55 मिनट पहले
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“कैसी है?” मां ने मुझे गले लगाते हुए पूछा।
“अच्छी हूं।” आदतन संक्षिप्त उत्तर दिया। बचपन से ही ऐसी हूं। बहुत कम बोलना पसंद करती हूं और लंबे-लंबे संवाद मुझे उबाते हैं। हालांकि अब थोड़ा बदल रही हूं देबू के कारण। वह बहुत बातें करना पसंद करता है।
“अच्छी हूं, मतलब खुश तो है न?” सुखी तो है न?”
विवाह के छह महीने बाद मायके रहने आई बेटी से ऐसा सवाल किसी भी मां के लिए पूछना स्वाभाविक ही है। विवाह के बाद एक-दो बार ही आई थी वह भी कुछ देर के लिए। देबू साथ होता था तो ज्यादा बात भी नहीं हो पाती थी। पग फेरे के बाद वह घूमने चली गई थी पति के साथ सिंगापुर। फिर किसी न किसी रिश्तेदार के घर में कभी लंच तो कभी डिनर पर जाना लगा ही रहा, इसलिए आना हुआ भी तो एक-दो घंटे के लिए।
इस बार तो यह कह कर आई है कि मां के साथ वक्त बिताना चाहती है। हंसा था यह सुनकर देबू। “तेइस वर्ष उनके साथ बिताए हैं। पहले तेईस बरस मेरे साथ बिता लो, फिर जाकर रहना मायके।”
“बहुत हिसाब-किताब कर रहे हो?” देबू की बांहों में सिमटे उसने उसके होंठों पर उंगली फेरते हुए कहा था।
“व्यापारी हूं। फायदा-नुकसान पहले है।”
वह कह नहीं पाई थी कि क्यों रहना चाहती है मां के साथ कुछ दिन।
“खुश हूं। क्यों इतनी चिंता करती हो?” मैंने चिढ़ते हुए कहा। “कभी अपनी भी चिंता किया करो। कितनी थकी-थकी लग रही हो?” मां ने हैरानी से मेरी ओर देखा। हैरानी की बात तो थी उनके लिए, क्योंकि पहले तो कभी मां के प्रति ऐसी संवेदना या चिंता मन में जागी नहीं थी मेरे अंदर। सच कहूं विवाह के बाद ही बहुत कुछ समझ पाई हूं। छह महीनों में मैंने जैसे एक अलग ही दुनिया जी ली है। मैं हमेशा बिंदास और मनमर्जी करती आई थी। मैं कैसे समझ पाती मां की पीड़ा को। हम दो बहनों और छोटे भाई को पालने में उम्र बिता दी मां ने। पापा के लिए मां हमेशा ऐसी घरेलू महिला रहीं जिनका काम घर संभालना, उनकी ज़रूरतें पूरी करना और बहुत सारी परेशानियों से उन्हें मुक्त रखना ही रहा है।
पापा ने तो कभी मां को प्यार भरी नजरों से देखा तक नहीं। यहां तक कि ललचाई दृष्टि से भी नहीं। कभी उनके सौंदर्य की, उनकी देह के लचीलेपन को सराहा भी नहीं। उनके लंबे बालों पर रश्क नहीं किया। न ही गजरा लेकर आए, यह जानते हुए कि मां को गजरा लगाना कितना पसंद है। कभी उनके साथ बैठकर वक्त भी नहीं गुजारा। कभी बात की भी तो पैसों को लेकर या हिदायत देने के लिए कि तुम्हें न समय प्रबंधन आता है, न ठीक से गृहस्थी चलाना। पैसा बचा कर रखना तुम्हारी जिम्मेदारी है।
जब पापा अपना गुबार निकाल जाने लगते तो मां कैसे उन्हें हसरत भरी निगाहों से देखती थीं। अब समझ सकती है कि वह ऐसा क्यों करती थीं। मां पापा के चेहरे पर अपनी जगह तलाशती थीं। अपने लिए उनके होंठों पर प्रेम से सराबोर मुस्कान ढूंढती थीं।
“मुझे इस बात की खुशी है कि तेरी अकड़ में कमी आई है।
“प्रेम जादुई होता है न मां। तुमसे बेहतर और कौन समझ सकता है?”
“क्या मतलब?” मां चौंक उठी थीं। और मैं अनायास अपने मुंह से निकली बात से ध्यान हटाने के लिए बोली, “तुम अपना दब्बूपन कब छोड़ोगी? विरोध की थोड़ी बहुत झलक दिखाना गलत नहीं होता। अपने लिए जीना स्वार्थी होने की निशानी नहीं, बल्कि जो जीवन मिला है, उसके लिए ईश्वर को धन्यवाद कहने का एक ढंग होता है।”
मां की आंखों में न जाने उसे पल कितने सपने तैरते दिखे मुझे।
“मुझे तसल्ली है कि तू खुश है। देबू अच्छा पति है।” मां जैसे सचेत हुईं।
“पति से ज्यादा दोस्त है। तभी बहुत कुछ सीख पाई हूं और प्रेम के एहसास के भीतर छिपे सच को भी जान पा रही हूं।”
“ कैसा सच?”
“यही कि प्यार को जो महसूस कर लेता है, उससे हमेशा जुड़ा रहता है। बेशक समय के साथ उसे कहीं छिपाकर रख दे, पर प्यार कभी मरता नहीं और एहसास को मरने भी नहीं देता है। फिर तुमने क्यों कभी जीने की कोशिश नहीं की मां?”
