53 मिनट पहले

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उस शाम, अचानक एक जानी पहचानी सूरत मुझे न्यू मार्केट में चहलक़दमी करते हुए दिखी।

“जूली”

एक क्षण के लिये लगा, ये मेरा भ्रम भी तो हो सकता है! वो, जैसे ही एक गारमेंट की दुकान में घुसी, उसे क़रीब से देखने के प्रयास में मैं भी उसी गारमेंट की दुकान में घुस गयी। चेहरे पर उम्र का एहसास साफ़ दिख रहा था। इकहरे बदन की जूली ने नीली जींस के ऊपर रंगीन क़मीज़ पहन रखी थी। हील वाले सैंडल उसे भले ही नवयौवना नहीं बना रहे थे फिर भी उसकी चाल का फ़ुर्तीलापन यही बता रहा था कि वो अभी भी ख़ुद को किसी से कम नहीं आंकना चाहती।

“जूली” बेसाख़्ता मैंने उसे पुकारा तो उसने मेरा चेहरा ऊपर किया,

“सुम्मी? मैं ग़लत तो नहीं कह रही” सामने से आवाज़ आयी

“बिल्कुल नहीं” और फिर आगे बढ़कर, हम दोनों ने एक दूसरे को अपनी बाहों में भर लिया। उसने एक सुंदर सा स्कार्फ़ और प्लाज़ो ख़रीदा फिर थोड़ी बहुत औपचारिकता के बाद मुझे पास के ही रेस्टोरेंट में ले गयी। पुरानी यादों को ताज़ा करने की इच्छा तो मेरे मन में भी थी।

“ यहां आना कैसे हुआ” टेबल पर बैठते हुए जूही ने पूछा

“ नंदी, यहीं पर सैटल है। उसकी प्लेसमेंट एजेंसी है। बहू भी उसी के साथ काम करती है। आजकल फ़ैमिली वे में है इसीलिए आना ज़रूरी था” मैंने जवाब दिया तभी वेटर कॉफी लेकर आ गया।

“तुम यहां अकेली क्या कर रही हो” जिज्ञासा मुझे भी थी।

“ इंटीरियर डिजाइनिंग करती हूं।आसिफ़ अली रोड पर मेरा ऑफिस है”

“बेटा-बहू कहां हैं?”

मेरे सवाल पर उसका चेहरा उतर गया। मैं उसके मनोभावों को समझ नहीं पा रही थी।

“सारे सवाल यहीं पर पूछ लोगी क्या”

कॉफी पीकर हम दोनों चहकते हुए बाहर निकले तो जूही ने पर्स से में से अपना विज़िटिंग कार्ड निकाला और मुझे देते हुए बोली, “फ़िलहाल तू कुछ समय तो दिल्ली में ही रहेगी न? किसी दिन मौक़ा मिले तो फ़ोन करके मेरे घर आ जाना। तभी खुलकर बातें करेंगे।”

उसने मेरे लिये टैक्सी बुक की और टैक्सी ड्राइवर को लोकेशन बता कर कार पार्किंग की तरफ़ मुड़ गयी। रास्ते भर, एक बात मेरे ज़ेहन में कौंधती रही कि, क्या बातें खुलकर करेगी जूही? ऐसा कौनसा राज़ ,दफन है उसके सीने में, जिसका खुलासा करेगी? बेटे के सवाल पर वो चुप क्यों हो गयी? सीधे सीधे बता देती। पढ़ रहा है या नौकरी कर रहा है?

बहरहाल उम्र के साठवें पड़ाव पर भी वो मुझे बेहद चुस्त दुरुस्त, और ख़ुशमिज़ाज दिखी। मैंने जूही के कथन का मान रखा और अगले हफ़्ते उसके घर जाने का प्रोग्राम बना लिया। ढेर सारी बातें करनी थीं उससे। जूली के साथ मेरी बॉडिंग कमाल की थी। इसकी वजह थी जूही का पारदर्शी स्वभाव। उसे जो भी कहना होता बिना किसी छल कपट के साफ़ साफ़ कहकर अपना मन हल्का कर लेती। पढ़ने में वो शुरू से अच्छी थी। इसीलिए, ग्रेजुएशन के बाद उसे प्रथम प्रयास में ही आर्किटेक्चर कॉलेज में दाख़िला मिल गया था। चेहरे का रंग थोड़ा दबा था। बस यही एक ख़ामी थी जिसके लिए उसके मन में कभी भी मलाल नहीं हुआ। हमेशा एक ही बात कहती, “अपनी कर्तव्यनिष्ठा और मेहनत से मैं लोगों के बीच एक महत्वपूर्ण जगह ज़रूर बना लूंगी”

