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नई दिल्ली4 घंटे पहलेलेखक: संजय सिन्हा

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केरल के पलक्कड़ में 36 साल की शमीरा बीवी और उसके नवजात की डिलीवरी के दौरान जान चली गई। पति ऑनलाइन वीडियो देखकर घर पर ही शमीरा की डिलीवरी करा रहा था।

पुलिस जांच में पता चला कि एक्यूपंचर की मदद से डिलीवरी की कोशिश की गई, इस दौरान शमीरा को ब्लीडिंग होने लगी। अधिक खून बहने से उनकी मृत्यु हो गई।

शमीरा को पहले से 3 बच्चे थे और सभी सिजेरियन पैदा हुए थे। इस बार उनकी चौथी डिलीवरी थी और पति नयास जबरदस्ती घर पर ही शमीरा की डिलीवरी कराने पर अड़ा रहा।

पूरी प्रेग्नेंसी के दौरान भी पत्नी को उसने जांच के लिए अस्पताल नहीं जाने दिया।

पुलिस ने शमीरा के पति के खिलाफ हत्या का मामला दर्ज किया है। साथ ही इंडियन पीनल कोड की धारा 315 भी लगाई गई है जिसके तहत नवजात के जीवित जन्म लेने से रोकने या जन्म के बाद उसे मारने के प्रयास को अपराध माना जाता है।

ऑनलाइन वीडियो देख डिलीवरी कराने की यह घटना नई नहीं है।

तमिलनाडु के रानीपेट और तिरुपुर में यूट्यूब देखकर डिलीवरी कराने में पत्नी की मृत्यु हो गई थी।

तिरुपुर में पुलिस की जांच में पता चला कि कंसीव करने के बाद महिला और उसका पति फेसबुक और यूट्यूब पर घर पर नेचुरल डिलीवरी कराने से जुड़े वीडियो देखते थे।

खाने-पीने की नई रेसिपी, हेयरस्टाइल, आर्ट एंड क्राफ्ट, ऑनलाइन स्टडी, डांस और वो सबकुछ जो जानना-सीखना चाहते हैं ऑनलाइन या सोशल मीडिया से लोग सीख रहे।

घर में बिजली की कोई खराबी हो या नल में पानी नहीं आ रहा तो ऑनलाइन सलाह है न! लोग केवल लाइफस्टाइल से जुड़ी चीजों में ही नहीं, बल्कि बीमार पड़ने पर गूगल या सोशल मीडिया देखकर दवा ले रहे।

कई ऐसी घटनाएं हुई हैं जिसमें लोग यूट्यूब देखकर छोटी-मोटी सर्जरी भी कर लेते हैं।

लहसुन खाने से कैंसर ठीक होता है या विटामिन C रेगुलर लेने से रेडियोथेरेपी की जरूरत नहीं पड़ती ऐसी कई वीडियो हैं जिससे लोग गलत इलाज के चक्कर में पड़ जाते हैं।

कोविड के समय में ऐसी वीडियो की भरमार थी। ब्रिटिश मेडिकल जर्नल ग्लोबल हेल्थ में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार, कोविड से जुड़े इलाज की हर 4 में से 1 वीडियो में इन्फॉर्मेशन सही नहीं थी।

DIY ट्रेंड में है, प्रोफेशनल्स के काम भी लोग खुद कर रहे

D-I-Y यानी Do it yourself मतलब ‘स्वयं करें’। जो लोग किसी काम के लिए दूसरों पर निर्भर न रहकर खुद करें वही DIY है। दुनिया भर में लोग उन कामों को खुद से कर रहे जो कोई प्रोफेशनल करता है। ‘DIYing’ शब्द ट्रेंड में है।

गाड़ी धूलनी हो या बैटरी बदलनी हो, घर में सीलिंग फैन लगाना हो या नयी ट्यूबलाइट, दीवारें पेंट करनी हो या ऐसे कई काम लोग ऑनलाइन वीडियो देखकर कर रहे।

घर में कोई बीमार पड़ गया तो लोग इंटरनेट खंगालते हैं कि ये-ये लक्षण हैं, कौन सी बीमारी हो सकती है और क्या दवा लेनी चाहिए।

उन्हें ऑनलाइन ये वीडियो मिल जाती हैं जिनमें कई टिप्स होते हैं।

साइकेट्रिस्ट डॉ. संघमित्रा गोडी बताती हैं कि DIY (Do it yourself) व्यक्ति को क्रिएटिव बनाता है। क्रिएटिव चीजें एंग्जाइटी और स्ट्रेस को कम करती हैं। इससे क्वालिटी ऑफ लाइफ बेहतर होती है।

