नई दिल्ली2 घंटे पहलेलेखक: ऐश्वर्या शर्मा

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मां को भगवान का रूप कहा जाता है। वह अपने बच्चे की सिर्फ मां नहीं, बल्कि छाया होती है जो औलाद के साथ कदम से कदम मिलाकर चलती है। मां कभी बच्चे की सहेली तो कभी मार्गदर्शक बनती है। बच्चे का भविष्य संवारने के लिए खुद की इच्छाएं भी त्याग देती है।

दिल्ली की रहने वाली सुचेता महाजन उन्हीं मांओं में से एक हैं जिन्होंने अपने बेटे आरव के लिए अपना जीवन न्योछावर कर दिया। उनका बेटा डाउन सिंड्रोम से जूझ रहा है। प्रेग्नेंसी में डीएनए में हुई कुछ खास गड़बड़ियों की वजह से भ्रूण में डाउन सिंड्रोम की समस्या पैदा होती जो शिशु के बॉडी और उसके ब्रेन को नुकसान पहुंचाती है। जिसकी वजह से शिशु में उम्रभर के लिए मेंटल या फिजिकल डिसऑर्डर आ जाते हैं।

‘ये मैं हूं’ में आज जानिए सुचेता महाजन के तपस्या और संघर्ष की कहानी…

बेटा तो नॉर्मल पैदा हुआ…

एक समय था, जब मैं अपने हसबैंड के साथ उनके बिजनेस में उनकी हेल्प किया करती। 2008 में मैंने बेटे को जन्म दिया। मेरी बेटी बेटे से 10 साल बड़ी है। बेटा आरव जब पैदा हुआ तो हॉस्पिटल ने उसे नॉर्मल और हेल्दी बच्चा बताया।

आरव के पैदा होने के 2 महीने बाद मेरी बहन मुझसे मिलने आईं जो तब एमबीबीएस कर रही थी। उसने आरव को दूध पीते हुए देखा तो उसे शक हुआ। उसने मुझे केरोटाइपिंग नाम के एक टेस्ट कराने की सलाह दी।

मैंने उसे दिलासा देने के लिए दिल्ली के सर गंगाराम हॉस्पिटल में आरव का टेस्ट कराया तो मुझे डॉक्टर की टीम का कॉल आया और तुरंत मिलने को कहा। मैं जब वहां मिलने पहुंची तो डॉक्टर ने कहा कि आपका बच्चा ‘टी 21’ है यानी उसे डाउन सिंड्रोम है। इससे पहले मैंने डिसेबल बच्चों के बारे में ज्यादा सुना और पढ़ा नहीं था, लेकिन उस दिन से मेरी दुनिया बदल गई।

सुचेता महाजन अपने परिवार के साथ।

सुचेता महाजन अपने परिवार के साथ।

बहन बनी हिम्मत

अपनी बहन को आरव की मेडिकल रिपोर्ट बताते हुए मैं बहुत रोई। तब बहन ने मुझे हिम्मत दी और कहा कि जितना रोना है, अभी रो लो। रोने से कुछ नहीं होने वाला। आरव पर मेहनत करो, उसकी हालत जरूर सुधरेगी। एक न्यूरोलॉजिस्ट डॉक्टर ने भी यही बात कही कि आरव पर मेहनत करनी होगी तभी वह इम्प्रूव कर पाएगा।

मेरी पहली सबसे बड़ी जिम्मेदारी थी कि बेटे की गर्दन को सीधा रखने में कामयाब रहूं। क्योंकि बच्चा अपनी गर्दन को संभाल नहीं पाता।

साथ ही मैंने उसके लिए सर गंगाराम हॉस्पिटल से थेरेपी सिखनी शुरू की। यह 15-15 दिन का प्लान होता। जो मैं वहां सीखती, बाद में आरव को सिखाती। उसका चलना, बोलना, साइक्लिंग करना सब एक टास्क था। वह आइसस्केटिंग करता है लेकिन उसके एक स्टेप सीखने के लिए मुझे 6 से 7 महीने का इंतजार करना पड़ा। आरव के अंदर जज्बा बहुत है। वह हमेशा कहता है कि मुझे करना है और मेरे अंदर है कि मेरा बेटा सब कुछ कर सकता है। वह बाकी बच्चों से अलग नहीं है। उसको कुदरत की तरफ से स्पेशल काबिलियत मिली है।

