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  • No One Provides A Job, Garments, Fingers Of The Clock Testify To The Accident; The Solely Luck Is To Clap On The Avenue

20 घंटे पहलेलेखक: मरजिया जाफर

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पूरी दुनिया कल पूरे जोश के साथ महिला दिवस मनाती दिखी। इस एक दिन समाज ने औरतों का इतना गुणगान किया कि कुछ पलों के लिए लगने लगा कि औरतों की आरती उतारनी ही बाकी रह गई है। हर नजर महिलाओं के सम्मान में डूबी नजर आई।

कोई उन्हें उनकी शिक्षा और तरक्की की शाबाशी देता दिखा, कोई औरत और उसकी आजादी की पैरवी करता मिला, कोई औरतों के कौशल और सब्र के कसीदे पढ़ने में लगा, तो कोई उनके शौर्य का गुणगान चीख चीख कर रहा था। किसी ने उन्हें आत्मनिर्भर बनने के बड़े बड़े फॉर्मूले सूझाए। लेकिन इस दिन के गुजरते ही पूरा का पूरा समाज महिलाओं को उनकी जगह बताने में देर भी नहीं लगाता। महिलाओं का बहुत बड़ा तबका ऐसा भी है जिनकी तरफ नजर उठाकर देखने, जिनके बारे में सोचने और कुछ करने से पहले ही समाज उन्हें दरकिनार कर अपनी सोच के दायरे से बाहर निकाल फेंकता है। समाज को ये औरतें नजर नहीं आतीं, कभी कभी तो उनका अपना परिवार उन्हें पहचानने से इनकार कर देता है। आज का दिन उन्हीं महिलाओं के नाम, आज बात कुछ ऐसे ही चेहरों की जो वूमंस डे गुजरने के बाद आसानी भूला दिए जाते हैं।

रेप विक्टिम के कपड़े और घड़ी की सुई हादसे की गवाही

सोशल वर्कर दीपाली पटेरिया कहती हैं कि गैंग रेप के ऐसे भी केस हैं जिसमें घर वाले ही लड़की को चुप करा देते हैं। जाहिर है जब घर से ही इज्जत नहीं मिलेगी तो बाहर वाले क्यों किसी रेप विक्टिम की इज्जत करेंगे। देखा जाए तो जितने भी रेप से जुड़े मामले अखबारों की सुर्खियां बनते हैं उनमें हमेशा लड़की को ही टारगेट किया जाता है। रेप के लिए उसके कपड़ों को जिम्मेदार ठहराया जाता है, घड़ी की सुई उसकी शराफत की गवाह मानी जाती है।

मतलब साफ है, दिन ढलने के बाद भी लड़की घर से बाहर रहती है तो उसे हमारा सभ्य समाज बदचलन मान बैठता है। हर ऐसी लड़की के कैरेक्टर का पोस्टमॉर्टम होता है। चाहे वो नौकरीपेशा हो, स्टूडेंट हो, अपने या घर के किसी काम के लिए घर के बाहर कदम रखे। भरी अदालत में भी रेप पीड़िता के कैरेक्टर, उसके दिलो-दिमाग और भावनाओं का चिरहरण होता है, लेकिन सवाल यह है कि रेपिस्ट का चेहरा पब्लिक को क्यों नहीं दिखाया जाता।

मौसी और मौसेरे भाई ने भी नहीं बक्शा

दीपाली पटेरिया कहती हैं साल 2022 में 29 मई को उत्तर प्रदेश के ललितपुर में नाबालिग लड़की के साथ हुए गैंग रेप करने वालों में उसका मौसेरा भाई भी शामिल था। वो लड़की मेरे पास पुलिस और अपनी मौसी के साथ आई। मौसी का कहना था कि वो अपने माता-पिता के साथ नहीं रहना चाहती। इसे किसी सरकारी सेंटर में भेज दीजिए। जबकि मौसी और पुलिस वालों के जाने के बाद जब उसकी काउंसलिंग की गई तो पता चला उसके साथ गैंग रेप हुआ है।

