29 मिनट पहले

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“थोड़े दिन आजा मेरे पास। तेरा भी चेंज हो जाएगा और मुझे भी अच्छा लगेगा। बच्चे भी कब से कह रहे हैं कि मौसी को बुला लो। बहू से भी नहीं मिली है। वह भी तो जाने कि उसकी मौसी सास कैसी है।” आजकल दीदी से जब भी बात होती है, वह यही बात दोहराती हैं।

“आऊंगी,” कह कर वह भी दो महीने से उनकी बात टालती जा रही थी।

फिर एक दिन दीदी खूब गुस्से से बोलीं, “मैं तेरा टिकट बुक कर रही हूं। तैयारी कर ले आने की संयुक्ता।”

“दीदी आप नाराज न हों। एक प्रोजेक्ट है, उसके पूरा होते ही आती हूं लंदन। टिकट बुक कराकर आपको इन्फॉर्म करूंगी।”

कुछ दिन दीदी शांत रहीं, लेकिन फिर उन्होंने वही बात दोहराई तो संयुक्ता ने हफ्ते बाद की टिकट बुक करा उसकी फोटो उन्हें व्हाट्सएप कर दी।

“पांच साल बाद मिलना होगा छोटी। अम्मा के गुजरने पर मैं आई थी भारत। आजा, फिर दोनों बहनें खूब बतियाएंगी,” दीदी की खुशी फोन पर भी झलक रही थी।

संयुक्ता उनसे रोज ही पूछ लेती कि क्या-क्या लेकर आए।

“जो तेरा दिल हो ले आना। यहां तो हर चीज मिलती है। लेकिन अगर तू अम्मा की वह मैरून रंग वाली बनारसी साड़ी नहीं पहनती है तो उसे ले आना। अम्मा की निशानी समझ पहन लूंगी।”

“ले आऊंगी। वह तो वैसी की वैसी रखी है अलमारी में। अम्मा भी कहां पहनती थीं। मैंने ही एक बार तब पहनी थी जब कॉलेज का फंक्शन था। उसके बाद तो वह शायद खुली भी नहीं कभी। यूं ही रखी है मेरे बक्से में।”

संयुक्ता पैकिंग में व्यस्त थी कि तभी उसे उस साड़ी का ख्याल आया। सोचा दोपहर में धूप दिखा देती है। न जाने कितने सालों से साड़ी खुली तक नहीं है, शायद पच्चीस साल हो गए हैं… कहीं चिर न गई हो।

कब समय मिल पाया उसे इस तरह के काम करने का। पहले पापा की बीमारी, फिर भैया की असमय मृत्यु और उसके बाद अम्मा का एकदम निराश हो जाना। अपनी मृत्यु तक वह भी कौन सी स्वस्थ रहीं। अवसाद की वजह से कोई न कोई रोग उन्हें घेरे रहा। फिर संयुक्ता का उनकी वजह से शादी न करना… अंत तक यह दुख साथ रहा उनके।

बक्सा अलमारी के ऊपर से उतार मुलायम कवर में रखी साड़ी निकाली उसने। कहीं से चिर तो नहीं गई या छेद तो नहीं हो गए, यह देखने के लिए उसे खोलने लगी कि तभी उसकी तह से प्लास्टिक की एक छोटी-सी पन्नी में रखा एक सूखा गुलाब फिसल कर फर्श पर आ गिरा।

कुछ पल अपने से लड़ती खड़ी रही संयुक्ता। यादों को सैलाब उमड़ता जा रहा था। वह उसे जितना बाहर उलीचने की कोशिश कर रही थी, बहाव उतना ही तीव्र होता जा रहा था। दफन की हुई यादों का फिर से किसी जिद की तरह आकर सामने खड़े हो जाना…

नहीं चाहती वह इस तकलीफ से गुजरना। लेकिन सिर्फ तकलीफ ही क्यों मान रही है वह? उन यादों में ताजा गुलाब की खुशबू भी है, कोमल पंखुड़ियों का स्पर्श भी है और छुअन भी तो है पहले प्यार की!