बचपन में बेटे के दिल में था छेद

बचपन में आरव की तबीयत बहुत खराब रहती थी क्योंकि जन्म से उसके दिल में 1 रुपए के सिक्के के बराबर छेद था। आरव 2-2 महीने हॉस्पिटल में आईसीयू में एडमिट रहता और मैं सारा वक्त उसके साथ वहां बिताती।

डाउन सिंड्रोम से जूझ रहे ज्यादातर बच्चों की बीमारियों से लड़ने की क्षमता कम होती है। लंबे समय तक दिल्ली के एस्कॉर्ट हॉस्पिटल में इलाज चलने के बाद उसके दिल का छेद अपने आप ठीक हो गया। अब उसका इम्यून सिस्टम बेहतर है।

उन दिनों में मैं बहुत डिप्रेशन में रहती। डॉक्टर कभी कहते आपका बच्चा नहीं बच पाएगा और कभी कहते कि बच्चा अब बेहतर है। सोचिए एक मां के दिल पर क्या बीतती होगी जब उसे ये सब बातें सुनने को मिलती हों।

हसबैंड का बिजनेस हुआ ठप

आरव पर मेरा और मेरे हसबैंड का हमेशा फोकस रहता। सारा दिन हॉस्पिटल में बीतता जिससे पैसे भी पानी की तरह बह रहे थे। हम दोनों ही बिजनेस पर ध्यान नहीं दे पा रहे थे जिससे हमारा बिजनेस ठप होता गया।

बिना पैसे के कोई डॉक्टर हाथ तक नहीं लगाता है। हमने खुद नमक से रोटी खाई लेकिन दोनों बच्चों की ख्वाहिश हमेशा पूरी की।

उस बुरे वक्त में हर किसी ने हमारा साथ छोड़ दिया था, लेकिन मेरे देवर ने हसबैंड के स्टार्टअप में मदद की। तब हम दोनों ने तय किया कि घर और बच्चों को मैं देखूंगी और हसबैंड बिजनेस पर ध्यान देंगे। इस सिलसिले में उन्होंने विदेश में रहना शुरू कर दिया। वह पैसे भेजते और मैं यहां आरव का इलाज कराती।

डॉक्टर की सलाह पर आया गुस्सा

हमारे पास पैसे खत्म होने लगे थे। हम कई बार डॉक्टरों से डिस्काउंट मांगते तो कुछ डॉक्टर हमें ऐसी सलाह दे बैठते थे जो कभी कोई मां ऐसी सलाह सुनना पसंद नहीं करेगी।

मुझे एक डॉक्टर ने यह तक कह दिया था कि आप अपने बच्चे के साथ सर्वाइव नहीं कर सकतीं इसलिए आप इसे किसी अनाथ आश्रम में छोड़ दीजिए। जब तक इसकी जिंदगी चलती रहेगी, पैसे देते रहिएगा। मैं यह बात आज तक भूल नहीं सकी हूं।

उस दिन मैंने डॉक्टर को कह दिया था कि भले ही आज आपका बच्चा ठीक है लेकिन भगवान ना करे, अगर आपके बच्चे को कुछ हो जाएगा तो क्या आप भी उसे अनाथालय छोड़ आएंगे। ऐसी सलाह किसी भी मां-बाप को आगे कभी मत दीजिए।

बेटी ने बताई दिल की बात तो उस पर भी देने लगी ध्यान

जब बेटे की थेरेपी चल रही थी, तब मेरी बेटी थर्ड क्लास में थी। मुझे लगता था कि बेटी अब बड़ी हो गई। वह अपना ख्याल खुद रख सकती है। मैं सुबह खाना बनाकर आरव की थेरेपी लेने चली जाती थी और घर पहुंचते हुए शाम के 6-7 बज जाते थे। तब तक बेटी घर पर अकेली रहती थी क्योंकि घर में कोई हाउस हेल्प नहीं थी।