“अच्छी बात है कि तू प्रेम को जी रही है, समझ पा रही है, पर इतनी भी विद्रोही नहीं बन मुझसे ही सवाल करे। मुझे बहुत काम है रसोई में।”
“पूरा जीवन तो इसी रसोई में बिता दिया। कभी मन में इच्छा नहीं हुई कि एक बार तो कभी पापा तुमसे कहें कि वह तुमसे प्रेम करते हैं। उनका तुम्हारे बिना कोई अस्तित्व नहीं। और जिनसे प्यार करती थीं, उनके ख्याल ने कभी आपको बागी नहीं बनाया। एक बार भी नीलोत्पल्ल काका से मिलने की इच्छा नहीं हुई?”
अवाक खड़ी मां मुझे ऐसे देखने लगीं मानो मैंने उनके पांव से जमीन खींच ली हो।
“क्या बकवास कर रही है मिट्ठू? तुझे यह सब कैसे पता?”
“मैं मिली हूं उनसे। मेरे ससुराल के बगल वाले घर में रहते हैं। उन्होंने ही बताया कि तुम और वह बचपन में पगडंडियों पर साथ चलते-चलते ही जवान हुए।”
मेरी बात सुन मां माथे पर हाथ रख रसोई में रखे स्टूल पर बैठ गईं और बहुत अजीब सी नजरों से मुझे देखा। पता नहीं उनमें हैरानी थी, अफसोस था या पीड़ा थी। बहुत कुछ था उस पल उनकी नजरों में। मां एकदम चुप बैठी थीं, जैसे किसी को कुरेदा जाए तो वह भीतर ही भीतर अपने घावों को सहलाने की कोशिश करता है। मां भी शायद खो गई थीं।
सच में वह सोच रही थीं अपने बचपन के साथी नीलोत्पल्ल के बारे में। वह समय जब दोनों के सुख-दुख एक से थे। एक ही पगडंडी पर दोनों साथ चलते थे और उस पगडंडी ने जैसे उनके जीवन को भी एक कर दिया था। एक साथ स्कूल जाते थे और रास्ते में वह कभी उसको कच्ची इमली तोड़ कर देता तो कभी आम से उसकी झोली भर देता। दोनों ने मन ही मन तय कर लिया था कि बचपन की यह दोस्ती बड़े होने तक कायम रखेंगे। कॉलेज तक वे साथ रहे, फिर नीलोत्पल्ल आगे की पढ़ाई के लिए कोलकाता चला गया और वहीं उनकी शादी कर दी गई।
वही था जो बहुत प्यार से उसका नाम लेता था। जब वह उनको रूमी कहकर पुकारता था तो लगता था मानो कोई धुन बज रही है। याद नहीं उन्हें कि कभी मिट्ठू के पापा ने उन्हें नाम लेकर पुकारा हो। हमेशा मिट्ठू की मां, सोनम की मां, परितोष की मां, यही कहा। सच अपना नाम भूल ही गई हैं वह।
“एक बार मिलना नहीं चाहोगी उनसे?” मैंने रात में उनसे पूछा। मां से इससे पहले कभी मैं लिपट कर नहीं लेटी थी। इस बार एक पल के लिए भी मैं मां से अलग नहीं होना चाहती थी। मैं उन्हें प्रेम का अनुभव करवाना चाहती थी जो उन्हें पापा से कभी नहीं मिला और नीलोत्पल्ल काका आज भी सिर्फ उन्हें ही याद करते हैं।
“मां, जिंदा रहने के लिए प्रेम होना बहुत जरूरी है तो और तुम्हें अपने प्यार को जिंदा रखना चाहिए। मिल लो एक बार नीलोत्पल्ल काका से। वह इसी शहर में हैं। मैं उन्हें अपने साथ ही लाई हूं। होटल में ठहरे हैं।”
“अब क्या करूंगी मिलकर मिट्ठू? क्यों अतीत को वर्तमान में उलझा रही है। जो बीत गया उस पर धूल पड़ी रहने दे।”
“एक बार अपने मन की बात तो कह दो।”
“क्या हो जाएगा?”
“कुछ नहीं। तुम्हारे चेहरे पर रौनक तो लौट आएगी। जब-जब नीलोत्पल्ल काका के बारे में सोचोगी जीने की उमंग तो पैदा होगी। और उन्हें भी हक है कि वह एक बार तो तुमसे मिलकर जान लें कि तुम उनसे प्रेम करती थीं। इसमें कुछ गलत नहीं। बेशक मन ही मन तुम दोनों एक-दूसरे से प्रेम करते थे, पर कभी कहा तो नहीं।
अपने प्रेम की स्वीकृति देकर, अपनी भावनाओं को शब्द देकर उस अफसोस से तो बाहर निकल आओ। स्वीकृति का अधिकार तुम दोनों को है। उस स्वीकृति के सहारे जीना आसान हो जाएगा तुम दोनों के लिए। तुम बस एक बार मिल लो नीलोत्पल्ल काका से।”
मां ने कसकर मुझे सीने से चिपटा लिया। उनके निस्तेज चेहरे पर रौनक की चमक दिखी।
सुबह मां चाय का प्याला मुझे थमाते हुए बोलीं, “बता कब चलना है?”
-सुमन बाजपेयी
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