57 मिनट पहले
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‘अगर तुम रुक जाती…’ घर की आखिरी सीढ़ी पर उसे कदम रखते देख अक्षत ने सोचा।
‘अगर तुम रोक लेते…’ कैब में बैठी दीपा ने सोचा।
दोनों के बीच ‘अगर’ का फासला कब दो दीवारों के बीच लगे कंटीले तारों की तरह खड़ा हो गया, पता ही नहीं चला या शायद उन दोनों ने ही उन कंटीले तारों को लगने से नहीं रोका। यह ‘अगर’ जो कभी अविश्वास तो कभी अहं की वजह से बीच में आ जाता है और एक घुन की तरह रिश्तों को खोखला कर देता है। यह बात क्या दोनों जानते नहीं?
अगर जानते होते तो यूं उनकी जिंदगी करवट न लेती! कैसे दूरियां आ गईं उनके बीच… ‘मैं’, ‘तुम’ से वे ‘हम’ बन गए थे। दीपा के लिए अपने से ज्यादा अक्षत महत्वपूर्ण हो गया था और अक्षत के लिए दीपा उसकी जिंदगी का अहम हिस्सा बन गई थी। शादी करना उन्हें जरूरी नहीं लगता था। लिव-इन में रहना अच्छा विकल्प था, लेकिन समाज के नियमों ने उन्हें विवाह करने के लिए मजबूर कर दिया। उन्होंने खुशी-खुशी इसे स्वीकार किया। पहले में लिव-इन में रहते थे और अब विवाह की मोहर लग गई थी तो क्या? इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि उनके प्यार को किसी सर्टिफिकेट की जरूरत नहीं थी, किसी पहचान की मोहताज नहीं होता प्यार!
वे दोनों वैसे ही अपनी शर्तों पर जीते थे जैसे विवाह से पहले जीते थे। फिर क्यों और कैसे फासले आ गए?
“अगर तुम थोड़ा कंप्रोमाइज करना सीख लो तो हमारे बीच मतभेद कम हो जाएंगे,” अक्षत इन दिनों यह कुछ ज्यादा ही कहने लगा था। “अगर तुम मेरी कमियां, जो अचानक ही तुम्हें अब दिखने लगी हैं, पर ध्यान देना छोड़ दो तो हमारी लड़ाइयां कम हो जाएंगी,” दीपा ने पलट कर जवाब दिया था।
“बात कमियों की नहीं हो रही है। तुम्हारे व्यवहार की बात कर रहा हूं। तुम बदलने लगी हो।”
“तुम्हें अपनी सोच ठीक करनी होगी अक्षत। मैं नहीं बदल रही। तुम्हारा मुझे समझने का नजरिया बदल रहा है। पति का चोला पहनते ही, पति बनते ही पत्नी पर अधिकार जमाने की भावना शायद हावी हो जाती है पुरुष पर। तुम मुझे लेकर पजेसिव रहो, अच्छा लगता है लेकिन इतना नहीं कि मेरा दम घुटने लगे। एक बार प्रेमी बनकर देखो अक्षत, मैं पहले जैसी ही हूं। मैं प्रेमिका ही बनी रहना चाहती हूं। अगर तुम भी प्रेमी के रूप में लौट आओ तो हमारा प्यार बचा रहेगा।”
“प्यार हो तो उसे बचाने या खोने की बात क्यों? इसका मतलब है अब तुम मुझसे प्यार नहीं करती?”
“अक्षत तुम मेरी बात का गलत मतलब निकल रहे हो। प्यार है और हमेशा रहेगा। तुम मेरा हिस्सा हो और उसे अलग करना नामुमकिन है।”
“अगर ऐसा ही है दीपा तो तुम मुझे अजनबी क्यों लगने लगी हो?”
