5 घंटे पहले

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आन्या बॉलकनी पर आकर पलट ही रही थी कि मन ने बगावत कर दी। नज़र उधर चली ही गई। मधुमालती की बेल फूलों से लद गई थी। हौले-हौले चलने वाली हवा उन्हें झूला झुला रही थी। थोड़ा कदम उचकाए और झांका। वो वहां नहीं था। इस समय तो उसे वहीं होना चाहिए। कहां गया होगा? मन से आवाज़ आई पर मां की आवाज़ ज्यादा तेज़ थी। “कहां चली गई बिट्टू?” आन्या को बच्चों के सामने इस नाम से पुकारे जाने में संकोच हो आता है। पर मां है कि उसे बिट्टू के अलावा कुछ और बुलाने को राज़ी ही नहीं। “पैतालीस की हो गई हूं” एक बार उसने टोका था तो मां झट से बोली थी “मेरे लिए तो बच्ची ही रहोगी ताउम्र” “कुछ नहीं मां, ज़रा बॉलकनी से सामने पार्क में देख रही थी। आजकल बच्चे नहीं खेलते यहां?” “अरे खेलते कैसे नहीं हैं। सारा दिन ऊधम, सारा दिन शोर। अभी धूप सिर पर चढ़ी है इसीलिए कोई नहीं है। देख जैसे ही सबकी मम्मियां ज़रा झपकी लेने लेटेंगी, शैतान चौकड़ी बाहर प्रकट हो जाएगी। तू रहेगी न अभी?” मां ने उसकी आंखों में झांका जैसे आश्वासन चाहती हों। वहां कोई आश्वासन न देखकर झट से शिकायत का पिटारा खुल गया “पिछले कई सालों से तू..” “मां, तुम मेरा रहना एंजॉए नहीं करतीं। मेरे जाने की शिकायत का पिटारा खोल देती हो पहले ही” अबकी उसने समझाने के बजाए शिकायत के बदले में शिकायत का ही पिटारा खोल दिया। तरकीब काम कर गई। मां का ध्यान उसकी पसंद की डिशेज़ की ओर मुड़ गया।

अनुभव की आदत है। चाहे कितनी गर्मी हो, वो हमेशा बॉलकनी के झूले पर बैठा किताब पढ़ता रहता है दिन के समय। क्यों नहीं दिखा वहां? किससे पूछूं? मां से या भाभी से? पर किसी से भी पूछूंगी, तपाक से प्रश्न के बदले प्रश्न ही होगा – ‘क्यों? क्या करना है?”

सच में उसे क्या करना है! अनुभव बॉलकनी में बैठे या कहीं और! पर क्या एक दोस्त होने के नाते वो उसकी खैर खबर नहीं ले सकती? बिल्कुल ले सकती है। तो फिर क्यों नहीं चली जाती उधर? बस सीढ़ियों से नीचे उतरना है, लॉन क्रॉस करना है, अपने गेट से निकलकर बगल के गेट में घुस जाना है। लॉन क्रॉस करके सीढ़ियां और फिर अनुभव की बॉलकनी। उस दिन से पहले इतनी सी दूरी तय करने में एक मिनट से ज्यादा नहीं लगते थे और उस दिन के बाद!

बीस साल गुज़र गए पर ये दूरी तय नहीं हो पाई। शायद सारी उम्र बीत जाएगी और तय हो भी न पाएगी अब ये दूरी। आन्या ने आंखों से चुपचाप से टपके दो आंसू किसी को नज़र आने से पहले तुरंत पोछ डाले।

शाम को भी अनुभव बॉलकनी में नहीं था। रात में भी नहीं। अब आन्या के लिए खुद को समझाना मुश्किल हो गया। “कुछ ढूंढ़ रही हैं मॉम्स?” आखिर साव्य ने पूछ ही लिया। “अपना बचपन ढूंढ़ रही है” आखिर मां ने ही साव्य की बात का जवाब दिया। उसने मां की आंखों में झांका। उसे लगा मां सब समझती है। ढेर सारा दर्द भरा था उनकी आंखों में। और कुछ रहस्य भी।

