नई दिल्ली14 घंटे पहले

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‌वर्धा के रहने वाले प्रथमेश (बदला हुआ नाम) शराब पीने के आदी थे। शराब की वजह से घर में हर दिन लड़ाई होती। रोज-रोज की किच-किच से तंग आकर पत्नी बेटी को लेकर चली गई।

प्रथमेश की शराब की लत और बढ़ गई। वह बाईपोलर डिसऑर्डर से भी पीड़ित थे। वह बिस्तर पर पड़े रहते। खाना, पीना, स्नान सारा रूटीन उल्टा-पुल्टा हो गया।

परिवार के लोग डॉक्टर की सलाह पर प्रथमेश को साइकेट्रिस्ट के पास ले गए जहां उन्हें ‘ग्रुप थेरेपी’ दी गई। इस थेरेपी ने प्रथमेश की जिंदगी बदल दी।

उन्होंने शराब छोड़ दी, नौकरी करने लगे। सालभर के अंदर उनकी बीवी और बेटी घर लौट आए।

‘ग्रुप थेरेपी’ एक ऐसी थेरेपी है जहां 8-20 लोगों का एक ग्रुप होता है जिनकी अपनी-अपनी समस्याएं, तकलीफ एक जैसी होती हैं। ग्रुप थेरेपी कई तरह की हो सकती है लेकिन मोटे तौर पर इसे दो भागों में बांट सकते हैं।

पहला, ऐसी ग्रुप थेरेपी जिसमें कोई मॉडरेटर होता है जैसे साइकोथेरेपिस्ट, साइकोलॉजिस्ट या कोई साइकेट्रिस्ट जो बताता है कि ग्रुप का डिस्कशन क्या होगा।

वह देखता है कि डिस्कशन किस तरफ जा रहा है, कौन से सवाल लेने हैं और कौन से नहीं लेने हैं।

जबकि दूसरा सेल्फ हेल्प ग्रुप होता है जिसमें कोई मॉडरेटर नहीं होता। सबलोग अपने लेवल से डिस्कशन करते हैं।

लखनऊ की साइकोथेरेपिस्ट स्निग्धा मिश्रा कहती हैं कि ग्रुप थेरेपी में कोई एक थेरेपिस्ट एक मरीज से बात नहीं करता बल्कि दो थेरेपिस्ट या इससे भी अधिक कई मरीजों के साथ डिस्कशन करते हैं।

महाराष्ट्र के वर्धा स्थित साइकेट्रिस्ट डॉ. हर्षल साठे कहते हैं कि आमतौर पर ग्रुप थेरेपी 30 मिनट से 45 मिनट की होती है। ऐसी थेरेपी घंटों नहीं चलती।

इसका कारण यह है कि ग्रुप थेरेपी लेने वाले लोग कई परेशानियों से जूझ रहे होते हैं। देर तक डिस्कशन चलने पर वो मुद्दे पर ध्यान नहीं दे पाएंगे।

ग्रुप थेरेपी में मोटिवेशन 3 से 4 गुना बढ़ जाता है

आप जब अकेले टहलने जाते हैं तो इस बात की संभावना बढ़ जाती है कि कुछ ही दिनों में छोड़ दें। लेकिन अगर ग्रुप में जाएंगे तो टहलने के लिए मोटिवेशन मिलता है।

डॉ. हर्षल कहते हैं कि जब हमारी ही तरह पीड़ित व्यक्ति अपने अनुभव शेयर करता है, अपने दुख-दर्द बताता है, परेशानियों से निपटने के तरीके बताता है तो हमारा मोटिवेशन 3 से 4 गुना बढ़ जाता है।

सेल्फ हेल्प ग्रुप का ही एक उदाहरण है अल्कोहलिक्स एनोनमियस (AA)। ये एक तरह का सपोर्ट ग्रुप है जिसमें कोई व्यक्ति बताता है कि उसे शराब पीने की लत कैसे लगी।

कैसे दिनोंदिन उसकी सेहत बिगड़ती गई, क्या-क्या परेशानियां बढ़ीं। परिवार और समाज के स्तर पर क्या नुकसान हुआ, कैसे वो अकेले पड़ते गए। इस ग्रुप के सदस्य बताते हैं कि उनमें कितना सुधार हुआ है।

