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- Received The First Gold With Bloody Ft, Father Made Me Run By Promoting Fruits And Greens; Introduced A Medal In The Asian Video games
5 घंटे पहलेलेखक: कमला बडोनी
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हैसियत से सपनों का कोई सरोकार नहीं। सपने बड़े हों तो हैसियत बनाने का जुनून आ ही जाता है। मुंबई के दहिसर इलाके में 10X10 के कमरे में रहने वाले ऐश्वर्या मिश्रा के पिता कैलाश मिश्रा ने भी ऐसा ही एक बड़ा सपना देखा-बेटी को कामयाब एथलीट बनाने का।
समाज के तानों की परवाह किए बिना पिता के दिए हौसलों के पंख लिए बेटी ने सफलता की ऐसी ऊंची उड़ान भरी कि एशियन गेम्स 2023 में सिल्वर मेडल जीतकर पिता का सपना पूरा किया और देश का नाम रोशन किया। ‘ये मैं हूं’ में जानिए एथलीट ऐश्वर्या मिश्रा की कहानी…
सपनों की औकात बड़ी होती है
अभावों में जीत का इतिहास रचने वालीं ऐश्वर्या मिश्रा देश की उन तमाम बेटियों के लिए मिसाल हैं जिनकी आंखों में कामयाबी और जीत के सपने पल रहे हैं। ऐश्वर्या के पिता उन सभी माता-पिता के लिए मिसाल हैं जो बच्चों को अपनी हैसियत से बड़े सपने देखने का हौसला देते हैं और हर मुश्किल घड़ी में उनके साथ डटकर खड़े रहते हैं।
ऐश्वर्या मिश्रा ने एशियन गेम्स 2023 में सिल्वर मेडल जीतकर देश का नाम रोशन किया
पापा ने जीतना सिखाया
मेरे पापा भी एथलीट रहे हैं, लेकिन हालात ने उन्हें मौका नहीं दिया। गांव में स्पोर्ट्स के लिए अवसर नहीं मिल रहे थे इसलिए पापा ने गांव ही छोड़ दिया। देश के लिए मेडल लाने की चाहत में पापा 18 साल की उम्र में बनारस का घर छोड़कर मुंबई आ गए।
मुंबई आकर पापा ने स्पोर्ट्स से जुड़ने की बहुत कोशिश की, लेकिन मौका नहीं मिला। माया नगरी में दाल-रोटी का संघर्ष ही इतना बड़ा था कि उनके सपने अधूरे रह गए। स्पोर्ट्स तो दूर पेट भरने के लिए पापा को ट्रेन में कलम बेचनी पड़ी, ठेला लगाना पड़ा। पापा ने फल-सब्जी बेचकर हम तीन भाई-बहनों को पाला-पोसा और बड़ा किया।
पापा खुद तो देश के लिए मेडल नहीं ला पाए, लेकिन उन्होंने मुझे जीतना सिखाया, हालात से भी और खेल के मैदान में भी।
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स्कूल से शुरू हुआ दौड़ का सफर
मैं पांचवीं क्लास से स्कूल के मैराथन में हिस्सा लेने लगी। तब से मैं एथलीट बनने के सपने देखने लगी। मेरी स्पोर्ट्स में रुचि देखकर पापा ने मुझे प्रोत्साहित किया। उन्होंने खुद तंगी झेली, लेकिन मेरे लिए जरूरत के सारे सामान जुटाए। कभी मेरा हौसला टूटने नहीं दिया।
पापा को लोग ताने देते
रिश्तेदार पापा को ताने देते कि लड़की पर इतनी मेहनत क्यों कर रहे हो। लोगों की संकीर्ण सोच ये थी कि बनारस की लड़की को उसके पिता दौड़ने की इजाजत कैसे दे सकते हैं? लेकिन पापा ने किसी की नहीं सुनी। उन्हें अपने फैसले और मेरी मेहनत पर पूरा भरोसा था। पापा को भरोसा साथ था इसलिए मैंने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। चाहे कितनी ही परेशानियां आईं मैंने कभी हार नहीं मानी।
