5 घंटे पहले

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बहुत तेज गति से घने अंधेरे को चीरती एक ट्रेन निकली, शायद सुपर फास्ट थी। बंद शीशों से किसी-किसी डिब्बे से ही क्षीण-सी रोशनी बाहर निकल रही थी और ट्रेन के गुजरते ही अंधेरा पटरियों के ऊपर छा गया। कुछ देर सन्नाटा पसरा रहा। उसने सिगरेट जलाई। सिगरेट का कश लेने से निकलती उसकी नन्ही सी आग उस अंधेरे में ऐसे चमकी मानो इस घुप अंधेरे में अपने होने के एहसास को महसूस कर पा रही हो। वह धुएं के छल्लों को रात की वीरानी में गुम होते देखता रहा।

तभी एक और ट्रेन की आवाज आई। मालगाड़ी निकल रही थी। इस समय मालगाड़ियां काफी निकलती हैं। रेलवे कॉलोनी में रहने की वजह से पटरियों और ट्रेन से एक अनकहा-सा रिश्ता बन जाता है। ट्रेन का शोर एक समय पर कान को फाड़ता महसूस नहीं होता बल्कि धड़-धड़ दौड़ती ट्रेन की आवाज की ऐसी आदत हो जाती है कि उसे सुने बिना बेचैनी आसपास चक्कर काटने लगती है। मानो दौड़ती ट्रेन एहसास कराती है कि धड़कनें चल रही हैं।

नींद आ ही नहीं रही उसे। कई बार उसे लगता है कि जिंदगी रेल की पटरी की तरह ही होती है। लोग आते हैं, जाते हैं, ठहरते भी हैं तो कुछ सेकेंड या मिनट के लिए प्लेटफार्म पर मुसाफिरों की तरह ठहरते हैं। ट्रेन आते ही फिर सब निकल जाते हैं अगले पड़ाव की ओर। आखिर हर किसी को मंजिल तक पहुंचने की जल्दी होती है। उसे कोई जल्दी नहीं है कहीं भी पहुंचने की और मंजिल का तो उसे पता तक नहीं।

कभी सब कुछ तय था। लक्ष्य था उसके पास और उसे पाने का जज्बा भी। वह बहुत मजबूती से एक-एक कदम रखता हुआ पूरे विश्वास के साथ आगे बढ़ रहा था। फिर सब ठहर गया…पांव शिथिल हो गए और लक्ष्य हाथ से छूट गया। अचानक कुछ भी नहीं हुआ यह सब…बस उसे ही पता चलने में देर हुई या शायद वह अनजान बना रहना चाहता हो। कई बार उसे लगता है जैसे नियति की सोची-समझी साजिश थी यह…उसे शिकस्त देने के लिए…

सीटी की आवाज गूंजी। धड़धड़ाती ट्रेन की गति कुछ पल के लिए धीमी हुई। शायद आगे सिग्नल नहीं मिला होगा, फिर वह भी अपने गंतव्य की ओर बढ़ गई। सच में सब अपनी मंजिल तक पहुंचना चाहते हैं…

वह कुर्सी पर जाकर बैठ गया। लैंप का प्रकाश दीवार और फर्श पर अलग-अलग आकृतियां बना रहा था। उसे लगा जैसे दीवार पर उन आकृतियों के बीच एक चेहरा उभर आया है—उस आकृति का चेहरा लंबा था, घुंघराले बालों की लट यहां-वहां झूल रही थी। भौंहों के एकदम बीच में एक चंद्राकर जैसा निशान था, बचपन में लगी चोट की यादगार के रूप में। कभी मुस्कान आती उस चेहरे पर तो कभी लगता जैसे उसकी छोटी-छोटी आंखों में नमी तैर रही है। उसका मन हुआ कि वह उन आंखों को अपनी हथेलियां से सहला दे। वह कुर्सी से उठने ही वाला था कि तभी उस आकृति के चेहरे पर एक क्रूरता फैल गई। उसके होंठों पर एक व्यंग्यात्मक मुस्कान आ गई। जैसे उसका मजाक उड़ा रही हो कि ‘शिकस्त के आगे घुटने टेक दिए…जानती थी तुम कुछ नहीं कर पाओगे जीवन में। बहुत कमजोर निकले तुम तो…’

उसने लैंप का मुंह दूसरी ओर मोड़ दिया। आप जिसे प्यार करते हो, वह आप पर व्यंग्य कसे तो पूरा अस्तित्व ही हिल जाता है। कितनी आसानी से कह दिया था उसने कि ‘तुम ही रह गए थे प्रेम करने के लिए। दो-चार बार हंसकर बात क्या कर ली, कुछ मुलाकातें क्या कर लीं, कभी तुम्हारी बेचारगी पर तरस खाकर उपहार क्या थमा दिए कि तुम्हें लगा कि प्यार करती हूं तुमसे। निरे मूर्ख हो! लड़कियां इस तरह न जाने कितने लड़कों से दोस्ती करती हैं। उनके करीब आती हैं, लेकिन वह इश्क नहीं होता।