“यह तुम्हारी प्रॉब्लम है अक्षत, मेरी नहीं। कमियां तो मुझे भी दिखती हैं तुम में क्योंकि कोई भी इंसान परफेक्ट नहीं होता। लेकिन मैं उन्हें इसलिए स्वीकार कर पाती हूं क्योंकि मुझे तुम हर रूप में अच्छे लगते हो। प्यार में न तो गलतियां ढूंढी जाती हैं न कमियां गिनाई जाती हैं। और अगर कुछ चटकता महसूस हो तो उसे ऐसे जोड़ना चाहिए कि दरार भी खूबसूरती से उभर आए।
वैसे ही जैसे किंत्सुगी कला में किया जाता है। टूटे हुए मिट्टी के बर्तनों के टुकड़ों को सोने के साथ जोड़ने की यह एक जापानी कला है जो आपकी कमियों को स्वीकार करने की एक उपमा भी है।
जीवन जीने का एक तरीका भी है। जो गलत हुआ, उसे स्वीकार करके पिछली गलतियों और आघातों को ठीक करने का एक साधन है। इसमें मिट्टी के टुकड़ों में जहां दरार आती है वहां एक सुंदर रेखा बन जाती है सोने के साथ जोड़ने पर। इसका मतलब यह है कि गलतियों को स्वीकार करके टूटे हुए टुकड़े में भी सुंदरता खोजनी चाहिए।”
“अगर तुम मुझे ज्ञान देने के बजाय खुद को सुधार लो तो बेहतर हो जाएगा हमारा वैवाहिक जीवन। देर से घर लौटती हो, घर अस्त-व्यस्त हो तो उसे साफ करने का ख्याल नहीं आता। खाना जब-तब बाहर से ऑर्डर कर मंगाती हो।
कोई जिम्मेवारी उठाने की जरूरत ही नहीं समझतीं। इतनी मस्तमौला जिंदगी शादी के बाद नहीं चलती।” “बस इतनी छोटी बातों से नाराजगी है तुम्हें? पहले तो तुमने कभी इन बातों के लिए मुझे नहीं टोका। सच, अब प्रेमी नहीं पति बन गए हो तुम।”
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इस तरह की बहस होना उनके बीच आम बात हो गई। मैं जो कह रहा हूं वही सही है, अक्षत का ‘मैं’ बड़ा होता जा रहा था। दीपा उसे बांहों में भर चूमना चाहती। जब वह पास जाती अक्षत दूरी बना लेता। दूरियां बढ़ने लगीं। ‘बेवजह भी क्या कोई यूं रिश्ते को घाव दे सकता है?’ वह सोचती।
“मेरे साथ रहना मुश्किल है न तुम्हारे लिए?” दीपा को पूछना ही पड़ा।
“अगर तुम खुद को अभी भी बदल लो तो सब ठीक हो जाएगा वरना…”
“‘अगर’ से शुरू करते हो अक्षत हर बात। इस अगर में तुम्हारी अपेक्षाएं छिपी महसूस होती हैं और बात अगर ‘वरना’ पर जाकर खत्म हो तो समझ लेना चाहिए कि कुछ बचा ही नहीं रिश्ते में।”
“तो अब क्या?”
