब पांडव प्रभास-पाटण से लौटे, तो वे रात में रैवतक पर्वत पर रुककर अगली सुबह द्वारका पहुंचे थे। इस विवरण से कहा जा सकता है कि द्वारका नगरी, गिरनार के रैवतक पर्वत के आसपास थी। इस तरह यह वर्णन भी आज की द्वारका नगरी किसी भी तरह मेल नहीं खाता।
डॉ. ठक्कर हेमचंद्राचार्य द्वारा रचित एक ग्रंथ का उदाहरण भी देते हैं- साहित्य में दो अलग-अलग द्वारकाओं के अलग-अलग समय पर अस्तित्व में होने का पता चलता है। श्रीकृष्ण से पहले एक द्वारका वासुदेव की भी थी। ‘शत्रुंजय महात्म्य’ ग्रंथ में वासुदेव की द्वारका का वर्णन किया गया है, लेकिन उसमें उसकी भौगोलिक स्थिति की जानकारी नहीं है। जबकि श्री कृष्ण की द्वारका नगरी की भौगोलिक स्थिति का वर्णन हमें हेमचंद्राचार्य द्वारा लिखित ‘त्रिशष्ठी शलाका पुरुष चरित्र’ में मिलता है।
इस ग्रन्थ के अनुसार यह शहर बारह योजन लम्बा और नौ योजन चौड़ा था। एक योजन अर्थात आठ किलोमीटर की दूरी। नगर के चारों ओर लगभग अठारह हाथ ऊंची और बारह हाथ चौड़ी एक दीवार थी, जो समुद्र से शहर का बचाव करती थी। इस नगर में बहुमंजिला मकान थे। ये घर अलग-अलग दिशाओं में बनाए गए थे। नगर के पूर्व में रैवतगिरि और दक्षिण में माल्यवान शैल-शिखर पर्वत था। पश्चिम में सौमानस और उत्तर में गंधमादन गिरि-पर्वत था।
डॉ. ठक्कर ने इस सैटेलाइट इमेज से जूनागढ़ जिले के बरवाला गांव में श्रीकृष्ण की द्वारका होने की संभावना व्यक्त की है।
यदि हम इस स्थान की तुलना साहित्य में मिले वर्णन से करें तो पूर्व में स्थित रैवतक पर्वत को आज का गिरनार पर्वत माना जा सकता है। माल्यवान शैल एक 63 मीटर ऊंची पहाड़ी चोटी है, जो जूनागढ़ जिले के केशोद के पास जूथल गांव के पास स्थित है। पश्चिम में सौमनस पर्वत को आज की पहाड़ी और गंधमादन गिरि को उत्तर में ओसाम की पहाड़ी माना जा सकता है।’
गिरनार के इतिहास पर नजर डालें तो सम्राट अशोक ने यहां एक शिलालेख खुदवाया था। यहीं सुदर्शन झील थी। गिरनार का महत्व मौर्य काल से ही रहा है। साहित्यों में द्वारका का अलग-अलग वर्णन किया गया है। महाभारत में वर्णन है कि द्वारका नगरी रैवतक पर्वत के निकट स्थित थी। महाभारत में भी कहा गया है कि द्वारका समुद्र किनारे स्थित थी।
एक अन्य वर्णन पर नजर डालें तो हरिवंश पुराण में बताया गया है कि द्वारिका जलमग्न हो गई थी। पुराणों, महाभारत में द्वारका राज्य का वर्णन है। इन पुराणों के रचयिता और समय अलग-अलग रहे हैं इसलिए इनमें अंतर पाया जाना स्वाभाविक है। गिरनार के आसपास का क्षेत्र ऐतिहासिक और धार्मिक रूप से भी महत्वपूर्ण है। इस बात की प्रबल संभावना है कि इसका संबंध महाभारत और श्रीकृष्ण से भी रहा होगा। यानी कि गिरनार क्षेत्र में एक सर्वेक्षण की जरूरत है।