और उसने जगह बनायी भी थी। अपने क्षेत्र में वो हमेशा शीर्ष पर ही रही थी। मिलनसार इतनी कि मिनटों में किसी को अपना बना लेती। उस के कई क्लासमेट्स जो स्कूल से ही उसके दोस्त थे अक्सर उसके घर आते जाते रहते थे। मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि उसे किसी विशेष लड़के में रुचि थी। उल्टा, उन सब के जाने के बाद मैं उसे छेड़ती, “इनमें से कौन तुझे सबसे अच्छा लगता है।”

वो अपनी खूबसूरत आंखों से मुझे घूरती फिर हंस देती, “जासूसी करने की कोई ज़रूरत नहीं है। इन में से मुझे अलग से वैसे कोई पसंद नहीं है, जैसा तुम सोच रही हो।”

बाद में पता चला उसका, अपने बैचमेट शुभेंदु से अफेयर चल रहा था। इस बात का अंदाज़ा तो मुझे काफ़ी पहले ही हो गया था। क्योंकि मैं भी तो गुज़र चुकी थी उम्र के इसी पड़ाव से। पहले अपना काम करते हुए वो कभी फ़ोन चेक नहीं करती थी अब, ज़रा सी फ़ुरसत मिलते ही वो, फ़ोन से चिपक ज़ाया करती थी। बल्कि अपना मोबाइल, अपने साथ ही रखती थी। उम्र की बंदिश न होती तो शायद ही उसके घरवाले इस शादी के लिए तैयार होते। कहां शुभेंदु की सुनिश्चित आय वाली नौकरी कहां जूही का भारी भरकम पैकेज!

अचानक टैक्सी रुकने की चरमराहट सुनकर मैं वर्तमान में लौट आयी थी। कार्ड पर लिखे ऐड्रेस को खोजती हुई मैं, सही स्थान पर पहुंच गयी थी। दिल्ली के एक पॉश इलाक़े में उसका फ़्लैट था। घर का इंटीरियर देख कर लगा उसके इंटीरियर का बिज़नेस काफ़ी अच्छा चल रहा है। टेबल पर रखे फ़ाइलों के ढेर, और बार बार बजती फ़ोन की घंटियां उसकी व्यस्तता का सुबूत थीं।

दरवाज़ा जूही ने ही खोला था। मुझे देखते ही वो मुझ से लिपट गई। फिर बोली, “अब तुम चार-पांच दिन यहीं रहो। मैं भी काम से छुट्टी ले लेती हूं। खूब गुज़रेगी जब मिल बैठेंगे दीवाने दो”

“ बेटे बहू ने सिर्फ़ आज की इजाज़त दी है” मैं मुस्कुरा कर बोली

“अब क्या तुम्हें उनकी इज़ाज़त लेकर जीना होगा? उम्र के इस पड़ाव पर भी मुक्ति नहीं” जूली ने चुहलबाज़ी की

“तुम तो जानती हो औरत की स्थिति दांतों तले जीभ की तरह होती है। मायके में पिता-भाई तो, ससुराल में पति-पुत्र। इनकी सुरक्षा कवच में ही हमारा वजूद सुरक्षित है”

“ग़लत, बिल्कुल ग़लत” जूली का स्वर तेज हो गया, ”दरअसल हम औरतें हिम्मत ही नहीं जुटा पातीं इस सुरक्षा कवच को तोड़ने की?”

“ तोड़ कर मिलेगा क्या”

जूली चुप्पी साधे रही। मैंने पुन: अपनी बात जारी करते हुए कहा।” कुछ खोकर ही कुछ पाया जा सकता है”

इतना सुनते ही जूली की भ्रकुटी तन गयी।

“मुझे ये समझ में नहीं आता कि औरत थोड़े में ही अपने आप को सीमित क्यों रखे? इसी रूढ़िवादी मैंटेलिटी का ही तो पुरुष फ़ायदा उठाता है। ख़ुद ऑटोक्रेट बनकर शासन करता है और औरतों को कुछ में ही सिमटाकर ताउम्र एहसान जताता रहता है।”

जूही ग़लत नहीं कह रही थी। मां ने अपनी पूरी उम्र पापा और हम बच्चों की ख़िदमत में होम कर दी लेकिन उन्हें पापा जैसी स्वतंत्रता कभी नहीं मिली? पढ़ी लिखी थीं। आर्थिक फ़ैसले की बात तो दूर कभी शेयर मार्केट या बैंकिंग जैसे विषयों पर बात करने की कोशिश भी करतीं तो पापा चिढ़ जाते। कभी भूले से भी अपनी कमाई का रहस्य नहीं खोला। मां को छोटे से छोटे फ़ैसले के लिए भी पापा की इजाज़त लेनी पड़ती थी। वो, स्त्री होने के एक अभिशापित जीवन की ऐसी बेड़ियों में जकड़ी रहीं जिनसे वो आजन्म मुक्त नहीं हो पायीं। बदले में बहुत हुआ तो पापा ने मां के नाम एक मकान बनवा दिया था। मां इसी में ख़ुश थीं कि पापा ने उनका मान रखा। इस तरफ़ तो उनका ध्यान ही नहीं गया कि बुढ़ापे में इस मकान का क्या करेंगी? ज़्यादा से ज़्यादा रहने का ठिकाना? कल को बच्चों ने बेरुख़ी दिखाई तो क्या मकान बेचकर अपनी ज़रूरतें पूरी कर पायेंगी? क्या अकेले में मकान बेचना आसान होगा? पापा के जाने के बाद वो,पूरी ज़िंदगी अपने बच्चों पर ही निर्भर रहीं।