ऐसे ग्रुप को वही चलाते हैं जिनको कभी शराब पीने की लत रही हो या जो शराब छोड़ चुके हैं।

जिनको शराब छोड़ने की इच्छा है वे भी इस ग्रुप को जॉइन करते हैं। ग्रुप थेरेपी बहुत प्रभावी होती है।

डॉ. हर्षल कहते हैं कि ये सपोर्ट ग्रुप लोगों को एंग्जाइटी से बाहर निकालते हैं। कोई अपने करीबी परिवारजन को खोने से सदमे में है, अकेलेपन का शिकार है तो यह ग्रुप थेरेपी मददगार होती है।

ग्रुप थेरेपी में हमदर्द मिल जाता है

मरीज ही नहीं उनकी देखभाल करने वालों का भी ग्रुप होता है जिसे ‘केयरगिवर ग्रुप’ कहते हैं।

कई ऐसी बीमारियां हैं जिसमें मरीज ही नहीं, उनकी देखभाल करने वाला भी भयंकर तकलीफों से गुजरता है।

सिजोफ्रेनिया, गंभीर मानसिक रूप से बीमार लोग (इंटेलेक्चुअल डिसेबिलिटी), अल्जाइमर्स, कैंसर से जूझ रहे मरीज जल्दी ठीक नहीं होते। बीमारी लंबे समय तक चलती है।

कई मरीज तो ठीक भी नहीं होते। देखभाल करने वाले तनाव में रहते हैं। इस तनाव से निपटने के लिए पेरेंट्स या सगे-संबंधी एक ग्रुप बना लेते हैं।

वे किसी दिन खास समय पर अपनी तकलीफें शेयर करते हैं। उन्हें ग्रुप थेरेपी में अपना हमदर्द मिल जाता है।

महसूस होता है कि आप अकेले नहीं हैं

ग्रुप में लोग चर्चा करते हैं कि आप क्या-क्या करते हैं। कहां और किस डॉक्टर को दिखाया, जब परेशानी शुरू हुई तो क्या किया, कहां संपर्क किया।

क्या हल निकाला। डॉ. हर्षल कहते हैं कि लोग संगत से सीखते हैं कैसे करना है। उनमें ये फीलिंग आती है कि हम अकेले नहीं हैं।

हमारे जैसे भी लोग हैं और हमसे भी बुरी स्थिति में हैं। तब उन्हें उम्मीद बंधती है कि जब वो कर सकते हैं तो हम भी इस परेशानी से उबर सकते हैं।

मनुष्य स्वाभिवक रूप से समहू में रहता है। जब कोई संकट से गुजरता है तो समूह उनकी मदद का काम करता है।

किसी खास बीमारी तक सीमित नहीं ग्रुप थेरेपी

ग्रुप थेरेपी में जरूरी नहीं कि मरीज मानसिक बीमारी से ही जूझ रहा हो। टॉरेट सिंड्रोम (TS), अल्जाइमर, कैंसर या कोई भी क्रॉनिक बीमारी से जूझ रहा व्यक्ति भी ग्रुप थेरेपी ले सकता है।

ग्रुप थेरेपी में लोग प्रैक्टिकल और इमोशनल स्किल्स सीखते हैं चाहे वो किसी बीमारी से पीड़ित हों।

अमेरिकी साइकोलॉजिस्ट मार्शा लेनहन ने ‘डायेलेक्शियल बिहेवियरल थेरेपी (DBT)’ विकसित की जिसमें इंडिविजुअल थेरेपी के साथ-साथ ग्रुप स्किल्स ट्रेनिंग भी होती है।

DBT में भाग लेने वाले कई लोग ट्रॉमा से गुजरते हैं, कुछ गुस्से पर कंट्रोल करने के लिए आते हैं तो कुछ बॉर्डरलाइन पर्सनैलिटी डिसऑर्डर (BPD) से पीड़ित होते हैं।

वैसे लोग भी ये थेरेपी लेते हैं जिनके मन में सुसाइड करने के विचार आते हैं, जिनका सेल्फ स्टीम कम हो, जिनके रिलेशनशिप में बेहद तनाव है, डिप्रेशन से गुजर रहे हों।

भारत में कल्चर में ही है ग्रुप थेरेपी के गुण

ग्रुप थेरेपी का कॉन्सेप्ट पश्चिम के देशों में बहुत पुराना है। भारत में ग्रुप थेरेपी भी कई दशकों से है लेकिन उतना पॉपुलर नहीं है।

