नई दिल्ली5 घंटे पहलेलेखक: वरुण शैलेष

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हेलो दोस्तों,

मैं स्नेहा कामरा हूं और श्वेताम्बरा के नाम से जानी जाती हूं। मध्यप्रदेश के छोटे से शहर टीकमगढ़ में मेरा जन्म हुआ। पापा कॉलेज में प्रोफेसर थे और मेरे जन्म के समय वह टीकमगढ़ में ही पोस्टेड थे। पांच साल की उम्र तक ही टीकमगढ़ में रही और उस शहर का मेरे जीवन पर कुछ खास असर नहीं रहा।

पापा की पोस्टिंग होने पर मेरे जीवन के अगले 15 साल ग्वालियर में बीते और पूरी स्कूलिंग इसी शहर में हुई। मैं शुरू से बहुत ही महत्वाकांक्षी बच्चा रही, मम्मी को कभी ये नहीं बोलना पड़ा कि तुमको रोज इतने घंटे पढ़ने हैं बल्कि वह उल्टे कहती थीं कि कितना पढ़ रही हो, अब बंद करो, आंखें खराब हो जाएंगी।

मेरे मन में हमेशा रहता कि मुझे स्कूल और कॉलेज में फर्स्ट आना है। खेल में भी मेरी जबरदस्त दिलचस्पी रही, होमवर्क पूरा करने के बाद मैं जमकर खेलती थी।

फर्स्ट आ गई तो ऐसा नहीं होता था कि बहुत खुशी हो गई, मैं फिर अगले क्लास में फर्स्ट आने के लिए खूब मेहनत से जुट जाती। इन सब वजहों से आसपास से मुझे खूब तारीफ मिलती तो मेरे अंदर का इगो बहुत बूस्ट हुआ।

गर्मियों की छुट्टियों में मैं स्पोर्ट्स जॉइन कर लेती थी जैसे कभी कराटे तो कभी बैडमिंटन वगैर वगैर। हर साल नए खेल में हाथ आजमाती। स्कूल में होने वाले खेल में हमेशा आगे रहती। टीम की कमान मेरे हाथ में होती। मेरा बचपन इसी तरह गुजरा।

बाद में मेरी लाइफ में स्प्रिचुअल, आध्यात्मिकता को लेकर बदलाव आए। बचपन में बहुत पढ़ती थी, एक तरह से किताबी कीड़ा थी, मैंने ग्वालियर की पूरी लाइब्रेरी पढ़कर खत्म कर डाली।

अगर किसी विषय में थोड़ा भी नंबर कम आते तो परेशान हो जाती, कई बार प्रिंसिपल, टीचर से लड़ने पहुंच जाती कि मेरे मार्क्स कैसे कम आए। 7वीं-8वीं क्लास से ही दिमाग में था कि मुझे डॉक्टर बनना है। उस समय डॉक्टर बनना ही सबसे बड़ी उपलब्धि मानी जाती थी।

आईएएस से भी ज्यादा डॉक्टर बनने का क्रेज था। सबसे बड़ी बात ये थी कि घरवालों की तरफ से किसी भी प्रकार का प्रेशर नहीं था कि क्या बनना है। मां हमेशा मेरे साथ खड़ी रहती, जो तुमको करना है करो।

महत्वाकांक्षा के जींस बच्चों में आते हैं

मेरे अंदर ये महत्त्वाकांक्षा कैसे आई, इसे लेकर मैंने बाद में सोचा कि ये जींस मेरे अंदर कैसे आए? फिर मुझे लगा कि मेरी मां जो बनना चाहती थीं वह वो बन नहीं पाईं, अब सब सपने मेरे अंदर वह देख रही थीं।

दो बातें होती हैं, पहला कि पेरेंट जबरन पढ़ाते हैं और चाहते हैं कि बच्चा उनका सपना पूरा करे, दूसरा, कई बार माता-पिता को कुछ करना नहीं पड़ता और बच्चा खुद ब खुद वह सब कुछ करता और हासिल करता चला जाता है जो माता-पिता चाहते हैं।

मेरी इमेज नंबर वन की बन गई। एक तरह से देखिए तो मैं अपनी ही सफलता की मकड़ी की जाल में फंस गई थी।

घर में मुझे सारी सुविधाएं मिली हुई थी। घर में लड़के लड़की का कोई भेदभाव नहीं था। मैं टॉम बॉय थी। अगर भाई को किसी ने कुछ कह बोल दिया तो उसे कुट पीट कर आ जाती।