हालांकि एक तरफ क्रिएटिविटी होती है तो दूसरी तरफ DIY व्यक्ति खतरनाक स्थिति में भी पहुंच सकता है। मशीनों का इस्तेमाल हो या इलाज, दवा, अगर अधूरी जानकारी और समझ में कमी रही तो लेने के देने पड़ सकते हैं।

ऑनलाइन वीडियो देख इलाज करना जानलेवा

रतलाम की गायनेकोलॉजिस्ट डॉ. गायत्री तिवारी कहती हैं कि DIY का ट्रेंड बहुत ही खतरनाक है। न केवल खुद के लिए बल्कि सोसाइटी के लिए भी।

लोग ऑनलाइन खाने की रेसिपी सीख रहे हैं, डांस के स्टेप्स सीख रहे हैं यहां तक तो ठीक है लेकिन वीडियो देखकर किसी का इलाज नहीं कर सकते। ऐसा करना किसी की जान के साथ खेलना है।

गूगल में देखकर दवा नहीं खरीदनी चाहिए। दुर्भाग्य से अपने देश में मेडिकल स्टोर से दवाएं खरीद कर लोग खा लेते हैं।

पीडियाट्रिशियन डॉ. शिवरंजनी संतोष कहती हैं कि हैदराबाद में एक कपल की 3 महीने की बच्ची लगातार रोए जा रही थी। वह चुप ही नहीं हो रही थी।

पेरेंट्स ने सोचा शायद पेट दर्द से बच्ची रो रही है। उन्होंने अपने एक फ्रेंड से पूछा तो उसने एक दवा देने की सलाह दी। वह फ्रेंड कोई मेडिकल प्रोफेशनल नहीं था।

कोलिमेक्स दवा बच्ची को दी गई, वह रेस्पेरटरी डिप्रेशन की शिकार हो गई। बच्ची की स्थिति बिगड़ गई, सांस लेने में उसे तकलीफ हो गई। उसे वेंटिलेटर पर रखा गया। बहुत मुश्किल से उसकी जान बच पाई।

ब्लीडिंग कैसे रोकेंगे, कैसे पता चलेगा शरीर में क्या हुआ

कहीं से कुछ सीखना गलत नहीं है, जानकारी लेनी चाहिए लेकिन जो काम डॉक्टर्स कर सकते हैं वो उन्हें ही करना चाहिए।

गायनेकोलॉजिस्ट डॉ. श्वेता मित्तल बताती हैं कि इस तरह का ट्रीटमेंट प्रोफेशनल ही करते हैं या फिर उनकी गाइडेंस या उनकी उपस्थिति में होती है। ऑनलाइन वीडियो देखकर मान लीजिए डिलीवरी हो भी गई तो ब्लीडिंग अधिक होने पर क्या करेंगे।

कैसे कंट्रोल करेंगे, कैसे रोकेंगे? जब तक हास्टिपल का कोई ट्रेंड स्टाफ या डॉक्टर नहीं होंगे, आप ये काम नहीं कर सकते।

डॉक्टर ही बताएंगे कि ब्लीडिंग का कारण क्या है सॉफ्ट टिश्यू डैमेज हो गया है या प्लेसेंटा रिटेंशन है या यूटरीन रैप्चर हो गया हो।

पहले भी तो घर में डिलीवरी होती थी, तो हम क्यों नहीं कर सकते?

30 साल पहले तक भारत में 74% प्रसव घर पर होते थे। तब हेल्थ केयर सुविधाएं नहीं होने से 1000 बच्चों के जन्म पर 80 बच्चों की मौत हो जाती थी, जबकि एक लाख बच्चों के जन्म पर 437 महिलाएं दम तोड़ देतीं।

हर साल करीब डेढ़ लाख महिलाएं प्रेग्रेंसी और बच्चे के जन्म से जुड़ी कॉम्प्लिकेशंस के कारण जान गंवा देती थीं।

जैसे-जैसे हेल्थ केयर सुविधाएं बढ़ीं, लोगों में जागरूकता आई; अस्पतालों में बच्चों की जन्मदर बढ़ी। ‘नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-5’ के अनुसार, अब देश में 92% डिलीवरी अस्पतालों में हो रही है। हालांकि अभी भी कुछ इलाकों में घरों में डिलीवरी हो रही है।

