2 घंटे पहले

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‘क्या उसे प्यार हो गया है?’ निशा बार-बार अपने से सवाल कर रही थी। आईने के सामने ही खड़ी थी वह काफी देर से। कभी अपने गालों को छूकर देखती कि इन दिनों उन पर रक्तिम आभा छाई रहती है हमेशा। कभी अपने होंठों पर उंगलियां फेरती…हमेशा ही तो इन पर मुस्कान किसी रंग-बिरंगी तितली की तरह थिरकती रहती है इन दिनों। अपनी आंखों की भाषा पढ़ने की कोशिश करती है तो लगता है जैसे वह हमेशा किसी के ख्यालों को पलकों में बंद कर एक खुमारी में रहने लगी है इन दिनों। उसने अपने दिल पर हाथ रखा। लगा जैसे प्रीत प्रेम गीत रच रही है उसमें।

हां सच में उसे प्यार हो गया है। प्यार को लेकर बचपन से ही उसके अंदर एक खूबसूरत इबारत लिखी गई है। तब नहीं पता था कि उसे इबादत में जो लिखा है उसके मायने क्या हैं। बड़े होते-होते तक उसने उसे जब पढ़ना सीखा तो सबसे अहम शब्द ‘प्यार’ नजर आया। प्यार को लेकर कभी कोई कुंठा, कोई नफरत या किसी की बेवफाई या धोखा उसने नहीं देखा शुरू से ही।

उसने देखा मां के लिए पापा का प्यार। जीवन में इस एहसास का आगमन अपने माता-पिता के रिश्ते द्वारा ही तो होता है। अब चाहे वह मधुर हो या कटुता भरा। लेकिन उसने तो इसके मधुर रूप को ही देखा।

“कांता कहां हो? कांता रसोई में क्या कर रही हो? कांता थोड़ा आराम भी कर लिया करो। तीन-तीन बेटियां हैं उन्हें भी काम करने की आदत होनी चाहिए।” घर में जब पापा होते तो कांता नाम ही गूंजता रहता और हम बहनें हंस कर मां को चिढ़ातीं, “जाओ कांता, पापा के पास जाकर बैठो। कैसे तो परेशान हो रहे हैं।”

“बेशर्म लड़कियों!” कह मां रसोई से बाहर निकलने लगतीं तो उनके गालों पर छाई लाली हम बहनों से छिपी न रहती। दोनों बहनों का सौभाग्य कहूंगी कि उन्हें भी प्यार करने वाले पति मिले और अब उसके लिए रिश्ते ढूंढे जा रहे हैं।

मां कहती हैं कि स्त्रियां जब प्रेम में होती हैं तो सपने ख्वाहिशों की नींद में बेतहाशा दौड़े चले आते हैं। हां सच है। इन दिनों सपने ख्वाहिशों की नींद में बेतहाशा दौड़े चले आते हैं।

समीर हवा के किसी संगीतमय झोंके की तरह ही तो आया है उसके जीवन में। जब वह आसपास होता है तो विंड चाइम्स बजती प्रतीत होती हैं। उनके घर के बाहर भी विंड चाइम्स ही टंगी है डोर बेल की जगह। जब भी वह बजती, कौन दरवाजा खोलेगा, इसको लेकर भी हम बहनों में होड़ होती। वजह थी कि विंड चाइम्स बजाने का तरीका… कोई हौले से उसे हिलाता था, कोई तेजी से और कोई ऐसी कि मानो मधुर तान सी बज रही हो। और बजाने वाले के अंदाज से उन्हें अमूमन पता ही चल जाता था कि कौन होगा।

ट्रेन में मुलाकात हुई थी समीर से। फ्लाइट की टिकट नहीं मिली थी, इसलिए ट्रेन में जाना पड़ा बड़ी कोफ्त हुई थी उसे। पापा ने हंसते हुए कहा था, “कभी-कभी हमारी महारानी को ट्रेन के सफर का मजा भी लेना चाहिए। खिड़की से बाहर नजारे तो देखने को मिलेंगे ही, साथ ही अंदर अलग-अलग तरह के लोग होंगे। एक्स्पोज़र समझ ले इसे। सीखने के लिए अच्छी जगह है छुक-छुक रेलगाड़ी मेरी डोरू।”