“पति-पुत्र की ख़ुशी में ही एक औरत की ख़ुशी है” मेरा संस्कारी मन ,पुन: मुझे मूल विषय पर ले आया।

“मैं तो ऐसा नहीं मानती। पति पत्नी में अगर परफ़ेक्ट अंडरस्टेंडिंग है तब तो औरत अपनी ज़िंदगी ख़ुशी से गुज़ार सकती है वरना, औरत के लिए वो घर, घर नहीं जेलखाना है। कितना भी कमाए, घर को सजायें संवारे, काम करे, रिश्ते निभाये लेकिन, पुरुष की नज़र में औरतों की स्थिति एक ग़ुलाम से ज़्यादा कुछ नहीं। कितने पुरुष हैं जो अपनी पत्नियों की योग्यता पर नाज़ करते हैं”

जूही के तेवर कड़े थे। मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि आख़िर शादीशुदा ज़िंदगी को लेकर उसके मन में इतनी कड़वाहट क्यों है? मैंने चारों तरफ़ नज़र दौड़ाई। न उसके पति की आवाज़ सुनाई दी न ही बच्चों की। बातचीत का प्रसंग बदलने के विचार से मैंने पूछा,

“शुभेंदु नहीं दिख रहे हैं…।”

“मैं जानती थी तुम ये प्रश्न ज़रूर करोगी”

“ मैंने कुछ ग़लत कह दिया क्या“

“बिल्कुल नहीं। और अगर कहा भी है तो इसमें नया क्या है? सदियों से गलती हमेशा औरत की ही तो होती है। हम इस परंपरा को निभाने के अभ्यस्त हो चुके हैं” उसने अपना कंधा उचका कर कहा।” मगर मैंने इस गलती को सुधारा है। individuals ought to change their low-cost mentality।, they need to preserve logical considering to not be fantasy believer”

जूली का कथन अबूझ पहेली की तरह था। मैं असमंजस में पड़ गयी

“मैं जानती हूं तुम भी यही कहोगी कि निभाना तो औरत को ही पड़ता है कभी परिवार की ख़ातिर तो कभी समाज की ख़ातिर। हर औरत कोशिश करती है। कोशिश मैंने भी की थी”

तभी उसकी कामवाली बाई आ गयी।

“खाने में क्या लोगी? वेज या नॉनवेज”

“मैंने नॉनवेज छोड़ दिया है।”

मेरी बात पर उसने ज़ोर से हंस दिया

“इससे कुछ फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला। ये मत समझना कि बुढ़ापे में सात्विक हो जाओगी तो, ईश्वर तुम्हारे लिए स्वर्ग में रहने की जगह बना देंगे। स्वर्ग नर्क सब यहीं है। वैसे भी भगवान ने स्त्रियों के लिए स्वर्ग बनाया ही कहां है”

“पूरी ज़िंदगी शतरंज का मोहरा ही बनी रही। पूरे घर को बांधने के प्रयास में ये जान ही नहीं पायी की, जिस डोर से सबको बांधने का प्रयास कर रही थी वो डोर ही कच्ची थी। जितना बांधने की कोशिश करती उतनी ही डोर टूटती जाती और गांठ पड़ जाती।

जूली ने “थी” शब्द का इस्तेमाल किया तो कुछ- कुछ माजरा मेरी समझ में आ गया।

“शुभेंदु आर्किटेक्ट था और मैं इंटीरियर डेकोरेटर। एक साथ काम करते हुए कब हम एक दूसरे के क़रीब आते गये पता ही नहीं चला। मेरा प्रेम, युवा मन का कोरा भावुक प्रेम नहीं था। न ही सिर्फ़ शारीरिक आकर्षण ही था। शुभेंदु ने मेरी प्रतिभा और व्यक्तित्व को स्वीकार किया था और मैं उसके स्वभाव की मैच्युओरिटी और शराफ़त की तरफ़ आकर्षित हुई थी। ऐसा लगता था जैसे वो मुझे कठिन से कठिन परिस्थिति से भी उबार लेगा।