“यह घर तुम्हारा है। छोड़ना मुझे ही पड़ेगा,” दीपा ने कहा। उसकी आंखों में आंसू थे। अक्षत को छोड़ने का मतलब था अपने शरीर का कोई अंग काट कर अलग कर देना। पर वह अक्षत की खुशी के लिए कुछ भी कर सकती है।
नहीं समझ पा रही कि आखिर अक्षत के लिए प्यार के मायने क्यों बदल गए हैं। वह न जाने अब कौन से शीशे में उसके अक्स को देखने लगा है। पहले तो उसके पास कोई और जादुई दर्पण था जिसमें दीपा उसे किसी परी तक की तरह लगती थी। कहता था इस परी के साथ उसने एक जादुई नगरी बसाई है।
काश! उनके रिश्ते में आई दरार भी कोई मिट्टी के टुकड़ों की तरह इस तरह जोड़ पाता कि उभरी लकीर जोड़ के बजाय रेशम के धागे जैसी लगती। कमियां ढूंढो तो हजार दिखने लगती हैं, लेकिन उनसे ही प्यार करने लगो तो वही दूसरे की खूबियां बन सकती हैं।
अगर अक्षत उसे एक आवाज देगा तो वह फौरन उसके पास चली जाएगी। भूल जाएगी उसके द्वारा किए अपमान को। दीपा इंतजार करती कि अक्षत उसे लौट आने को कहेगा। कहेगा कि वह उसके बिना नहीं रह सकता। कहेगा कि वह अपने रिश्ते को एक सोने के तार से खूबसूरती से जोड़ने को तैयार है। कहेगा कि वह सब ठीक कर देगा… बस वह वापस चली आए।
लेकिन अक्षत ने उसे न आवाज दी, न रिश्ता बचाने की कोशिश की। न वह खुद आया उससे मिलने। आए तो तलाक के पेपर्स। नहीं कर सकी वह साइन उन पर। अक्षत के इस फैसले के आगे नहीं झुकेगी वह। आखिर क्या प्यार को यूं झटके में खत्म किया जा सकता है! “तुम तलाक चाहते हो? हैरानी हो रही है। हमारी मोहब्बत के तुम यूं चिथड़े उड़ाना चाहते हो। जो गलत हुआ, उसे ठीक करने की किंत्सुगी कला को अभी तक सीख नहीं पाए? रह लोगे क्या मेरे बिना? मैं तुम्हारी वही परी हूं जिसके साथ तुमने एक जादुई नगरी बसाई थी।” दीपा ने फोन पर कहा।
“तो क्या करूं बोलो? तुम मुझे छोड़ कर चली गई। अगर तुम न जाती तो क्या मैं तुम्हें घर से निकाल देता? अगर तुम कहती कि नहीं जाओगी तो क्या मैं तुम्हें जाने देता?”
“अक्षत बस करो। हर चीज के लिए मुझे जिम्मेवार ठहरना बंद करो। ‘अगर’ हमारे बीच कैक्टस की तरह उग आया है। इसे उखाड़ कर फेंक दो। तुम सच में मुझे अपनी जिंदगी में नहीं चाहते तो मैं पेपर साइन करके भेज दूंगी,” दीपा ने फोन रख दिया।
लेकिन आसान नहीं था उसके लिए पेपर साइन करना। दो महीने बीत गए…अक्षत ने भी पेपर भेजने को नहीं कहा। उस शाम दरवाजे की घंटी बजी तो वह दरवाजा खोल वह बुत की तरह खड़ी रही।
“अंदर तो आने दो,” अक्षत ने उसका हाथ पकड़ते हुए कहा। “चलो जल्दी से सामान पैक करो। हमारा घर तुम्हारा इंतजार कर रहा है।” “और तुम? क्या तुमने किया था मेरा इंतजार?” दीपा का स्वर कांप रहा था।
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“रोज, हर पल… तुम्हारे लौटने की आस की। कितनी बार तुम्हारे घर के आगे से निकला। बस हिम्मत ही नहीं जुटा सका। मैं क्यों झुकूं, यही ख्याल मुझे तुमसे दूर कर रहा था।”
“फिर अचानक कैसे?” दीपा विश्वास नहीं कर पा रही थी अभी भी। “कुछ भी अचानक नहीं होता दीपा। दर्द अंदर लगातार छलांगे मारता रहता है। मन सवाल करता है, जवाब भी खुद देता है। पर वह जवाब संतुष्ट नहीं कर पाए। सही कहती हो तुम कि कोई चीज टूट जाए तो उसे फेंकने की बजाय उसे जोड़ने की कोशिश करनी चाहिए और वह भी ऐसे कि जोड़ एक सुंदर कलाकृति की तरह लगे। फिर सीखी किंत्सुगी कला। बस अपने रिश्ते को जोड़ना चाहता हूं फिर से। अगर…”
“तुम ‘अगर’ को क्या डस्टबिन में नहीं फेंक सकते?”
“समझो फेंक दिया। बल्कि फ्लश कर दिया। अब मेरी परी घर चलो। जादुई नगरी को इस बार विश्वास और प्यार की ईंटों से बनाऊंगा।” “और खुली सोच के साथ भी।” दीपा मुस्कुरा दी।
-सुमन बाजपेयी
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