नई दिल्ली30 मिनट पहलेलेखक: संजय सिन्हा

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पैरों से दिव्यांग, लेखा अधिकारी हूं: 150 दिव्यांग बच्चों की मां कहलाती, पिता बोलते-बेटी को ऐसा बनाऊंगा कि 10 लोगों को पालेगी

मैं सविता सिंह उत्तर प्रदेश के गाजीपुर की रहने वाली हूं। दिव्यांग हूं, एक बेजान पैर हमेशा झूलता रहता है। जब पैदा हुई तब शायद पता नहीं चला लेकिन 6 महीने बाद माता-पिता हो यह अहसास होने लगा कि बिटिया बैठ नहीं पा रही और हिल-डुल भी नहीं पाती है।

आधे शरीर को लकवा मार गया था, कमर से नीचे का हिस्सा भी बेकार हुआ।

सोच ऐसी कि लड़की के पैदा होते ही शादी की होती बात

किसान परिवार से हूं, 4 बहनें और दो भाई। पिता लंबे समय तक सरपंच रहे। जब मेरा जन्म हुआ तो तरह-तरह की बातें होने लगी। एक तो बेटी ऊपर से पैर खराब, परिवार को टेंशन हो न हो, समाज को टेंशन हो जाता है।

ओह! लड़की है क्या होगा। शादी कौन करेगा? हमारे समाज की सोच ही ऐसी है कि बेटी के पैदा होते ही लोग उसकी शादी का सोचने लगते हैं।

पिता ने कहा-बेटी को ऐसा बनाऊंगा कि 10 को पालेगी

मेरे पिता ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं थे पर बहुत ही प्रोग्रेसिव विचार रखते थे। उन्होंने सबको कह दिया कि बिटिया नहीं, बेटा है मेरा। इसे खूब पढ़ाऊंगा।

उसे इतना काबिल बनाऊंगा कि वो अपने पैरों पर खड़ी हो जाए। 10 लोगों को पाल सकेगी। मां ने भी उसी तरह मेरा सपोर्ट भी किया।

सविता गाजीपुर के शास्त्रीनगर में राजेश्वरी दिव्यांग स्कूल चलाती हैं। यहां से पढ़कर हजारों दिव्यांग स्टूडेंट निकले हैं। इनमें से कई नौकरी में हैं, कई अपना रोजगार कर रहे हैं।

सविता गाजीपुर के शास्त्रीनगर में राजेश्वरी दिव्यांग स्कूल चलाती हैं। यहां से पढ़कर हजारों दिव्यांग स्टूडेंट निकले हैं। इनमें से कई नौकरी में हैं, कई अपना रोजगार कर रहे हैं।

मां कहती, रोओ नहीं, लड़ना सीखो

मेरे घर में चरवाहे होते जो मवेशियों की देखभाल करते। वो मुझे साइकिल पर बैठाकर प्राइमरी स्कूल ले जाते। मैं चल-फिर नहीं सकती। क्लास में बच्चे परेशान करते। कई बच्चे पेंसिल, बुक छीन लेते। खाने का टिफिन खींच लेते।

मैं घर आती और मां से कहती कि स्कूल पढ़ने नहीं जाऊंगी।

तब मां कहती कि समाज से लड़ना सीखो, रोओ नहीं। ये छड़ी लो, जो तंग करे उसे लगा दिया करो। बाद में टीचर ही मुझे घर पर पढ़ाने आते।

झूलता पैर साइकिल के चक्के में फंसा, लहूलुहान हो गई पर परीक्षा नहीं छोड़ी

कक्षा आठ में थी। साइकिल से चरवाहा मुझे स्कूल ले जा रहा था। सेंटर दूर था। साइकिल पर बैठी थी, मेरा एक पैर झूल रहा था। साइकिल के चक्के में पैर धंसने लगा। गड्‌ढे में साइकिल चली गई।

मैं बुरी तरह लहूलुहान हो गई। मेरी मरहम पट्‌टी हुई, इंजेक्शन लगा। लोगों ने कहा कि परीक्षा छोड़ दो, मैंने कहा चाहे कुछ भी हो जाए, परीक्षा तो दूंगी ही। परीक्षा दी और अच्छे नंबरों से पास भी हुई।