लेकिन शादी के बाद शुभेंदु कैसे बदल गया कि, पता ही नहीं चला। सुबह से शाम तक काम करती लेकिन मेरी सराहना तो दूर मुझे नीचा दिखाने की पूरी कोशिश की जाती। कभी मेरी तुलना उसकी बहनों से की जाती तो कभी मां से। हैरान परेशान सी मेरी आंखें शुभेंदु का सहारा ढूंढने की कोशिश करतीं लेकिन उस के पास तो जैसे सबकुछ चुक गया था मुझे देने के लिए, मां के हाथों में थमी डोर के इशारे पर नाचने वाला शुभेंदु एक ऐसा पति था जो, संबंधों की गरिमा को ही नहीं पहचान पाया। मां मां होती है बहन बहन, सबके अधिकार अलग हैं, सीमाएं बंटी हैं, फिर टकराहट कैसी? इन तुलनाओं से उसने अपने घर का वातावरण नारकीय बना दिया था। मां के सामने मेरी आलोचना करता, और बंद कमरे में चार दीवारों के बीच मुझे आलिंगंबद्ध करके मेरी तारीफ़ों के पुल बांधता।”

“ हो सकता है शर्मवश ऐसा करता हो”

“पति पत्नी के बीच शर्म कैसी? वो मुझ से कम कमाता हो या ज़्यादा ये मेरे लिये कोई मायने नहीं रखता था। मायने रखती थी तो वो पारदर्शिता, जिसकी क़सम हमने सातफेरों के बीच ली थी।”

जूली की बातों में दम था। वो आगे बोली,

“ब्याह के कुछ दिनों बाद ही लोगों के फ़ोन आने शुरू हो गए। हमें उन असाइनमेंट्स को पूरा करना था जिन पर विवाह से पूर्व हमने सिग्नेचर किए थे। चारों तरफ़ फैले क्लेश और तनाव से बचने के लिए एकमात्र तरीक़ा भी यही था कि हम दोनों पति-पत्नी, ख़ुद को अपना करियर बनाने में व्यस्त कर लें। लेकिन शुभेंदु काम करना ही नहीं चाहता था। अगर उसे समझाती तो वो अपना आपा खो बैठता, दया दिखाती तो छोटे बच्चे की तरह सुबकने लगता।

धीरे धीरे मेरा काम बढ़ने लगा। चिड़िया भी जब घर लौटती होगी तो वो, दो पल सुस्ता लेती होगी लेकिन, वो सब मुझ पर ऐसे टूटते, जैसे कबूतरों के झुंड दाना डालने पर टूटते हैं। पैसा देते समय बुरा नहीं लगता था लेकिन अपनी सारी सैलेरी देकर शुभेंदु के सामने हाथ फैलाऊं ये मुझे गंवारा नहीं था। हद हो गयी जब वो मुझ पर हाथ उठाने लगा”

“तुम्हारी सफलता पर ईर्ष्यालु हो उठा होगा”

“जब पति की सफलता पर पत्नी इतरा सकती है तो पति क्यों नहीं? पति सोचे कि औरत हर हाल में उसकी संपत्ति है इसीलिए उसकी हर चीज़ पर उसका अधिकार है तो मैं ठोकर मारती हूं इस सोच पर। मैं उसके लिए सिर्फ़ पैसे कमाने वाली गुड़िया नहीं बल्कि कंधे से कंधा मिलाकर चलने वाली जीवनसाथी थी। जब पति पत्नी के बीच भावनाओं की कोई जगह ही न हो तो एकतरफ़ा इस रिश्ते को ढोने का क्या फ़ायदा!”

“बेटा कहां है?”

“उसी के पास है। कहता था अगर बेटा नहीं दोगी तो तुम्हारा जीना मुहाल कर दूंगा”

“अब तक तो उसकी शादी भी हो चुकी होगी?”

“मैं नहीं जानती।”वो सीधे सपाट शब्दों में बोली, ”मैं पीछे मुड़कर देखने में विश्वास नहीं करती। अपनी बिंदास जीवन शैली पर गर्व है मुझे। मेरे जैसी महिलाओं की मित्र मंडली है यहां। आये दिन सैर सपाटे, दावतें होती रहती हैं”

जूली का विश्वास देखने लायक़ था।

“किसी पुरुष साथी की ज़रूरत महसूस नहीं हुई कभी”

वो खिलखिला कर हंस दी,” पुरुष का साथ गुनगुनी सुबह की तरह हो तब ना। यहां तो पहला दिन ही जेठ की दुपहरी की तरह तपता रहा। दोबारा हिम्मत ही नहीं हुई”

मैंने जूली के जज़्बे को दिल से सलाम किया, और फिर उससे एक भावपूर्ण विदाई लेकर भारी कदमों से घर की तरफ़ रुख़ किया।

-पुष्पा भाटिया

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