उसकी हिम्मत नहीं हो रही थी कि वह उस सूखे गुलाब को उठा ले। कॉलेज फंक्शन में उसने यही साड़ी पहनी थी। हां, याद आया तब उसने ही बहुत संभाल कर एक अमूल्य चीज की तरह, इसे पन्नी में डालकर साड़ी की तह में रख दिया था। छुपाने के इरादे से नहीं, बल्कि अनमोल खजाना मानते हुए।

सूखे गुलाब को उसने बहुत संभाल कर उठाया और अपनी हथेली पर फैला दिया। वह नहीं चाहती कि उसका एक भी अंश झरकर बिखर जाए। संयुक्ता जमीन पर ही बैठ गई पलंग के सहारे पीठ टिकाकर।

यादें आंखों के सामने तैर रही थीं। कॉलेज का एनुअल डे था। वह थी तो साइंस की स्टूडेंट, लेकिन कविता और नाटक खूब पढ़ती थी। मंच पर अभिनय करने का भी शौक रखती थी।

उस दिन ध्रुवस्वामिनी का मंचन हुआ था और वह ध्रुवस्वामिनी की भूमिका निभा रही थी। अद्वैत चंद्रगुप्त बना था। वह जानती थी कि अद्वैत के मन में उसके लिए फीलिंग्स हैं, लेकिन हमेशा नजरअंदाज करती आई थी।

कहीं न कहीं वह सोचती थी कि उसके घर की स्थितियां ऐसी हैं कि वह उनमें जकड़ी हुई है। वह किसी नए रिश्ते को ठीक से निभा नहीं सकेगी, फिर क्यों किसी दूसरे के मन में चाहत जगाकर उसे पीड़ा देना।

संयुक्ता पच्चीस साल पीछे लौट रही थी…

चंद्रगुप्त कह रहा था, “मैं ध्रुवस्वामिनी बनकर अन्य सामंत कुमारों के साथ शकरज के पास जाऊंगा। अगर सफल हुआ तो कोई बात नहीं अन्यथा मेरी मृत्यु के बाद तुम लोग जैसा उचित समझना वैसा करना।”

चंद्रगुप्त को अपनी भुजाओं में पकड़ कर ध्रुवस्वामिनी कहती है, “नहीं, मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगी। मेरे क्षुद्र, दुर्बल नारी जीवन का सम्मान बचाने के लिए इतने बड़े बलिदान की आवश्यकता नहीं।”

संयुक्ता को इस समय भी वह छुअन याद है जब उसने अद्वैत को भुजाओं में पकड़ा था। कैसी तो सिहरन उठी थी उसके भीतर! और पल भर को दोनों ही अपनी भूमिकाएं भूल अद्वैत व संयुक्ता बन एक दूसरे की आंखों में कैद हो गए थे।

बेहद प्यार देखा था अद्वैत की आंखों में संयुक्ता ने उस पल। जब रात को वह घर जाने के लिए कैब का इंतजार कर रही थी तो अद्वैत ने यही गुलाब का फूल उसे दिया था।

“बहुत प्यार करता हूं तुमसे और तुम्हारे लिए कोई भी बलिदान दे सकता हूं चंद्रगुप्त की तरह।” उस समय उसके शब्दों में नाटकीयता नहीं सच्चाई थी। ऐसी गहराई कि संयुक्ता का मन उद्वेलित हो गया था और उससे लिपट जाने की चाह ने उसे एक सुगंध की तरह घेर लिया था। वह बिना कुछ कहे गुलाब के उस ताजा फूल को लेकर लौट आई थी।

उसके अगले दिन पापा चले गए अपनी असाध्य बीमारी से लड़ते-लड़ते। कितने दिन वह कॉलेज नहीं गई। जाती भी तो फिर छुट्टी लेनी पड़ती किसी न किसी वजह से।

संयोग की बात कि अद्वैत से मिलना हो ही नहीं पाता। पता चला कि वह अपने गांव गया है। उसके पिता और चाचा की दुश्मनी की वजह से मुकदमों में फंसा है। फिर भैया के असमय निधन के बाद अम्मा की वजह से उसने कॉलेज जाना ही छोड़ दिया। एक साल खराब हुआ था उसका।

