6 घंटे पहले

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हफ़्ते भर से मैं उसे यहीं देख रहा हूं। सवेरे से रात के एक-दो बजे वो, इधर से उधर घूमती फिरती है, नाचती गाती है, कभी कंघी करती है, कभी बाल खोल कर नाचने गाने लगती है। सांवला रंग, दरम्याना क़द और उम्र यही कोई पच्चीस छब्बीस। उसके शरीर में उभार के साथ साथ लचक और पांवों में गति है, तभी तो, स्टेशन के कुली, नौकर और कुछ बाबू लोगों की निगाहें उस पर से हटती ही नहीं हैं।

रात दस बजे मैं भी ड्यूटी पर आया तो देखा, बुकिंग ऑफिस के बाहर अच्छी ख़ासी भीड़ जमा थी। सफ़ेद यूनिफ़ॉर्म में रेल के बाबू को अपनी तरफ़ आता देखकर कुछ गांववाले रास्ता देने लगे। तभी देखा, एक औरत हाथ में जूता पकड़े हुए, भद्दी भद्दी गालियां बक रही है।

मैंने सख़्ती से पूछा, ”क्या बात है? यह मजमा क्यों लगा रखा है”

“अरे बाबू“ एक कुली बोला, ”इसे तो हवालात में बंद करवा दो। ख़ान को इसने जूता मारा है। पगली है पगली”

“क्या बात है? क्यों मारा तुमने जूता” मैंने कड़क आवाज़ में उस पगली से पूछा तो क्रोध में उसका मुंह तमतमा गया। बोली, “अरे बाबू, मैंने तो सिर्फ़ जूता ही मारा, पिस्तौल होती तो गोली मार देती। जानता है, ये नोट दिखा रहा था मुझे, जैसे मैं मरी जा रही थी इसके नोटों के बिना। पूरा दिन समान उठा उठा कर इधर उधर मारे मारे फिरते हैं और शाम को औरत को नोट दिखाते हैं। घर में जाकर अपनी मां बहन को दिखाएं न”

मैंने एकत्रित भीड़ को तितर बितर करके उसे पुकारा,

“ए पगली, इधर आ”

“पगली तो ये दुनिया है बाबू। मुझे पुकारना है तो राधारानी कहो। मैं श्याम की राधा नहीं, मैं तो नामतार बाबू की रुक्मणी हूं”

“देखो, इधर उधर फिरने के बजाय सामने देहरादून एक्सप्रेस खड़ी है। टी टी बाबू से कहकर मैं तुम्हारी टिकट कटवा देता हूं। बैठो और निकल लो”

“क्या मरना है मुझे? रोज़ रोज़ तो ये गाड़ियां टकरा जाती हैं। मैं तो हवाई जहाज़ पर भी नहीं बैठूंगी। अब तो वो भी टकरा जाते हैं। इंसान की लाश का भी पता नहीं लगता। मैं तो रॉकेट पर बैठूंगी। तू भी बैठेगा रॉकेट में…”

मैंने अपने आप से पूछा, ”क्या ये वाक़ई पागल है। रेल के दुर्घटनाओं से लेकर हवाई जहाज़ की दुर्घटनाओं तक का ज्ञान है इसे। रॉकेट को भी जानती है,फिर भला पागल कैसे है!

कमरे में लौट कर मैंने पगली के विषय में सोचना बंद कर दिया। पास वाले काउंटर से अभिराम बाबू ने पूछा, “पगली क्या कह रही थी? बड़ी हंस हंस कर बातें हो रही थीं उससे तुम्हारी”

“यार मुझे तो वो बिल्कुल पगली नहीं लगी। जवाब तो बड़ी तेज़ी से दे रही थी”

मैंने काउंटर की खिड़की से झांका। उस किनारे वाली बेंच पर बैठी हुई वो जूड़ा बांध रही थी। मैंने हाथ के इशारे से उसे बुलाया लेकिन उसने ध्यान नहीं दिया। मैंने राधारानी कहकर पुकारा तो वो हंसती हुए मेरे काउंटर पर आ गयी। अभिराम भी यहीं आ गया।

बोला, “ रात के दो बजने वाले हैं, और तू इधर उधर फिर रही है? कहीं जाकर सो जा” अभिराम ने उसे डांटते हुए कहा

“अरे बाबू ,अगर रात को रोऊं नहीं, हंसू नहीं,गाली ग़लौच न करूं तो मुझे पागल कौन कहेगा”

“लेकिन मुझे तो लगता है तू ज़रा भी पागल नहीं है, सब जानती है, समझती भी है”

“तू ग़लत कहता है बाबू, तेरी दुनिया का हर आदमी मुझे पागल समझता है, आज से नहीं बचपन से। जब मैं तीन साल की थी तभी से। सुनेगा मेरे पागलपन की कहानी?”