रात दिन पढ़कर मैंने पीएमटी क्लियर कर दिया था। लेकिन उससे पहले कई लोगों ने कहा कि पीएमटी छोड़ो, बीएससी कर लो। उसी बीच मुझे एक सीनियर मिलीं, मैंने उनको इस बारे में बताया कि कहा जा रहा है कि तुम्हारा हो नहीं पाएगा।

सीनियर बोलीं कि तुमको सिर्फ एक सीट चाहिए तो ये मानकर चलो कि तुम्हारी एक सीट पक्की है,उसे तुम्हें हासिल करना है। इस एटीट्यूट के साथ एग्जाम में जाओ कि अगर एक सीट भी है तो वह सीट तुम्हारी है।’

डॉक्टरी की तैयारी में 16-16 घंटे पढ़ती

पीएमटी की तैयारी में 16-16 घंटे पढ़ती। अगर पढ़ते हुए थक जाती तो पांच मिनट का ब्रेक लेती और जगजीत सिंह की गजल सुनती फिर पढ़ने बैठ जाती।

भूख लगती और फिर आधे घंटे का ब्रेक लेती, अलार्म सेट करती और फिर पढ़ने बैठ जाती। साथ के लोग पढ़ रहे थे, सबके बॉयफ्रेंड और गर्लफ्रेंड थे लेकिन मैं पढ़ने में जुटी थी।

मुझे सिर्फ अपनी एक सीट दिख रही थी। मैंने भी सोचा था कि अगर पीएमटी नहीं हुआ तो सुसाइड कर लूंगी, फेलियर का कभी सोचा ही नहीं। लेकिन मैंने फेल होने के लिए कोई ऑप्शन नहीं छोड़ा था।

करो या मरो…डॉक्टर बनना है

ये सब बातें माता-पिता से बच्चे में आ जाती है। मुझे डॉक्टर बनना था, मैं सोच लिया था ‘करो या मरो’ डॉक्टर बनना है। मैंने सोच लिया था कि पीएमटी क्लियर हो जाए तो जिंदगी में आराम ही आराम है।

मैंने बहुत ही मेहनत की। अपने सीनियर का मंत्र आत्मसात किया और मेहनत करके पीएमटी क्लियर कर लिया।

एमबीबीएस में मेरा सिलेक्शन हो गया। मुंबई के जिस कॉलेज में एडमिशन हुआ वहां क्लास देखने से पहले मैंने स्पोर्ट्स ग्राउंड देखा। ऑडोटोरियम देखने पहुंच गई।

वहीं क्लास में देखा तो सब डॉक्टरी में एडमिशन के बाद भी खूब पढ़ रहे हैं। अपनी किताब लेने के लिए बुक शॉप पहुंची तो वहां भी ढेरी सारी किताबें पढ़ने के लिए मिलीं।

मैंने ये सोचा ही नहीं था कि सिलेक्शन होने के बाद भी इतना पढ़ना है। पता चला सेकेंड ईयर में और किताबें बढ़ जाएंगी, थर्ड ईयर और फोर्थ ईयर में तो उससे भी ज्यादा किताबें पढ़नी पड़ेंगी।

फिर एमडी में और भी ज्यादा पढ़ना पड़ेगा, मैं यह देखकर डिप्रेशन में चली गई कि भाई…मैंने तो ये सोचा ही नहीं था कि इतना पढ़ना है? पढ़ने का सिलसिला थमता नहीं दिख रहा था।

इंदौर में भी जब सुकून नहीं मिला और सोच बदल गई

पढ़ाई का इतना बोझ देखकर मैंने सोचा कि मुझे तो जीना था, और यहीं से मेरी लाइफ में नेगेटिव साइकिल शुरू हुई। इसका असर पढ़ाई पर दिखने लगा। क्लास में जो कुछ भी पढ़ती वो याद नहीं रहता। एकाग्रता घट गई। ध्यान इधर-उधर भटकने लगा।

पढ़ाई में मन नहीं लगता। हालत यह हो गई कि क्लास में आगे रहने वाली मैं डॉक्टरी की क्लास में कुछ बोल ही नहीं पाती। मेडिकल के क्लास टेस्ट में टॉप 10 से भी बाहर हो गई। स्थिति यह हुई कि मैं मेडिकल कॉलेज छोड़कर घर आ गई।

इंदौर लौट आई। लेकिन इंदौर में भी पढ़ाकू बच्चे थे और मैं यहां भी पीछे होती चली गई। हालांकि पढ़ती थी लेकिन कुछ याद नहीं रहता। मैं लोगों की उम्मीदों पर खरा नहीं उतर पा रही थी।

लगा जैसे मैं आसमान से आकर जमीन पर आकर गिर गई हूं। मेरा हाथ काम नहीं कर रहा और एग्जाम में लिख नहीं पा रही। मुश्किल से एमबीबीएस पास कर पाई। लेकिन सवाल था कि लाइफ में अब क्या करना है?