लड़की के बॉयफ्रेंड ने दोस्तों के साथ मिलकर उसका गैंगरेप किया था। इसमें लड़की की मौसी का बेटा यानि सगा मौसेरा भाई भी शामिल था। जब लड़की के पिता ने गुमशुदगी की एफआईआर कराने की कोशिश की तो एफआईआर दर्ज नहीं की गई। एफआईआर दर्ज न करने की वजह लड़कों की थानेदार से जान-पहचान थी। लड़कों को सूचना दी गई कि लड़की को लाकर तुरंत छोड़ दो। वो लड़के रातों-रात लड़की छोड़ गए और मौसी के बेटे ने अपनी मां को फोन करके बताया लड़की को चौराहे पर छोड़ दिया है, वहां से ले जाओ। मौसी पीड़िता को थाने ले गई। एक दिन इंतजार करने के बाद भी रिपोर्ट दर्ज नहीं हुई। अपने बेटे को बचाने के लिए मौसी ने अपनी भंजी को थानेदार के आगे भी परोस दिया। यानी मौसी ने गैंग रेप में शामिल अपने बेटे को बचाने के लिए एक अपनी पीड़िता भांजी का दोबारा थानेदार के आगे कर दिया। ताकि मौसी का बेटा रेप के इल्जाम से बचा रहे। थानेदार ने थाने के पीठे वाले कमरे में पीड़िता लड़की का दोबारा रेप किया। रेप के बाद जालिम मौसी ने उसे दूसरे कपड़े पहनने को दिए और पीड़िता के पहने हुए कपड़ों को जला दिया। इस पूरे घटनाक्रम में मौसी भी थानेदार से मिली हुई थी। लड़की को डराया-धमकाया जा रहा था कि अगर तुमने अपना मुंह खोला तो तुम्हारे मां-बाप को मार दिया जाएगा। फिलहाल वो बच्ची रिहैबिलिटेशन सेंटर में रह रही है।

यौनकर्मी महिलाओं का दर्द, कोई नौकरी नहीं देता

रात के 12 बजे शहर के लैंपपोस्ट के नीचे खड़ी होने और बदचलन कहलाने वाली औरतों के बारे में भी जरा सोचकर देखिए। यौनकर्मी मोनिका कहती हैं, ‘कानून ने हमें बराबरी का हक तो दे दिया, लेकिन जमीनी हकीकत तो कुछ और ही है। आज भी संस्कारी समाज हमें भद्दी नजरों से देखता है। समाज सुधार के नाम पर हमें सुधारने की बात होती है, लेकिन समाज को सुधारने की तरफ किसी का ध्यान नहीं जाता। हम समाज को गंदा करते हैं, लेकिन हमारी गली का रुख करने वाला समाज न अपने आपको गंदा मानता और न ही अपने आप को सुधारने की बात करता है। हमें चाहे कितनी भी कोशिश करें, कानून और सरकार हमारा चाहे कितना भी साथ दे दे, लेकिन हमें आधार कार्ड और राशन कार्ड थमा दिया जाना मात्र ही इसका हल नहीं। हमें सम्मान से रोटी कमाने के जरिए मुहैया कराइए।

मोनिका कहती हैं, हम नौकरी मांगने जाएं तो हमें नौकरी नहीं मिलती, झाड़ू, पोछा, यहां तक कि जूठे बर्तन मांझने तक का काम नहीं मिलता। क्योंकि समाज का हमारे चेहरे पर चिपकाया गया कैरेक्टर सर्टिफिकेट हमारा पीछा नहीं छोड़ता, और वापस हम वहीं ढकेल दिए जाते हैं।

मैं जहां-जहां नौकरी मांगने गई, वहां किसी ने मुझे अच्छी नजर से नहीं देखा। मुझे नौकरी देने के बजाय लोग मुझसे ही कुछ चाहते हैं और वो भी ‘मुफ्त’। क्यों मेरा पेट भरने का काम ‘धंधा’ कहलाता है? हम ऐसे महिला दिवस को मनाने और पहचानने से इंकार करती हैं।

हमारे सम्मान में पहली बार कार्यक्रम हुआ

सोशल वर्कर निर्मला बी वॉल्टर कहती हैं हम पिछले चार साल से यहां महिला दिवस सेलिब्रेट करते रहे हैं। इस दिन यौनकर्मी महिलाओं को हाइजीन किट दिया जाता है। उनके साथ गेम्स खलते हैं और जीतने वालों को इनाम भी दिया जाता है, जिससे इन महिलाओं का मनोबल बढ़े।

मुझसे रवीना (बदला हुआ नाम) नाम की एक यौनकर्मी ने कहा मुझे यहां आकर इतना अच्छा लगा कि हमारी भी समाज को जरूरत है। वैसे तो हमारी बस्ती में वूमंस डे पर कैंप लगाए जाते हैं लेकिन हमारे सम्मान के लिए आज तक कभी भी ऐसे कार्यक्रम का आयोजन नहीं किया गया। कोई हमारे साथ सम्मानजनक ढ़ंग से वक्त बिताता पसंद नहीं करता।