करवटें बदलते बहुत देर हो गई और नींद नहीं आई तो बॉलकनी में आ गई। चांद पूरा निकला था। शायद ये पूनम की रात थी। मधुमालती वैसे ही चमक रही थी। भीनी-भीनी खुशबू वैसी ही पसरी थी। सामने पार्क के किनारे छतनार गुलमोहर वैसे ही लहरा रहा था। उसका मन हुआ टाइम मशीन में बैठकर बचपन में चली जाए। बगल की बॉलकनी में बैठे अनुभव से कहे – अए नभ्भू, क्या करेगा इतनी किताबें पढ़कर? चल न झूला झूलते हैं।” और अनुभव उसकी बात सुनते ही किताबें पटककर दौड़ लगाए। और फिर वो और अनुभव झूला झूलते ही रहें…झूलते ही रहें।

वे भी क्या दिन थे। वो हंसी ठहाके, वो खेलकूद, वो अल्हड़ मस्ती। मम्मी का डांटना और फिर प्यार करना, पढ़ना और फिर खेलने निकल जाना। कब आया था अनुभव उसकी ज़िंदगी में? शायद न उसे याद है न अनुभव को। बस इतना याद है कि बिना लड़े कोई दिन पूरा न होता था पर दोनों को एक पल भी एक-दूसरे के बिना चैन न था। वो साथ में स्कूल जाते, साथ में आते, साथ में पढ़ते और साथ में खेलते। पहले मम्मी को भी नहीं पता था कि उसका सबसे अच्छा दोस्त अनुभव है। वो तो उस दिन पता चला। हुआ यों था कि अनुभव के चाचा उसके लिए बहुत कठिन वाले बिल्डिंग ब्लॉक्स लाए थे। अनुभव को उसे तो बुलाना ही था। दोनों मिलकर बैठ गए घर बनाने को। अब उसमें कितने घंटे गुजर गए, पता ही नहीं चला। इधर मम्मी-पापा, दीदी, भैया सब आन्या को ढूंढ़ रहे थे। और तो और अनुभव के घर वाले भी उसे ढूंढ़कर थक गए थे। दोनों पड़ोसी परेशान.. आखिर पुलिस में रिपोर्ट लिखाने निकलने वाले थे कि एक बिल्डिंग ब्लॉक का छोटा सा टुकड़ा बॉलकनी से नीचे गिरा। सब दौड़ते हुए वहां पहुंचे तो देखते क्या हैं कि दोनों बच्चे मधुमालती की बेल के नीचे शांति से बैठे बिल्डिंग बनाने में व्यस्त हैं। अनुभव की मां के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। वो दो बार बच्चों को पुकारते हुए वहां आकर देख चुकीं थीं। पर अपनी धुन में मगन बच्चों ने अपना नाम तक नहीं सुना था। वो जगह ऐसी थी जो कहीं से दिखाई नहीं देती थी जब तक कोई बॉलकनी में ठीक सामने आकर न खड़ा हो।

बॉलकनी का वो कोना खिलंदड़ बचपन और अल्हर कैशोर्य का मूक गवाह था। फिर वही कोना गवाह बना दिल की गहराइयों में छिपे प्यार का। और दुनिया के सबसे अनोखे इज़हार का भी तो! जब कॉलेज में सानिध्य ने उसे प्रपोज़ कर दिया था। और वो खुश होने के बजाए रो पड़ी थी। अनुभव की बॉलकनी में आकर रोए जा रही थी। जब वो रोने का कारण पूछकर थक गया था तो रोते-रोते ही बताया था। वो भी बोल पड़ा था कि इसमें रोने की क्या बात है। तो चीख पड़ी थी – “बुद्धू, तुम नहीं समझोगे” तब अनुभव ने उसे बांहों में समेट लिया था। पहली बार। और दुलराते हुए बोला था – “बुद्धू मैं नहीं तुम हो। अरे भई, मैं तो ये कह रहा हूं कि प्रपोज़ ही किया है न उसने। कोई छेड़खानी या बदतमीज़ी तो नहीं की। फिर रोने की क्या बात है?” “रोने की बात नहीं है? वो हम दोनों का सबसे अच्छा दोस्त है। जब उसे नहीं समझ आया कि हम दोनों एक दूसरे से प्यार करते हैं तो..” “तो? हमें दूसरों को समझाना ही क्यों है?” “समझाना कैसे नहीं है। तुम बिल्कुल भी रोमांटिक नहीं हो। जाओ मैं नहीं करूंगी तुमसे शादी” और वो रूठकर घर आ गई थी। घर आकर खूब मुस्कुराई थी। अरे कोई इज़हार नहीं हुआ। किसी ने कभी प्यार की कोई बात नहीं कही। शादी तक पहुंचने की सोचना तो दूर और वो लड़कर आ गई कि उससे शादी नहीं करेगी। और वो भी इसलिए कि किसी और ने उसे प्रपोज़ कर दिया था।