कैलिपर पहनी तो कपड़े फट जाते, पैर छिल जाता, खून निकल आता

पैर बेजान हैं तो क्या चल नहीं पाऊंगी? पेरेंट्स ने डॉक्टरों से इलाज करवाना शुरू किया।

डॉक्टरों का कहना था कि कैलिपर पहनाकर आपकी बेटी को चलाऊंगा। कमर, जांघ, एड़ी के ऑपरेशन हुए। डेढ़ दो महीने लखनऊ में अस्पताल में भर्ती रही।

पैर सीधा करने की मशक्कत हुई। कैलिपर पहनना शुरू किया। लोहे का भारी-भरकम प्लेट ऐसे लगती जैसी पैरों में किसी ने मोटी जंजीर डाल दी हो।

पहन कर दो कदम चलती तो लड़खड़ा कर गिर जाती। कपड़े कट जाते, स्किन छिल जाती, जख्म बन जाता।

कैलिपर खोलती तो लगता कि ‘ओह! बला टली’, राहत और सुकून मिलता। कैलिपर के लिए जयपुर बार-बार जाना होता। धीरे-धीरे कैलिपर पहनने की आदत हो गई।

सविता 2013 में रूपायन की अचीवर रहीं। एआर रहमान के हाथों उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। सीएम योगी आदित्यनाथ ने भी उन्हें स्टेट अवॉर्ड से सम्मानित किया है।

सविता 2013 में रूपायन की अचीवर रहीं। एआर रहमान के हाथों उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार मिला। सीएम योगी आदित्यनाथ ने भी उन्हें स्टेट अवॉर्ड से सम्मानित किया है।

बेटी दिव्यांग है, शादी कर दीजिए

जब बड़ी हुई तो शादी की बातें होने लगीं। घर वालों ने इस पर दिमाग लगाना शुरू किया। मैंने पिता को दो टूक कह दिया कि आप किसी के दरवाजे पर नहीं जाएंगे।

यह कहने की जरूरत नहीं है कि मेरी बेटी विकलांग है, दया करके कृपा करके उससे शादी कर लीजिए। दो-तीन साल परिवार के लोगों ने हाथ-पैर मारे, फिर थक-हार बैठ गए। मैंने साफ कह दिया कि किसी का दयाभाव नहीं चाहिए।

लेखा अधिकारी बन अपने पैरों पर खड़ी हुई

पढ़ाई करने का मतलब ही यही था कि नौकरी करूंगी। अपनी जिद और समर्पण से मैंने पिता के सपनों को पूरा किया।

मैं 1986 में सरकारी नौकरी में आ गई। आज राजस्व विभाग में लेखा अधिकारी के पद पर हूं। मैंने न केवल अपने जीवन को संवारा बल्कि गांव-ज्वार की बच्चियों के लिए प्रेरणा का स्रोत भी बन गई।

150 दिव्यांग बच्चों की मां, उन्हें काबिल बनाने को खोला स्कूल

शादी नहीं की, लेकिन अपना परिवार मैंने खुद बनाया। 2004-05 में ‘समर्पण’ नाम से संस्था बनाई जिसका उद्देश्य दिव्यांग बच्चों को आत्मनिर्भर बनाना है। संस्था में सभी महिला सदस्य हैं।

इसी के तहत मैंने गाजीपुर के शास्त्रीनगर में ‘राजेश्वरी मूक-बधिर’ स्कूल खोला जहां बच्चों के कौशल विकास की ट्रेनिंग दी जाती है। अभी स्कूल में 150 बच्चे हैं और सभी मुझे ‘मां’ कहते हैं।

इन बच्चों को पढ़ाई के लिए किताब, कॉपी, ड्रेस सबकुछ दिया जाता है। सभी बच्चों को सिलाई-कढ़ाई, कंप्यूटर की पढ़ाई भी कराई जाती है।