लोग कहते बेटे को अंग्रेजी मीडियम और बेटी को हिंदी मीडियम में पढ़ाओ, लेकिन मेरे माता-पिता ने हम तीनों भाई-बहनों में कभी कोई भेदभाव नहीं किया। बल्कि मेरी ट्रेनिंग की खातिर कई बार मेरे बड़े भाई की पढ़ाई डिस्टर्ब हुई। छोटी बहन ने भी हमेशा मेरा साथ दिया। आज मैं जो भी बन पाई हूं वो मेरे परिवार के त्याग और संघर्ष का नतीजा है।
कॉलेज में पता चला स्पोर्ट्स का महत्व
स्कूल में मैं अच्छा दौड़ रही थी, लेकिन मुझे सही दिशा नहीं मिल रही थी। जब मैंने मुंबई के ठाकुर कॉलेज में एडमिशन लिया तो वहां मेरे कोच सुमित सिंह ने मुझे स्पोर्ट्स के सही मायने सिखाए। वहां से मेरी असल ट्रेनिंग शुरू हुई। उन्होंने ही मेरे करियर को नई दिशा दिखाई और एशियन गेम्स तक पहुंचने में मदद की।
मेरी स्पोर्ट्स की सही जर्नी देर से शुरू हुई, लेकिन फिर मैंने इसके लिए बहुत मेहनत की। हमारे घर के हालात ऐसे नहीं थे कि पापा मुझे स्पोर्ट्स का हर सामान आसानी लाकर दे पाते। मुझसे घर की किसी स्थिति छिपी नहीं थी इसलिए मैं अपनी तरफ से कोई एक्स्ट्रा खर्च नहीं करती थी।
जूते खरीदने के पैसे नहीं थे
रेसिंग करियर में स्पाइक वाले जूतों का बहुत महत्व है। लेकिन ये जूते इतने महंगे होते हैं कि हमारे जैसे परिवार के लिए इन्हें खरीदना बहुत मुश्किल होता है। पापा मेरे लिए स्पाइक वाले जूते नहीं खरीद पा रहे थे। जो पिता फल और सब्जियां बेचकर परिवार का पेट पाल रहे हों, इतनी कम आमदनी में जैसे तैसे परिवार की प्राथमिक जरूरतों को पूरा कर रहे हों, वे बेटी के लिए हजारों रुपए के जूते कहां से खरीदते। मेरे अलावा उन्हें बड़े भाई और छोटी बहन की पढ़ाई का खर्च भी उठना होता था।
लहूलुहान पैरों से जीता पहला गोल्ड
मेरी पहली नेशनल रेस से पहले पापा ने पहली बार मुश्किल से मुझे स्पाइक वाले जूते खरीदकर दिए, लेकिन वो भी छोटे निकले। मेरे पास उन्हें पहनने के अलावा और कोई चारा नहीं था। टाइट जूते पहनकर दौड़ते हुए मेरे पैरों से खून आने लगा, लेकिन मैं रुकी नहीं। लहूलुहान पैरों से दौड़ते हुए ही मैंने अपना पहला नेशनल गोल्ड जीता। पापा ने जूते फेंके नहीं हैं। अभी भी उन जूतों पर मेरे खून के निशान हैं।
पापा को शिकायत है
पापा स्पोर्ट्स में नहीं जा सके इसका अब उन्हें कोई मलाल नहीं है। लेकिन मेरे मामले में उन्हें ये शिकायत जरूर है कि मेरी ट्रेनिंग के दौरान किसी ने आगे बढ़कर कभी कोई मदद नहीं की। हालांकि मैंने कभी किसी की मदद का इंतजार नहीं किया। मैंने अभावों में अवसर तलाशने शुरू कर दिए। फटे जूते पहनकर भी मैं दौड़ती रही, अपनी प्रैक्टिस में कभी कोई कमी नहीं आने दी।
फटे जूतों से मेडल तक का सफर
मेरी नजर अपने अभावों पर नहीं, पापा के बताए लक्ष्य पर रही है। इसलिए मैंने कभी हार नहीं मानी। मुझे देश के लिए मेडल लाना था और वो मैंने कर के दिखाया। आज हमारे छोटे से घर में सजे मेडल पापा का सीना गर्व से चौड़ा कर देते हैं।
ऐश्वर्या मिश्रा अपने परिवार के साथ
जीत का इतिहास रचा
चीन के हांगझू में खेले जा रहे एशियन गेम्स 2023 के 14वें दिन मैंने 4X400 मीटर की दौड़ में सिल्वर मेडल जीता। ये जीत सिर्फ मेरी नहीं, मेरे पापा के लंबे संघर्ष की जीत है। उनकी कोशिशों ने ही मुझे देश के लिए सिल्वर मेडल लाने का हौसला दिया। अब मैं देश के लिए गोल्ड लाने की कोशिश में जुटी हूं। मुझे पूरा यकीन है कि जल्द ही मेरा ये सपना भी पूरा होगा।