खूबसूरती बनी सबसे बड़ी दुश्मन

एसिड अटैक में झूलसी लड़कियों का चेहरा चीख-चीख कर कहता है कि लड़की का ‘खूबसूरत’ होना, ‘ना’ कहना, ‘घूटने न टेकना’ पुरुषों की स्त्री को कुचलने और दबदबे वाली सोच की दुनिया औरत को किस नजर से देखती है।

समाज इन पर तरस तो बहुत खाता है लेकिन अपने घर की इज्जत बनाने से कतराता है। सोचिए जो समाज गोरी चमड़ी वाली बहू की ख्वाहिश रखता हो वो इन जले चेहरे वाली लड़कियों को कहां अहमियत देगा? गलती और हरकत किसी और की हो, लेकिन एसिड अटैक की शिकार लड़कियों के बारे में समाज क्यों नहीं सोचता? यह अच्छी बात कि एसिड अटैक सर्वाइवर्स को रैंप पर चलने के लिए बुलाया जा रहा है, दीपिका पादुकोण ने फिल्म के जरिए उनका दर्द भी दिखाया, शाहरूख खान ने अपनी फिल्म के प्रीमियर पर इन चेहरों आमंत्रित किया। लेकिन हमारा समाज एसिड फेंकने की मानसिकता को सुधारने के लिए क्या कर रहा है और क्यों नाकाम है?

ऐसिड अटैक सर्वाइवर शाहीन मलिक कहती हैं कि एसिड अटैक करने वाले की मानसिकता को सुधारने की जरूरत है। बल्कि मौके पर मौजूद तमाशबीनों को भी उनकी मानसिकता का आईना दिखाने की भी जरूरत है। वह कहती हैं-जब मुझ पर एसिड अटैक हुआ तो वहां खड़े लोगों को मेरी जलती चमड़ी की बदबू सूंघने में ज्यादा दिलचस्पी थी बजाय इसके कि कोई मुझे अस्पताल पहुंचाने में मदद करते। मैं तेजाब के जलने से चीख रही थी, जब तक अस्पताल पहुंची चेहरा 90 फीसदी झुलस चुका था। अगर वक्त पर अस्पताल पहुंचा दी जाता तो शायद 90 फीसदी जलने से बच जाती। उस पर पुलिस केस और अस्पताल की ‘पहले पैसा जमा कराओ’ जैसी असंवेदनशील व्यवहार को भी बदलने की जरूरत है। औरत को लेकर लोग दिलो दिमाग से इतने क्रूर हैं कि साल भर में एक दिन 8 मार्च उनकी सोच में कोई सुधार नहीं ला सकता।

शाहरुख खान की बहनें है, एसिड अटैक सर्वाइवर

सुपरस्टार शाहरुख खान एसिड अटैक पीड़ितों के भाई हैं। वो मीर फाउंडेशन के जरिए एसिड अटैक से पीड़ित लड़कियों के इलाज से लेकर उनकी जिंदगी बेहतर बनाने के लिए खास इंतजाम करते हैं। शाहरुख खान ने हाल ही में इनके लिए ट्विट करते हुए लिखा-‘आप सभी से गुजारिश है कि इनके लिए दुआ करें। भगवान इनकी जिंदगी की नई शुरुआत में इनपर करम और दया बनाए रखना … इंशा अल्लाह। ये सब मेरी बहनें हैं और इन्हें जल्दी ठीक होने के लिए बिना किसी भेदभाव के आप सभी की प्रार्थना की जरूरत है।’

भयानक चेहरे पर स्पॉट लाइट क्यों?