भू माफिया से मत उलझो, ये पैर भी छूते हैं और गोली भी मार देते हैं

बच्चों के स्कूल के लिए मुझे जमीन चाहिए थी। नगरपालिका की बोर्ड मीटिंग में जमीन देने के लिए प्रस्ताव भी पास हुआ। लेकिन लखनऊ से मंजूरी मिलना जरूरी था। इसके लिए डेढ़ साल तक दौड़ती रही।

वहां से हरी झंडी मिलने के बाद डीएम ने कहा कि नगरपालिका जमीन दे सकती है। लेकिन जो 4 बिस्वा जमीन मिलनी थी, उस पर भूमाफिया काबिज थे। जमीन की फर्जी रजिस्ट्री भी करा ली गई थी।

भूमाफिया को हटाना बहुत मुश्किल था। घरवाले कहते कि अरे! भूमाफिया से मत उलझो, ये पैर भी छूते हैं और गोली भी मार देते हैं।

मैंने कहा कि जो भी होगा देखा जाएगा, मरना होगा तो मरेंगे। मैंने उन्हें जमीन से भगा दिया, तब जाकर जमीन पर काम रूका।

लेकिन भूमाफिया का इतना दबदबा है कि जमीन हमें नहीं मिली है और न ही मैं काम शुरू करवा पाई।

फैक्टरी की जमीन दान में मिली, हर महीने बच्चों को मिलता डेढ़ क्विंटल चावल

दानवीर हर दौर में होते हैं। मैंने संस्था खोली, स्कूल चलाया लेकिन सबकुछ किराये की बिल्डिंग में चल रहा था। तब मेरी मदद को गाजीपुर के बड़े उद्योगपति सु‌खवीर आंवला आगे आए।

वो दिव्यांग बच्चों से मिलने आते हैं उनका हौसला बढ़ाते हैं। मेरे अनुरोध पर उन्होंने अपनी फैक्टरी की जमीन में से 10 बिस्वा (13,500 स्क्वॉयर फुट) जमीन स्कूल को दे दी। इस जमीन की कीमत 1 करोड़ रुपए है।

सुखवीर आंवला हर महीने बच्चों के लिए डेढ़ क्विंटल चावल देते हैं। अपने खर्चे पर दो गार्ड भी स्कूल को दिए हैं। यही नहीं, बच्चों की ट्रेनिंग के लिए जब भी पैसों की जरूरत होती है वो मदद करते हैं।

राजेश्वरी दिव्यांग स्कूल गाजीपुर का पहला दिव्यांग स्कूल है। सविता सरकारी अधिकारी हैं। वो अपनी सैलरी का बड़ा हिस्सा बच्चों पर खर्च करती हैं।

राजेश्वरी दिव्यांग स्कूल गाजीपुर का पहला दिव्यांग स्कूल है। सविता सरकारी अधिकारी हैं। वो अपनी सैलरी का बड़ा हिस्सा बच्चों पर खर्च करती हैं।

बिस्तर पर बेजान पड़ी लड़की लिपट कर रोने लगी

स्कूल के कई दिव्यांग बच्चे आज अपना रोजगार कर रहे, कुछ नौकरी में भी हैं। वो किसी के मोहताज नहीं हैं। स्कूल से पढ़ा धनंजय पांडे चल नहीं पाता। उसने एमबीए किया है वह नौकरी के लिए कोशिश में लगा है।

गाजीपुर की ही एक लड़की है स्मृति राय। उसने बीएससी किया है। मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी कर रही थी। एक दिन 4 मंजिला बिल्डिंग से गिर गई।

अस्पताल में जीने के लिए संघर्ष करती रही। शरीर का आधा हिस्सा बेजान हो गया। डेढ़ साल बिस्तर पर रही। मेरे बारे में सुना वो मुझसे मिलना चाहती थी।

मैं स्टीफन हॉकिंग की पुस्तक लेकर गई और उसके हाथों में वो पुस्तक रख दी। वह लड़की मुझसे लिपट कर रोने लगी। मैंने उससे कहा कि मुझसे ज्यादा खराब स्थिति में नहीं हो। मैं कैलिपर लगाकर चलती हूं।