मिला था अद्वैत उसे एक दिन। लेकिन संयुक्ता ने कहा कि वह कभी प्यार को रिश्ते का रूप नहीं दे पाएगी। उसे अपनी जिंदगी में आगे बढ़ जाना चाहिए।

अद्वैत ने कहा था कि साथ मिलकर जिम्मेदारी उठाएंगे, पर वह नहीं मानी। अपनी जिम्मेदारी वह खुद उठाना चाहती थी। वैसे भी वह नहीं चाहती थी कि उसकी वजह से अद्वैत दो जगह बंट जाए। उसके परिवार की मुश्किलें भी कम नहीं थीं।

अद्वैत को कभी भूल ही नहीं पाई वह। बस उसे बक्से में बंद चीजों की तरह अपने मन के किसी निजी कोने में छुपा कर रख लिया था और व्यस्त हो गई थी जिंदगी की आपाधापी में। पांच सालों से अकेली रह रही है। अद्वैत कहां है, यह तक पता नहीं।

हथेली पर रखे सूखे गुलाब को उसने सूंघा। अद्वैत की खुशबू उसे अपने भीतर महसूस हुई। फिर उसे एक छोटी डिब्बी में संभालकर बंद किया और अलमारी में रख दिया। यादें कहां मिटती हैं।

बहुत अच्छा लगा लंदन पहुंचकर। बरसों बाद दीदी से मिल रही थी। उनके बेटे-बहू तो उनसे ऐसे चिपके रहते, जैसे वह आंखों से ओझल हुईं तो फिर बरसों बाद मुलाकात होगी।

दीदी के साथ पुरानी यादों के संदूक खुल गए। कभी आंखें भीगीं तो कभी खिलखिलाहटों ने कमरे को गुंजा दिया। जीजाजी की व्यस्तता के बावजूद दीदी अपने में खुश रहती थीं और खुले हाथों से पति का पैसा लुटाती थीं।

“टाइम न दे पाते तो क्या कर सकते हैं, इसलिए जिस काम की वजह से निरंतर यात्राएं करते रहते हैं, और पैसा कमाते हैं, उसका उपयोग क्यों न करूं खुले हाथों से,” वह हंसकर कहतीं।

“चल, आज तुझे बढ़िया शॉपिंग कराती हूं।” दीदी ने उस दिन बहुत सारे मॉल घुमाए और ढेर सारी शॉपिंग भी कराई।

“अब ले चलती हूं यहां के फेमस ग्रॉसरी स्टोर पर। मैं तो सारा सामान यहीं से खरीदती हूं।”

“लंदन में रहते-रहते आपका अंदाज बिल्कुल बदल गया है। भारत में तो बचपन में किराने की दुकान से सामान लाने के लिए मुझे दौड़ाया करती थीं। अब किराने की दुकान ग्रॉसरी शॉप हो गई।

वैसे दीदी, बचपन में आप मुझसे बहुत काम कराती थीं और रौब भी कम नहीं मारती थीं,” संयुक्ता ने उन्हें छेड़ा।

“कोई नहीं, अब पूरा आराम कराऊंगी और मस्ती भी,” ग्रॉसरी स्टोर में घुसते हुए वह बोलीं।

यहां-वहां नजरें दौड़ाते हुए उन्होंने वहां के स्टाफ से पूछा, “आज तुम्हारे ओनर नहीं देख रहे?”

तभी अंदर से बाहर आते एक व्यक्ति ने कहा, “हेलो मिसेज राजदान! कैसी हैं? गुड टू सी यू…” संयुक्ता पर नजर पड़ते ही वह अचानक कुछ कहते-कहते रुक गया।

दोनों की नजरें मिलीं। समय ठहर गया उस पल में।

“छोटी, यह हैं अद्वैत भार्गव। इस स्टोर के ओनर और यह मेरी बहन संयुक्ता, कुछ दिन पहले ही इंडिया से आई है।”

उन दोनों की आंखों में परिचय की चमक देख वह चुप हो गईं। वह चमक पुरानी पहचान की है या दबी हुई चाहत की… क्या वह पहचानती नहीं!

दीदी उन दोनों को अकेला छोड़ दूसरी तरफ जाकर चीजें बास्केट में डालने लगीं।

– सुमन बाजपेयी

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