सोचने लगी कि हाथ खराब हो जाएंगे तो लाइफ में क्या रह जाएगा। माता-पिता के लिए तो कुछ नहीं कर पाऊंगी। तब समझ में आया कि जीवन को जीना सबसे जरूरी है। जान है तो जहान है। जिंदगी जीओगे तभी तो कुछ करोगे।

…जब जीवन की दिशा बदल गई

मेरे सामने जीवन के सवाल खड़े होने लगे कि हम इतनी मेहनत क्यों कर रहे हैं? जहां जीवन में सुकून नहीं है। हम एक दौड़ में शामिल हो गए हैं जिसकी कोई मंजिल नहीं है।

अब मैं देखती हूं कि कई पेरेंट कहते हैं कि उनके बच्चे ने एग्जाम में 99% हासिल किए। पेरेंट को पता नहीं होता है कि बच्चा बहुत प्रेशर में है, उसकी लाइफ में कुछ नहीं है। वह कभी भी टूट जाता है।

इन सब हालात से गुजरते हुए मेरे जीवन की दिशा बदल गई और मेरा रुझान आध्यात्मिकता की तरफ बढ़ा। मेरे आध्यात्मिक गुरु ने बताया कि मेरे अंदर आध्यात्मिकता के बीज शुरू से थे, बस मुझे इसकी जानकारी नहीं थी।

मेरे पहले आध्यात्मिक गुरु ओशो

मेरे जीवन में सबसे पहले आध्यात्मिक गुरु ओशो की एंट्री हुई। ओशो को पढ़ा तो पता चला कि हम जीवन कब जीएंगे। क्योंकि हर वक्त तो हम मर रहे हैं।

अब मैं जो सोच रही थी ओशो वही लिख चुके थे, मैं उनसे कनेक्ट हो चुकी थी। मेरी आध्यात्मिक यात्रा चलती रही और अपने हर सवाल का जवाब खोजने के लिए देशभर में साधु-संतों के बीच घूमती रही।

नागा साधुओं के बीच भी रही और अपने सवालों के जवाब तलाशे। आध्यात्मिक यात्रा में मैंने अपना नाम स्नेहा कामरा से बदल कर श्वेताम्बरा कर लिया। अब मैं श्वेताम्बरा के नाम से ही जानी जाती हूं। मैं डर्मेटोलॉजिस्ट के साथ-साथ मैं स्प्रिचुअल स्पीकर, लाइफ कोच और रिलेशनशिप कोच भी हूं।

राग कथा से संगीत की यात्रा शुरू हुई

इसी यात्रा के दौरान मेरा रुझान संगीत की तरफ हुआ। असल में, हिमालय में भटकते हुए वासुदेव मूर्ति जी कि किताब ‘व्हाट्स राग्स टोल्ड मी’ मिली और मुझे यह इतनी अच्छी लगी कि यह मेरे दिमाग में चढ़ गई।

‘व्हाट्स राग्स टोल्ड मी’ को पढ़कर मेरे जीवन को नई दिशा मिली।

‘व्हाट्स राग्स टोल्ड मी’ को पढ़कर मेरे जीवन को नई दिशा मिली।

यह किताब मुझे इतनी अच्छी लगी कि मैंने इसका हिंदी में ‘राग कथा’ के रूप में अनुवाद किया। इसमें रागों का भाव क्या है, बताया गया है।

रागों की ऊर्जा के बारे में बताया गया है। राग किस तरह हमारी चेतना पर असर डालते हैं, यह राग ही बता रहे हैं। किताब में राग कहानी के रूप में प्रकट होते हैं। हर राग अपनी कहानी बताते हैं।

कई बार इस किताब को पढ़ते हुए रोने लगती थी। फिर मैंने वासुदेव जी से संपर्क किया औऱ किताब को अनुवाद करने की उनसे अनुमति ली। जीवन में मैंने जो भी किया उसका मुझे कोई अफसोस नहीं है।

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