मैंने सहज ढंग से सिर हिला दिया तो उसने कहना शुरू किया,

“मैंने गरीब घर में जन्म लिया। पिता मुंशी के जंगलों में लकड़ियां काटता था, मां, मुंशी धरमचंद के घर झाड़ू पोंछा करती थी। एक दिन मुंशी की बेटी को चाभी वाली रेल से खेलते देखा तो ,मैं भी, मां के आगे रोने लगी,

“ मां मुझे भी ऐसी ही रेल चाहिए”

“ पगली कहीं की। हम भला इतनी महंगी रेल कैसे ख़रीद सकते हैं”

तब मैं सिर्फ़ तीन साल की थी। अनजाने ही मेरे नन्हे दिमाग़ ने सवाल किया, क्या चाभी वाली रेल की इच्छा करना पागलपन की निशानी है?

समय गुज़रा। मां का देहांत हो गया। मुंशी धर्मचन्द के घर झाड़ू पोंछा अब मैं करने लगी। एक दिन मुंशी के बेटे को किताबों के पन्ने पलटते देखकर मेरे मन में भी एक अभिलाषा जागी, बापू से बोली,

“ मैं भी किताबें पढ़ूंगी,स्कूल भी जाऊंगी”

बापू हंसकर बोला,” पगली कहीं की”

तब मैंने दोबारा सुना था ये शब्द। कुल आठ साल की थी मैं तभी भी ख़ुद से ही सवाल किया था मैंने, “कि अगर मुंशी का बेटा चाभी वाली रेल से खेल सकता है, स्कूल में पढ़ सकता है तो फिर, मैं पगली क्यों?”

समय और आगे बढ़ा। एक दिन लकड़ियां काटते काटते दरख़्त से गिरकर मेरा बापू भी मुझ से दूर चला गया। मैं उस दिन खूब रोयी। चारों तरफ़ जिधर भी मेरी नज़र जाती, मैं ख़ुद को अकेला पाती। इतनी बड़ी दुनिया में मेरा कोई भी नहीं था। एकाएक उस दिन मुंशी धरमचंद के मुंह से, फिर मैंने ये शब्द सुना।

“ पगली कहीं की। भला कोई इतना रोता है क्या? जो चला गया वो तो वापस नहीं आ सकता न। चल उठ कुछ खा पी ले”

मुंशी धरमचंद मेरे लिये दयालु सिद्ध हुए। उन्होंने अपने ही घर में मुझे शरण दी तो मन ही मन में मैं उनकी पूजा करने लगी। मुझे उस घर में कोई भी कमी नहीं थी। मैं उनका पूरा ध्यान रखती। वो कभी कभी मेरे गालों पर चपत मारकर कहते,

“अब तो तेरा मन लग गया न यहां”

मैं शर्मा कर भाग जाती। एक दिन मेरी सोच ग़लत साबित हो गयी। मुंशीजी ने चाय की प्याली पकड़ते पकड़ते मेरी कलाई बहुत ज़ोर से पकड़ ली, फिर मुझे गोद में धकेलकर मेरे बालों को सहलाकर मेरा मुंह चूमने लगे। मैंने उस समय, उनकी आंखों में वासना की भूख देखी। उस दिन के बाद मैं उनसे बेहद सावधान रहने लगी।

एक दिन घर में कोई नहीं था। ग्यारह बजे तक घर का काम निबटा कर मैं बिस्तर पर लेटी तो गहरी नींद में सो गयी। अचानक मुझे अपने शरीर पर कुछ रेंगता सा महसूस हुआ। मैं जल्दी से उठ खड़ी हुई। सामने मुंशी धरमचंद खड़ा था। जब तक मैं अपने आप को संभालती,वो,एक जंगली जानवर की तरह मुझ पर टूट पड़ा। समझ में नहीं आ रहा था मैं क्या करूं? सामने कांच का एक जग रखा था। मैंने जग को उठाकर जैसे ही उसके सिर पर मारा,उसकी पगड़ी छिटक गयी। और खून की बूंदें गिरने लगीं। न जाने कैसे मैंने ख़ुद को संभाला और अपने नग्न शरीर को मुंशी की पगड़ी से ढककर कमरे से बाहर निकल आयी। उस दिन मैंने फिर वही शब्द सुना,” पगली”

अपना अनिश्चित भविष्य लेकर मैं, किसी तरह स्टेशन पर पहुंची। मुझे मालूम नहीं था कौन सी गाड़ी है, कौन सा डब्बा है, जाना कहां है? बस एक डब्बे में घुसकर, मैं ज़मीन पर बैठ गयी। मैंने देखा, सीट पर, सफ़ेद खद्दर के कपड़ों में एक व्यक्ति कोई मैगज़ीन लिए मेरी तरफ़ देख रहा था। अपने दोनों हाथ जोड़ कर उस खद्दर धारी से कहा,

“ बहुत दुखियारी हूं बाबू। मुझे डब्बे से मत निकालना। यहीं ज़मीन पर पड़ी रहूंगी”