सवाल ये है कि सुपर स्टार शाहरूख खान इन एसिड अटैक सर्वाइवर के भाई बनकर बहनों के बेहतर भविष्य के लिए प्रयास और प्रार्थना कर रहे हैं, लेकिन सिक्के का दूसरा पहलू कुछ और ही दिखाता है। जहां समाज एसिड सर्वाइवर के लिए रोजगार, रहने का इंतजाम तो करता है लेकिन उसके पीछे कहीं न कहीं विक्टिम कार्ड खेलकर इन पीड़ितों को इन-कैश कराने की कोशिश भी करता है। कोई कॉफी शॉप में इन्हें शो पीस बनाकर बैठा देता है तो कोई इन्हें रैंप पर उतार देता है। क्या जरूरत है इन चेहरों पर स्पॉट लाइट डालकर दिखाने की? ऐसा दर्द जिसे औरत भूलना चाहती है उसे दुनिया भूलने नहीं देती बल्कि उसे भूनाने में लग जाती है। उन्हें कुछ नया करने का हुनर सिखाए जिससे वो अपने पैरों पर खड़े हो सके।

हमारी जगह नुक्कड़ चैराहों पर

ट्रांसजेडर लतिका रंधावा कहती है कि मैं एक किन्नर हूं। हमारा काम नाचना गाना है। इस समाज को मेरी मौजूदगी नुक्कड़ चौराहों पर तालियां बजा बजा कर भीख मांगते ही अच्छी लगती है। भगवान ने हमें भी मजबूत हाथ पैर दिए हैं मेहनत करके गुजारा करना चाहती हूं लेकिन चाह कर भी कोई ऐसा काम नहीं कर सकती जिसमें मैं इज्जत से कमा सकूं। गलती से शरीफजादों की महफिल में पहुंच भी गई तो लोग हिकारत भरी नजरों से देखते हैं। नाचने गाने और घूंघरूओं से मुझे नफरत है। लेकिन ये समाज मुझे इस दलदल से निकलने की इजाजत ही नहीं देता।

इस दलदल से निकलने की कोशिश की, ब्यूटी पेजेंट ट्रांस क्वीन इंडिया का खिताब भी जीता, कई बड़े बड़े डिजाइनर, एक्टर, एक्ट्रेस के साथ काम करने का मौका मिला। लेकिन बंदा किसी भी इंडस्ट्री का हो मुझे न चाहते हुए मजबूरन जिश्मफरोशी का काम करना पड़ा। मैंने यह ये भी देखा कि छोटी छोटी उम्र की लड़कियों के प्राइवेट पार्ट में नींबू निचोड़ा जाता है ताकि वो जल्दी से बड़ी हो जाएं और कस्टमर अटैंड करना शुरू कर दें। ये सब देखकर मेरे तो रौंगटे खड़े हो गए। समाज किस हद तक गिर सकता हैं ये सोचा न था।

दिल पर पत्थर रखकर किन्नर समाज में वापस लौटना पड़ा

मैं हमेशा से एक सक्सेसफुल मॉडल नहीं तो कम से कम हाउस वाइफ बनकर जिंदगी गुजारना चाहती थी। लेकिन नसीब में तो दर दर की ठोकरें खानी लिखी थीं। किन्नर समाज में लौटने के बाद मुझे वही करना पड़ा जो मैं नहीं करना चाहती थी। मेरे नसीब में काठ की ढोलक, पीतल के घूंघरू ही लिखे थे। फिर से किन्नरों की दुनिया में वापस आ गई। खैर मैंने दिल पर पत्थर रखकर दोबारा खुद को उसी महौल में ढालना शुरू कर दिया।

इन महिलाओं का दिल दुख दर्द से भरा है

पिछली एक सदी से भी ज़्यादा वक़्त से दुनिया भर में लोग आठ मार्च को महिलाओं के लिए एक ख़ास दिन के तौर पर मनाते आए हैं। एक दिन पहले गुजरे अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर दिल के दर्द और दुख से लबरेज इन महिलाओं का कहना है कि ‘इज्जतदारों’ की बस्ती में हमारी कोई हैसियत नहीं है। जबकि ईश्वर और कानून दोनों ही हमें समाज का हिस्सा मानते रहे हैं। बावजूद इसके समाज आज भी हमें अपने साथ बैठाने से कतराता है। सभ्य समाज हमें स्वीकारता नहीं, हमें अपने साथ बैठाता नहीं, अपने साथ हमें जोड़ना उन्हें अपनी तौहीन लगती है, तो हमारे अंदर समाज से खुद को जोड़ने का हौसला कैसे आएगा? शायद कभी नहीं।

हर औरत एक अग्निवीर है, जिसके लिए कोई वर्दी पहनने की जरूरत नहीं। कोई एसिड से जली है, तो कोई बाजार में बेचे जाने तो कोई रेप की आग में जल रही है। ये सभी समाजिक मानसिकता की आग में जलकर मरे जा रहे हैं और हम पर साल महिला दिवस शान से मनाने का ड्रामा भी खूब कर रहे हैं।

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