ऐसे लोगों का तर्क यही होता है कि क्या पहले घरों में डिलीवरी नहीं होती थी? न डॉक्टर होते थे और न ही ट्रेंड स्टाफ, सबकुछ नॉर्मल हो जाता था।

इस सवाल पर डॉ. गायत्री कहती हैं कि यह देखा जाना चाहिए कि जब होम डिलीवरी होती थी तब मातृ मृत्यु दर कितनी थी। पहले कहां 1 लाख बच्चों के जन्म पर 500 से ऊपर महिलाएं मर जाती थीं अब यह घटकर 100 से भी नीचे है।

इसी तरह 1,000 नवजातों बच्चों के जन्म पर अब बाल मृत्यु दर भी घटकर 38 रह गई है।

दूसरी बात यह है कि पहले के समय में दाई होती थीं जिनके पास इस काम का अनुभव होता था। वो किसी इंटरनेट से सीख कर डिलीवरी नहीं कराती थीं।

ये भी ध्यान देने वाली बात है कि दाई जब डिलीवरी कराती थी तो कहा जाता था कि प्रसूता का नया जन्म हुआ है। इतनी खींचतान होती, प्रोलेक्स यूटरस, यूटरेन प्रोलेक्स होने का रिस्क रहता।

इसलिए एक मेडिकल प्रोफेशनल से ही ट्रीटमेंट कराना चाहिए।

वो इस बात के लिए ट्रेंड होते हैं कि नवजात रोए नहीं तो उसे कैसे रिवाइव करना है। क्या ये बात इंटरनेट हमें सिखा सकता है?

फर्स्ट एड और इलाज दोनों में अंतर है

डॉ. शिवरंजनी संतोष कहती हैं कि फर्स्ट एड का मतलब मेडिसिन नहीं है। अगर ब्लीडिंग है तो प्रेशर रखकर कैसे इसे रोकना है, रिकवरी पोजिशन में रखना है यह फर्स्ट एड है। अगर किसी को बुखार हो जाता है तो पैरासिटामोल के टैबलेट देना फर्स्ट एड है।

दूसरी किसी भी तरह की दवा किसी क्वालिफाइड डॉक्टर से ही प्रिस्क्राइब होना चाहिए।

पर भारत में कई लोग ऐसे हैं जो 10वीं-12वीं पास हैं लेकिन डॉक्टरी प्रैक्टिस करते हैं। ऐसे लोग अपनी कमाई करने में मरीज की जान लेते हैं।

डॉ. शिवरंजनी बताती हैं कि एक महिला को प्रोलैप्स यूटरस था यानी पेल्विस की मांसपेशियां और टिश्यूज काफी कमजोर थे। यूरिन लीक हो रहा था। लेकिन यूट्यूब देखकर एक व्यक्ति ने यूटरस को काट दिया। ब्लीडिंग अधिक होने से महिला की मृत्यु हो गई।

तीन-तीन डॉक्टर से राय लीजिए, खुद डॉक्टर न बनें

डॉ. शिवरंजनी कहती हैं कि कई बार पढ़े-लिखे लोग ऑनलाइन देख-सुन कर इलाज करने के बारे में सोचते हैं।

उन्हें इस बात का अधिकार है कि वो जानें कि मरीज को कौन सी बीमारी है, कौन सी दवा दी जा रही है, उसके साइड इफेक्टस क्या हैं, कब तक रिकवरी होगी। वे एक नहीं दो, तीन डॉक्टरों की ओपिनियन ले सकते हैं।

यह ध्यान दें कि 3 डॉक्टरों की ओपिनियन गलत नहीं हो सकती। ओपिनियन लेने में कोई बुराई नहीं है पर खुद डॉक्टर मत बनिए। डॉ. शिवरंजनी कहती हैं कि यूट्यूब और दूसरे सोशल मीडिया पर इंफ्लुएंसरों की बाढ़ है।

कोई खुद को साइकोलॉजिस्ट, फिजियोथेरेपिस्ट बताता है तो कोई साइकेट्रिस्ट तो कोई सेक्सोलॉजिस्ट बताता है।

वे क्लेम करते हैं कि वे डॉक्टर हैं। उनके पोस्ट लोगों को मिसगाइड करते हैं। इस फ्रूट डाइट से डाय[बिटीज ठीक हो जाएगा या इस हर्बल प्रोडक्ट से कैंसर ठीक हो जाएगा। जबकि हकीकत यही है कि डायबिटीज कभी ठीक नहीं होता।

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