चूंकि उन देशों में लोगों के वैसे समूह नहीं हैं जैसे की भारत में इसलिए वहां ग्रुप थेरेपी का कॉन्सेप्ट उभरा।

हालांकि भारत में पहले से ही ऐसे ग्रुप्स हैं। अपने यहां कोई मरीज अस्पताल में एडमिट होता है तो उसके मम्मी पापा ही साथ नहीं रहते बल्कि मामा, चाचा, बुआ, ताई, फूफा, फूफी सभी देखने आते हैं और इमोशनल सपोर्ट देते हैं।

सगे-संबंधी ही नहीं, पड़ोसी तक आपके दुख-सुख में साथ खड़े रहते हैं। यानी भारत में सपोर्ट स्ट्रक्चर बहुत मजबूत है। इसकी वजह से भारत में ग्रुप थेरेपी उस लेवल की नहीं है जैसा कि विदेशों में है।

डॉ. हर्षल कहते हैं कि ग्रुप थेरेपी में जो चीजें विदेशों में दिखती हैं उसके 50-60% तत्व पहले से ही भारत में है। लेकिन इसकी दिशा सही नहीं है।

भजन-कीर्तन, प्रवचन में भाग लेना क्या ग्रुप थेरेपी है?

भजन-कीर्तन, प्रवचन, योग में सामूहिकता होती है। किसी बीमारी या परेशानी को लेकर बातें की जाती हैं लेकिन किसी इंडिविजुअल पर बहुत कम बात होती है। यह ग्रुप थेरेपी का एक पार्ट हो सकता है लेकिन ग्रुप थेरेपी नहीं है।

स्निग्धा मिश्रा कहती हैं कि जब थेरेपी की बात करते हैं तो इसका मतलब है कि प्रोफेशनल और क्लाइंट के बीच की बात। भजन, गीत-संगीत, 10 लोगों के साथ पार्टी करके सॉल्यूशन नहीं निकलता।

ग्रुप थेरेपी में थेरेपिस्ट गाइड करता है, ग्रुप मिलजुल कर चलता है। कई बार मूवमेंट थेरेपी होती है, कई तरह के विजुअलाइजेशन होते हैं, स्पेशल ट्रेनिंग होती है।

स्किल डेवलपमेंट कराए जाते हैं इसलिए सीबीटी ग्रुप, सपोर्ट ग्रुप, इंटर पर्सनल ग्रुप्स बनते हैं।

डॉ. साठे कहते हैं कि कीतर्न का वो उद्देश्य नहीं होता जो ग्रुप थेरेपी का होता है। किसी कीर्तन में अलग-अलग सामाजिक और आर्थिक पृष्ठभूमि के लोग आते हैं। उनकी समस्याएं अलग-अलग हो सकती हैं जबकि मैसेज सबको एक जैसा ही जाता है।

ग्रुप थेरेपी में एक जैसी समस्याओं वाले लोग होते हैं। वो इसका निदान भी मिलकर खोजते हैं।

ग्रुप थेरेपी किस तरह काम करती है, ग्रैफिक से समझते हैं।

भारत में ग्रुप थेरेपी ज्यादा कारगर हो सकती है

डॉ. हर्षल कहते हैं कि ग्रुप थेरेपी अब भारत में भी पॉपुलर हो रही है। खास बात यह है कि यहां ग्रुप थेरेपी के सफल और कारगर होने के चांसेज ज्यादा हैं।

कारण यह है कि भारतीय लोग ग्रुप में रह सकते हैं। हमारा इको सिस्टम पश्चिम के देशों के मुकाबले बहुत अच्छा है।

कहीं कोई परेशानी तो चार अनजान लोग भी अपनी परेशानी आसानी से शेयर कर लेते हैं। एक गरीब परिवार के साथ भी चार लोग खड़े होते हैं।

ग्रुप में पेशेंट्स आउटकम अच्छा रहता हैं। हालांकि ग्रुप थेरेपी में भारतीयों की जरूरतें अलग-अलग हैं।

पश्चिम के देशों में जैसी ग्रुप थेरेपी होती है वैसी ही भारत में नहीं चलेगी। यहां की जरूरतों के हिसाब से ग्रुप थेरेपी की जरूरत है।

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