“क्या पापा अब मैं बड़ी हो गई हूं। अभी भी डोरू कहना नहीं छोड़ते और आपकी इस सलाह के लिए धन्यवाद,” निशा ने तुनकते हुए कहा था। “एक तरफ महारानी कहते हैं तो दूसरी तरफ ट्रेन में भेज रहे हैं उसको पता था कि आपको पता था कि एक ट्रेनिंग के लिए जाना है फिर भी फ्लाइट की टिकट बुक करने में देर कर दी। कमाल तो देखो फ्लाइट की टिकट नहीं मिली और ट्रेन में मिल गई। क्या जमाना आ गया है!”

निशा सबसे छोटी है, लाडली भी है और इसलिए मनमानी करना अपना अधिकार समझती है। पापा से जो कहे, पर सच में उसे उनका डोरू कहना अच्छा लगता है। पापा मां से ही नहीं, हम तीनों बहनों पर भी खूब प्यार लुटाते हैं, इसलिए वह आदर्श पुरुष हैं तीनों के लिए।

फर्स्ट एसी बुक किया था पापा ने। दिक्कत कोई नहीं हुई। एकदम आरामदायक सफर। गुड़गांव से चढ़ा था समीर। खादी का कुर्ता, जींस और पांव में स्पोर्ट्स शूज। बाल इतने घुंघराले कि अगर उनमें उंगलियां घुमाई जाएं तो वे उनमें ही फंस जाएं। नाक थोड़ी मोटी, पर होंठ लड़कियों की तरह गुलाबी और पतले। कान के पास एक तिल था। न गोरा, न सांवला… जैसे पुरुषों का रंग होना चाहिए वैसा ही था।

जितनी देर में वह सामान रख उसके सामने वाली सीट पर बैठा, निशा ने अपनी आदत के अनुसार उसके व्यक्तित्व की पूरी हिस्ट्री, जियोग्राफी, केमिस्ट्री का आकलन कर लिया। इंजीनियर होने के साथ-साथ पेंटर भी है वह, इसलिए ऑब्जरवेशन क्षमता जबरदस्त है उसमें। एक शालीन सहयात्री की तरह उसने ‘हेलो’ कहा।

“आप भी जयपुर जा रही हैं?” निशा ने हां में सिर हिला दिया था। “ “राजधानी सबसे अच्छी ट्रेन है वहां के लिए। शताब्दी के लिए तो बहुत सुबह निकलना पड़ता है। वहां घर है या किसी काम से जा रही हैं?” निशा को पहले तो लगा कि उसकी बात का जवाब ही न दे। नाहक ही बातों का सिलसिला बढ़ा रहा है। फिर सोचा इसी बहाने टाइम पास हो जाएगा। वैसे भी देखने और बातचीत करने में ठीक ही है। मां तब होतीं तो जरूर उसे कहतीं,‘तेरे तो नखरे ही निराले हैं। बात भी उनसे करती है जो देखने में अच्छा और सलीकेदार हो।’

“मेरा इंटरव्यू है जयपुर में कल। वैसे गुड़गांव में अच्छी कंपनी में नौकरी कर रहा हूं, पर सोचा यहां भी किस्मत आजमाकर देखता हूं। यहां ब्रांच ऑफिस है। हेड ऑफिस तो चेन्नई में है। जयपुर में मौसी रहती हैं, उनके घर ही रहूंगा और आप?”

“कंपनी ने ही रेस्ट हाउस अरेंज किया है। कल से तीन दिन की ट्रेनिंग है। कोई नया लांच है, उसकी ही ब्रीफिंग और ट्रेनिंग है।” न चाहते हुए भी उसके साथ बातों का सिलसिला कायम करने से खुद को रोक नहीं पाई थी। जब बातें होने लगती हैं तो नंबर देना आजकल एक तरह का फैशन ही बन गया है। यह बात अलग है कि हर किसी से बात नहीं की जा सकती। निशा तो उन नंबरों को फोन में सेव भी नहीं करती है।

समीर ने उसका नंबर लेकर मिस्ड कॉल दे दी। निशा ने सेव नहीं किया। ट्रेन तक ही तो यह मुलाकात रहने वाली है, फिर क्यों भरे वह अपनी फोनबुक!