‘प्यार और उम्र भर का रिश्ता तो ऐसे किसी से बनाया जाता है जो हमारे सपनों को हकीकत में बदल सके। सपने बेशक हर लड़की के अलग होते हैं। किसी को पैसा चाहिए होता है तो किसी को स्टेटस। किसी को ऊंचा पद और कुछ भावुक लड़कियों को प्रेम भी चाहिए होता है और मैं भावुक नहीं हूं। माना कि तुम अच्छे लगे थे पर समय बिताने और कुछ शाम यहां-वहां घूमने के लिए ठीक थे। गलती तुम्हारी है कि तुम मुझसे इश्क कर बैठे। सोचा नहीं था कि लड़के भी इतने भावुक होते हैं, खासकर तुम रमन बहुत ज्यादा इमोशनल हो। ट्रेन की पटरियां कैसे जल्दी-जल्दी ट्रैक बदलती हैं, यह तो बखूबी जानते होगे? आखिर एक स्टेशन मास्टर के बेटे हो? माना कि एमबीए कर रहे हो और ऊंचाई छूने का लक्ष्य है, पर क्या रेलगाड़ियों के दिन-रात उठने वाले शोर से अपने को अलग कर पाओगे? ख्वाब वही देखना चाहिए जिन्हें बुनने की औकात हो।’

उसका मजाक उड़ाकर, उसे सच्चाई का आईना दिखा कर चली गई थी मानवी। सच में बेवकूफ ही है वह! वरना क्या मानवी के जाने पर पढ़ाई छोड़ता, अपने लक्ष्य से भटकता?

पापा ने कितना समझाया, मां ने आंसू बहाए, बहन ने कहा मत बिखरो भइया, ऐसी लड़की के कारण जिसे तुम्हारे प्यार की कद्र नहीं थी। रमन जो टूटा तो अभी तक संभल नहीं पाया है। यही सोचता रहता है कि आखिर क्या कमी है उसमें? माना कि वह स्टेशन मास्टर का बेटा है, लेकिन दिल तो उसके पास भी है, जज्बात तो उसके भी हैं और मानवी को खुश रखता, ऐसा विश्ववास भी था…कम से कम उसे मौका तो देती खुद को साबित करने का। बेशक वह उससे चांद-तारे तोड़कर लाने का वादा नहीं कर पाया, पर प्यार से उसके जीवन में रंग अवश्य भर देता।

ठुकराए जाने का दर्द इतना बड़ा होता है कि वह इंसान की सोच के दरवाजे पर सांकल लगा देता है, उसके आत्मविश्वास को हिला देता है।

“वह चली गई, क्योंकि वह तुम्हारे प्यार के काबिल नहीं थी। उसके जाने का अफसोस मत करो।” हर किसी ने कहा, लेकिन रमन को यही लगता है कि वही उसके प्यार के काबिल नहीं था। काबिल बनने के सारे प्रयास तक छोड़ दिए हैं उसने। घंटों रोया था यार्ड में खड़ी रेल के खाली डिब्बे में बैठकर।

शिकस्त है मानवी का जाना उसके लिए, नहीं कह पाया वह किसी से… उसे नाकाबिल मानने से बड़ी शिकस्त और क्या दे सकती थी वह? प्यार नहीं करती, वही कह देती, लेकिन उसने उपहास किया कि रमन तुम जैसे इंसान से कोई प्यार कर भी कैसे सकता है।

रमन बिस्तर पर जाकर लेट गया। नींद की गोली खाने के बावजूद मानवी का ख्याल उसे जगाए रखता है, इन दिनों। वैसे भी सारा दिन अपने कमरे में रहता है और ट्रेन को आते-जाते देखता रहता है। उनके शोर में खुद को खोने की कोशिश करता है। शायद उस शोर में मानवी के वे कहकहे दब जाएं जो जाते-जाते उसे देख उठे थे।

“फिर मिलने की कोशिश मत करना। फोन भी नहीं उठाऊंगी, इसलिए फोन करने का भी कोई फायदा नहीं होगा। कभी आते-जाते तुम दिखो भी नहीं, मैं इस बात का ध्यान रखूंगी। कुछ दिनों में यह शहर छोड़कर जा ही रही हूं। उम्मीद है तब तक अपने प्रेम की दुहाई देते हुए मेरे पीछे-पीछे नहीं आओगे। वैसे भी मैं ट्रैक बदलना बखूबी जानती हूं। कभी सामने नजर आ भी गए तो मैं ट्रैक बदल लूंगी या दूसरे प्लेटफॉर्म पर चली जाऊंगी। स्टेशन मास्टर का बेटा इन बातों का मतलब तो जानता ही होगा।” उस समय भी उसके चेहरे पर वैसी ही क्रूरता थी जैसी दीवार पर उभरी आकृति में नजर आ रही थी।

अक्सर सोचता है रमन कि वह दुखी इस बात से है कि मानवी उसे छोड़कर चली गई, उसके प्यार की कद्र नहीं की या इस बात से कि उसके प्यार का मजाक उड़ा उसने शिकस्त दी है उसे! प्यार न मिलने की तकलीफ ज्यादा है या शिकस्त मिलने की?

-सुमन बाजपेयी

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