डेढ़ साल बाद मुझे एहसास हुआ कि बेटी को भी मेरी जरूरत है। उसे लगने लगा था कि मम्मी का सारा ध्यान सिर्फ आरव की तरफ है, मेरी तरफ नहीं। जैसे ही मुझे इस बात का एहसास हुआ, मैंने उसके साथ बैठकर उसके दिल की बात जानने की कोशिश की। उस दिन के बाद से बेटी से मेरे रिश्ते सुधरने लगे और आज हम एक-दूसरों को सपोर्ट करते हैं।

वह आरव की दूसरी मां है। आज बेटी भले ही कनाडा में पढ़ रही है लेकिन मेरे साथ उसने भी आरव का ध्यान रखा। उसने अपने फ्रेंड्स के गेट-टुगेदर में या पार्टी में, हर जगह आरव को दोस्तों और परिचितों से मिलवाया ताकि वह सबसे घुले-मिले। उसने आरव और हमारी जिंदगी के जद्दोजहद को देखकर ही मनोविज्ञान की पढ़ाई को चुना। उसने ठान लिया है कि वह डाउन सिंड्रोम के बच्चों की हेल्प करेगी ताकि जो दिक्कत हमने झेली, वह बाकी पेरेंट्स को ना झेलनी पड़े। जब तक वह भारत में थी, वह कई मेडिकल कैंप और डाउन सिंड्रोम एसोसिएशन के प्रोग्राम में शामिल हो चुकी है।

स्केटिंग में आरव माहिर

मेरा एक सपना है कि आरव इंटरनेशनल गेम्स में गोल्ड मेडल जीते।

वह पिछले 3 महीने से स्केटिंग कर रहा है। 2023 में हुए आइस स्केटिंग के नेशनल गेम्स में उसे थर्ड पोजिशन मिली।

पिछले हफ्ते गुरुग्राम में हुए डाउन सिंड्रोम के सेकंड नेशनल गेम्स में उसने रोलर स्केटिंग के 300 और 500 मीटर में गोल्ड मेडल जीता।

जब उसने खेलना शुरू किया तो वह बहुत बड़ा चैलेंज था क्योंकि डाउन सिंड्रोम होने की वजह से उसके मसल्स बहुत कमजोर हैं। लेकिन फिर भी वह खूब मेहनत करता है। सुबह रनिंग करता है फिर स्कूल जाता है। वापस आने के बाद वोकेशनल ट्रेनिंग, स्पीच ट्रेनिंग होती है। मैं उसके साथ हर जगह जाती हूं।

आरव खुद देता है एग्जाम

मैंने आरव को इतना कॉन्फिडेंस दिया है वह अपने एग्जाम खुद देता है। कई लोग कहते थे कि बेटे की पढ़ाई पर खर्च क्यों कर रही हो, ऐसे बच्चे पढ़ते कहां हैं? आज मुझे खुशी है कि बेटा 10वीं में पहुंच गया है। उसने तीसरी, पांचवीं और आठवीं के एग्जाम खुद दिए जबकि ऐसे बच्चों को ‘स्क्राब’ यानी एग्जाम लिखने वाले व्यक्ति की जरूरत पड़ती है।

मेरा बेटा खुद स्क्राब बना और तीसरी के बच्चे के एग्जाम दिए। आरव आईकेयर लर्निंग स्कूल में है। मैं पिछले 10 साल से इस इंस्टिट्यूट से जुड़ी हुई हूं। यहां की टीम ने मेरी बहुत मदद की। मुझे यहां से आरव के लिए सोशल डेवलपमेंट के साथ ही एकेडमिक डेवलपमेंट के बारे में भी गाइडेंस मिली।

मैंने आरव को आज तक नहीं बताया कि उसे डाउन सिंड्रोम है और ना ही कभी बताऊंगी क्योंकि मैं जानती हूं कि वह किसी भी बच्चे से कम नहीं है। मां का दिल कहता है कि भगवान ने उसके लिए कुछ खास सोच रखा है।

हां डाउन सिंड्रोम एक समस्या लेकिन सब्र के साथ मेहनत करके बच्चे को बेहतर जिंदगी दी जा सकती है।

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