जयपुर स्टेशन पर समीर को बाय कहने के बाद उसे क्या पता था कि उसे उसका नंबर ही नहीं, उसे भी सेव करना पड़ेगा दिल में हमेशा के लिए। नियति जैसे उन्हें मिलाने के लिए ट्रेन के सफर की साजिश करने निकली थी।

वापसी दोनों की फिर एक ही ट्रेन में थी। इस बार भी एक ही डिब्बे में…सच तब निशा को वह किसी फिल्मी घटना की तरह लगा था यह संयोग। उसने तो बताया भी नहीं था वह कब लौटेगी और किस ट्रेन से। पापा ने कहा भी था कि वापसी की फ्लाइट टिकट है, करवा देता हूं। ट्रेन टिकट कैंसिल कर देते हैं, पर उसने मना कर दिया था। क्यों? पता नहीं…कई बार अजनबी भी जाना-पहचाना सा लगने लगता है…पता नहीं क्यों?

वापसी का वह सफर उसकी जिंदगी में वह एहसास भर गया जिसे वह मां-पापा के आसपास बचपन से देखती आ रही थी। कोई क्यों अच्छा लगने लगता है, इसका जवाब किसी के पास नहीं होता शायद…उसके पास भी नहीं है। ‘उसे आखिर समीर में क्या अच्छा लगा? समीर में ऐसा क्या है?’

पैंट्रीकार वाला चाय लाया तो समीर ने पूछा, “कुल्हड़ नहीं है क्या तुम्हारे पास? अरे ईको फ्रेंडली बनाओ ट्रेन को भी।”

निशा ने उसे हैरानी से देखा। कुल्हड़? वह तो कभी नहीं पी सकती उसमें। वह पेपर कप में चाय पीने लगी।

“मुझे तो हर वह बात जो दूसरों को बेमानी या अजीब लगे, उसका लुत्फ उठाने में मजा आता है। तुम्हारे चेहरे से लग रहा है कि कुल्हड़ में चाय पीने का ख्याल अजीब लगा,” समीर जोर से हंसा तो निशा झेंप गई। पर इतनी जोर से हंसना तो उसकी सलीके की डिक्शनरी में नहीं आता है।

“जिंदगी को खुलकर जीना चाहिए…ख्वाहिशों के पंख लगाकर उड़ने का अपना ही मजा है। तरीके और सलीके से जीना सही है, पर मन मारकर या यह सोचकर कि दूसरा क्या सोचेगा, जीना इज नॉट माई कप ऑफ टी। तुम भी कभी इस फलसफे को ट्राई करना, अच्छा लगेगा।”

‘जरूर करूंगी,’ निशा ने जैसे अपने से कहा।

“कोई अच्छा लगने लगा है क्या?” मां ने घर लौटने के बाद अगली सुबह पूछा।

“तुमने कैसे जाना?” निशा ने हैरानी से पूछा।

“स्त्रियां कभी छिपकर प्रेम नहीं करतीं। इसलिए किसी खुली किताब की तरह पढ़ा जा सकता है उनका प्रेम। इसलिए जान लिया मैंने भी। और फिर प्यार को मुझसे बेहतर कौन समझ सकता है।” कहते-कहते किसी षोडषी की तरह लजा गई थीं मां।

“अच्छा ही है कि खुद पसंद कर लिया। तेरे लिए रिश्ते ढूंढने का झंझट खत्म। कब मिलवा रही है?”

“कल।” निशा के कानों में समीर के शब्द गूंज रहे थे विंड चाइम की मधुर तान की तरह, “फोन करूंगा। कल शाम मिलते हैं कहीं। जहां तुम कहोगी। अब से तुम सपनों में बसी रहोगी किसी ख्वाहिश की तरह।”

“घर ही आ जाना,” निशा बोली थी।

शाम को जैसे ही विंड चाइम बजी तो घर के अंदर तक प्रेम की झंकार सुनाई दी। हालांकि विंड चाइम को जोर से बजाया गया था, पहले की तरह न उसने मुंह बनाया, न उसे बुरा नहीं लगा। वह जानती थी कि समीर ही है दरवाजे पर।

-सुमन बाजपेयी

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