अनुभव भी कम यूनीक नहीं था। सीधे उसके घर आया और उसके मम्मी-पापा से बोला – “मैं आपकी बेटी से शादी करना चाहता हूं। ये रही मेरी क्वालिफिकेशंस और ये रहे मेरे भविष्य के प्लांस।” मम्मी-पापा दोनों के ही सब कुछ समझते थे पर उन्हें इस औचक इज़हार की बिल्कुल उम्मीद न थी। बड़ी देर बाद मुस्कुरा उठे थे वे। धूमधाम से मंगनी हुई थी। चारों बड़ों की खुशी का ठिकाना न था। फिर तो दो साल जैसे खुशी के हिंडोले पर बीते। शादी तय हुई और तैयारियों में रानी हो गई वो और तभी एक दुर्घटना ने सपनों का शीशमहल तोड़ डाला। अनुभव के मम्मी-पापा, बड़े भैया भाभी एक साथ कार दुर्घटना में…

“नहीं, सिर्फ मेरी कमाई पर भैया-भाभी के दो बच्चे, मेरे दो छोटे भाइयों की परवरिश, पढ़ाई सब कुछ होनी है। मैं इन ज़िम्मेदारियों के साथ आन्या की ज़िंदगी बर्बाद नहीं कर सकता। बहुत मनाया गया पर अनुभव ने शादी के लिए सख्ती से मना कर दिया।

“कभी किसी के लिए ज़िंदगी नहीं बर्बाद करनी चाहिए अपनी। दुनिया इतनी स्वार्थी है…” आन्या के कानों में मम्मी और पड़ोसी रानी आंटी की बातें पड़ीं तो चौंक उठी वो। “किसके बारे में क्या बात हो रही है?” “तुम्हारे अनुभव के बारे में” मम्मी के उदास मुंह से निकल ही गया। “क्या हुआ अनुभव को?” “टी.बी. हुई है उसे” “क्या?” आन्या का दिल धक से रह गया। पर अगले ही पल वो थोड़ा संभली “टी.बी. तो ऐसा कोई लाइलाज रोग नहीं है” “लाइलाज तो तब न हो न जब कोई इलाज कराने वाला हो। जिन भाइयों, भतीजों के लिए उसने अपनी ज़िंदगी स्वाहा कर दी वो सरकारी हस्पताल में अकेला..” आन्या को लगा वो बेहोश हो जाएगी। वो गिरने ही वाली थी कि साव्य ने उसे थाम लिया। दोनों में आंखों ही आंखों में बातें हो गईं। अनुभव को देखकर आन्या की आंखों से दर्द की नदी बह चली – “तुम मेरे नज़दीक न आओ” अनुभव बोला तो फट पड़ी आन्या “हमेशा तुम्हारी नहीं चलेगी। अब तुम मेरे साथ चल रहे हो और मैं इसके आगे कुछ नहीं सुनना चाहती।” “पर मैं किसी पर बोझ..” “बोझ? किस पर?” साव्य आगे आ गया “जिसकी ज़िंदगी का हर पल आपके बिना सूना रहा है उस पर या उन अनाथ बच्चों पर जिन्हें आपके साथ की कमी पूरी करने के लिए इन्होंने अपनी ज़िंदगी में लाकर पाला। आप किसी पर बोझ नहीं होंगे बल्कि हमारा परिवार पूरा होगा आपके आने से। मॉम्स आप पॉप्स के पास बैठो, मैं हस्पताल की फार्मेलिटीज़ पूरी करके आता हूं।”

साव्य चला गया और आन्या अपने अनुभव के हाथो में हाथ लेकर बैठ गई। आंखें एक-दूसरे में ऐसे खो गई थीं जैसे पिछले बीस साल की कमी पूरी कर लेना चाहती हों।

-भावना प्रकाश

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