वो, फलों की टोकरी में से दो सेब और कुछ अंगूर निकालकर मुझे देते हुए बोला,

“ वहां ज़मीन पर नहीं, पहले सीट पर बैठकर कुछ देर सुस्ता लो, फिर ये फल खा लो”

सहमते सहमते मैं, नरम सीट पर बैठ गयी, पानी पिया एक दो नहीं पूरे तीन गिलास,फिर फलों पर टूट पड़ी।

अचानक उस खद्दर धारी के चेहरे पर मुस्कान तिर आयी। अपने बटुए में से सौ सौ के नोट निकाल कर मुझे देते हुए बोला,

“ इन्हें अपने पास रख लो,काम आयेंगे”

कांपते हाथों से मैंने नोट थाम लिए। वो सीट पर मेरे क़रीब बैठ गया और मेरी पीठ पर हाथ फेरने लगा। मुझे उस समय, उस सज्जन में, मुंशी धरमचंद का रूप नज़र आने लगा। वही वासना से भरी नज़रें, वही चेहरा। मैं बिफरकर खड़ी हो गयी। वो मुझ से ज़बरदस्ती करना चाह रहा था। तभी मेरी नज़र ज़ंजीर पर चली गयी और,फिर ज़ंजीर पकड़कर लटक गयी। मेरी ये हरकत देखकर वो, एकदम से परेशान हो गया और खिड़की के पास खड़े होकर ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने लगा,

“ अरे कोई है,गार्ड साहब, इस डब्बे में एक पगली घुस आयी है, निकालो इसे, सफ़र करना भी मुश्किल हो गया है”

फिर वही पगली। अरे बाबू क्या क्या बताऊं तुझे? तीन वर्ष से छब्बीस वर्ष तक यही शब्द तो सुनती आयी हूं।”

सहानुभूति से द्रवित होकर मैंने पूछा ,” आगे सुनाओ फिर क्या हुआ”

“फिर मुझे उसी गाड़ी का टीटी मिला नामतर। एक दिन, इशारे से मुझे अपने पास बुलाकर, उसने चाय की एक प्याली मुझे पीने को दी,फिर मेरी पूरी बात ध्यान से सुनकर बोला,

“तुझे सहारा चाहिए न राधारानी। मैं दूंगा तुझे सहारा” फिर होंठों ही होंठों में बुदबुदाकर बोला, मुझे किसी की परवाह नहीं है। मैं ख़ुद अपनी मर्ज़ी से अपना घर बनाऊंगा, और तुझे अपनी रानी बनाकर रखूंगा”

वो मुझे एक छोटे से कमरे में ले आया। दो चारपाइयां व एक बिस्तर जैसे तैसे जुटाये, चार छः बर्तन भी ख़रीद लिये।

ज़िंदगी में पहली बार मुझे किसी ने इतना प्यार दिया था। नामतर पर विश्वास करने को जी चाहने लगा था। हर दूसरे तीसरे दिन वो आता, बढ़िया बढ़िया चीज़ें लाता। मैं उसके लिए खाना बनाती, उसके कपड़े धोती, उसके कपड़ों में बटन टांकती, वो मुझे सिनेमा दिखाता, बग़ल वाली मार्केट की सैर करता और फिर अपनी बाहों में जकड़ कर खूब दुलारता। प्यार से मेरे बालों पर हाथ फेरता और फिर, जल्दी आने का वादा करके काम पर चला जाता। मेरे मन को पूरी संतुष्टि मिल गयी थी। अब,कहीं कोई अरमान बाक़ी नहीं था।

लेकिन मेरे भाग्य में अभी भी न जाने क्या क्या शेष था। एक दिन ट्रेन के फुट बोर्ड से पांव फिसलकर मेरा नामतर पटरियों के बीचों बीच कटकर संसार से विदा हो गया। मैं उसकी कटी फटी लाश से लिपटकर रो रही थी और लोग मुझे दुत्कार कर पूछ रहे थे,

“ क्या रिश्ता था तेरा उस टीटी से”

और मैं चिल्ला चिल्ला कर कह रही थी,” मेरा सबकुछ तो वो ही था, मेरा घर, मेरा प्रेमी, मेरा पति, मेरा सुहाग” और मैं ज़ोर ज़ोर से रोने लगी थी।

तभी मैंने सुना कोई कह रहा था” टीटी ने तो शादी की ही नहीं थी। यह कोई पगली है, झूठ बोल रही है। हटाओ इसे”

और मैं सचमुच दूर कर दी गयी। आख़िरी बार उस पवित्र आत्मा के कटे फटे शरीर को जी भर कर देख भी नहीं पायी”

एकाएक वो रुक गयी फिर मेरी तरफ़ गौर से देखकर बोली,

“बाबू, मैंने जो आपबीती तुझे सुनायी है, वो किसी को मत बताना,नहीं तो मुझे कोई पगली नहीं कहेगा”

और मैं हैरान सा न जाने किस सोच में पड़ गया था

-पुष्पा भाटिया

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