उसे हिम्मत दी। उसके पेरेंट्स से कहा कि इसे काम दीजिए। स्मृति को व्हील चेयर दिलवाई। फिर नौकरी के लिए उसका इंटरव्यू कराने ले गई।

मैंने कंपनी को साफ कह दिया कि ये दिव्यांग है, बेचारी है ये सोचकर और दया दिखाकर नौकरी मत दीजिएगा। इसमें हुनर है, प्रतिभा है तो काम दीजिए। स्मृति को नौकरी मिली।

लोग फोन कर कहते हैं मैडम, इसे ले जाइए

समाज के लिए खुद को समर्पित करना ही जीवन का लक्ष्य होना चाहिए। मैं यही प्रयास करती हूं।

एक परिवार में पति-पत्नी दोनों दिव्यांग हैं। बच्चा मेंटल है, बेटी के हाथ-पैर खराब हैं। उन्हें रहने को भी जगह नहीं थी। तब उनका आवास बनवाया और गृहस्थी का पूरा खर्च दिलवाया।

एक बार शहर में 16 साल की मानसिक रूप से विक्षिप्त लड़की का रेप हो गया। उसका भाई भी मानसिक रूप से विक्षिप्त था। मां दूसरों के घरों में काम करती। जब उसकी बेटी प्रेग्नेंट हो गई तब उसे पता चला।

उस लड़की को अस्पताल ले गई, डिलीवरी कराई। अपराधी को भी जेल भिजवाया। कई बार मानसिक रूप से विक्षिप्त महिलाओं को अस्पताल में भर्ती करवाती। कई बार लोग फोन करके कहते हैं कि मैडम इसे ले जाइए।

सविता के स्कूल में दिव्यांग बच्चों को पढ़ाई-लिखाई के साथ कंप्यूटर के कोर्स कराए जाते हैं। साथ ही अगरबत्ती बनाने, फ्लावर पॉट्स, चादर की छपाई करने की ट्रेनिंग दी जाती है।

सविता के स्कूल में दिव्यांग बच्चों को पढ़ाई-लिखाई के साथ कंप्यूटर के कोर्स कराए जाते हैं। साथ ही अगरबत्ती बनाने, फ्लावर पॉट्स, चादर की छपाई करने की ट्रेनिंग दी जाती है।

मैडम! इन महिलाओं को कहां-कहां से लाती हैं, दुर्गंध देती है

अस्पताल के स्टाफ कहते कि मैडम! आप इन्हें कहां कहां से लाती हैं, ये दूर से ही बदबू मारती हैं।

गंदे, फटे कपड़े, महीनों से बिना नहाने, जिनके बाल एक दूसरे से बुरी तरह उलझे बाल, उन्हें देखकर ही लोग भागने लगते हैं।

तब मैं उन्हें बिठाकर नहलाती। अपने हाथों से बालों में शैम्पू करती। अस्पताल कर्मियों के आगे गिड़गिड़ाती हूं, भैया कोने में ही सही, एक बेड तो दे दो।

ऐसा लगता है कि समाज से संवेदनशीलता कहीं गुम हो गई है मुट्‌ठी भर लोग मुझे संवेदनशील मिलते हैं। ज्यादातर लोगों को कमजोर, दिव्यांग और मानसिक रूप से विक्षिप्त लड़कियों में से बदूब आती है, वे उनके कपड़े देखते हैं और उनका चेहरा पढ़ते हैं।

दुख की बात ये है कि उन्हें उनका दर्द नहीं दिखाई देता, आंखों का सूनापन नजर नहीं आता, लेकिन हां जब उन्हें बुरी नजर से देखना होता है उनका शारीरिक शोषण करना होता है तब न बदबू आती है न चेहरा बुरा लगता है न बाल उलझे नजर आते हैं। उन्हें उस समय औरत एक मांस का टुकड़ा लगती है।

समाज की ये मानसिकता सबसे ज्यादा दुखदायी है। मुझे लगता है कि मुझ जैसे दिव्यांगों के मुकाबले वो मन, बुद्धि से दिव्यांग हैं और समाज के ऐसे लोगों को हमसे ज्यादा इलाज की जरूरत है।

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