1 घंटे पहले

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आज मधुरा का ऑफिस में ज़रा भी मन नहीं लग रहा था। क्यों? इसका कारण वो स्वयं नहीं जान पा रही। कितनी अनमनी थी वो, किसको बताए, कैसे बताए? इसीलिए लंच टाइम से पहले ही हाफ डे लेकर ऑफिस से निकल पड़ी।

घर के लिए नहीं क्योंकि घर में तो उसका इंतज़ार करने वाला तो कोई था ही नहीं। वहां अकेली ही रहती थी वो। अपनी इच्छा से ही मधुरा इस महानगरी में नौकरी के लिए आ गई थी लगभग दो साल पहले।

एक छोटा सा फ्लैट था, उसे घर भी कह सकते हैं लेकिन बस मधुरा का घर, सूना सन्नाटा घर। उसका अपना घर जहां उसके माता पिता और छोटी बहन रहा करते हैं वो तो एक छोटे से शहर में हुआ करता है। स्वभाव से अंतर्मुखी मधुरा की किसी से अधिक दोस्ती भी तो नहीं थी। उसका खाली समय अधिकतर किताबें पढ़ने और म्यूजिक सुनने में जाता।

मूवीज़ देखना उसे अच्छा लगता था। जब भी किसी सहेली का साथ मिल जाता तब वो मूवीज़ देख लेती अन्यथा अक्सर वो अकेली ही चली जाती। सुनने में हास्यास्पद लगता है न। लेकिन मधुरा ऐसी ही थी। इधर कई दिनों से उसे अपना जीवन, अपना रूटीन एकरस लगने लगा था।

ऑफिस से बाहर निकल कर वो अनमनी सी फुटपाथ पर चलने लगी। अपने ऑफिस बैग को कंधे पर टांगे हुए वो आहिस्ता आहिस्ता कदम बढ़ा रही थी। बस खुद में खोई हुई। कुछ देर तक, कुछ दूर तक सड़क पर वो ऐसे ही उदास सी चलती रही बिना ये सोचे कि वो कहां जाएगी? क्या करेगी?

धूप धुंधला रही थी जबकि दिन अभी आधा ही बीता था। कुछ कदम चलने के बाद ही मधुरा ने देखा कि सूरज बादलों से ढक गया था। एक बार सोचा कैब कर ले। फिर उसका मन बदल गया। ठंडी भीगी हवाओं को वो अपनी सांसों में भर लेना चाह रही थी इसलिए चलती रही। अक्सर ऐसा भी तो होता है कि बादल आ आ कर लौट जाते हैं पर बारिश नहीं होती। हो सकता है बारिश न भी हो। लेकिन ऐसा नहीं हुआ।

आसमान से पहले एक बूंद गिरी…, फिर दूसरी…फिर चार पांच और बूंदें गिरीं और उसके बाद हल्की हल्की फुहार पड़ने लगी। मधुरा भाग कर थोड़ी दूर खड़े नीम के पेड़ के नीचे जा पहुंची। ओह, आज कितने दिनों के बाद उसने साड़ी पहन ली थी। आंचल को कंधे पर लपेटते हुए उसने अपना बैग भी संभाला।

उधर खड़े हो कर वो बाहों और सिर पर पड़ी हल्की बूंदों को झाड़ ही रही थी कि लगभग उसी की उम्र का एक युवक भागते हुए उसी नीम के पेड़ के तले आ कर खड़ा हो गया हालांकि उसके हाथ में छाता था लेकिन छाते को खोलना भी तो पड़ता है। पानी की बूंदों को झटकते हुए वो मधुरा को देख कर मुस्करा दिया।

मधुरा को उसकी मुस्कान पंख जितनी हल्की लगी। उसने घड़ी देखी–दिन के दो बज रहे थे लेकिन हल्का हल्का धुंधलका होने लगा था। शायद घिरे काले बादलों की वजह से। उस युवक ने छाता खोला।

“आपको कहां जाना है ?’’

“हुम्म…कहीं नहीं,’’ मधुरा खुद में खोई अनमनी सी बोली।

“अभी बारिश हल्की है। हल्की बारिश जल्दी बंद नहीं होती। बस स्टॉप थोड़ी दूर पर है। मेरा छाता बड़ा है। अगर आप चाहें तो मैं बस स्टॉप तक आपको छोड़ दूं,’’ मधुरा के चेहरे की कोमलता देख कर वो युवक मुखर हो गया –“आज लगता है आसमान खूब बरसेगा। कभी कभी ये बेमौसम की बारिश भी न…।’’उसके कहने के तरीके पर मधुरा कुछ सोचने के लिए विवश हुई।

बूंदें उड़ उड़ कर उन दोनों के चेहरे पर आ रही थीं। मधुरा के बाल हवा के कारण बार बार उसके चेहरे पर आ जाते थे और वो उन्हें अपनी उंगलियों हथेलियों से उन्हें पीछे करती। उसे लगातार देखता वो युवक कह उठ –“मेरा नाम शिव है। आपके ही ऑफिस की बिल्डिंग के पांचवें माले पर मेरा ऑफिस है।

आपको रोज़ ही आते जाते देखता हूं। लेकिन कभी बात करने की हिम्मत नहीं पड़ी।’’ मधुरा उसकी सरलता पर मुग्ध हो गई। शिव का शांत चेहरा उसे अच्छा लगा।

“मुझे मधुरा कहते हैं।’’वो स्निग्ध स्वर में बोली।

शिव ने अपना छाता खोल लिया था। छाता काफी बड़ा था। मधुरा भी उसके साथ छाते में चलने लगी। बारिश हल्की हो रही थी लेकिन रुकी नहीं थी। मधुरा कुछ झिझक के साथ, थोड़ी दूरी बना कर चल रही थी। शिव ने इसे महसूस किया और अपने छाते का काफी भाग मधुरा के ऊपर कर दिया। हवा तेज़ थी। शिव ने अपने मज़बूत हाथों से छाता पकड़ा हुआ था लेकिन एकाएक तेज़ हवा से छाता उलट गया।

शिव और मधुरा एक साथ ज़ोर से हंस पड़े। झुकते हुए शिव ने छाता सही किया लेकिन दोनों ही आधे पूरे हल्के हल्के भीग चुके थे। इस हंसी की वजह से मधुरा का मन जो उचटा था इस समय फूल सा हल्का हो आया। शिव का साथ उसे अच्छा लग रहा था। इस बार शिव के साथ उसने भी छाते का हैंडल थाम लिया। उसका हाथ शिव के हाथ से कुछ नीचे ही था और दोनों की हथेलियां परस्पर स्पर्श कर रही थीं। एक रोमांच जग रहा था दोनों के दिलों में। हवा में सोंधी सी महक जग रही थी।

“आप साड़ी में बेहद सुंदर दिखती हैं।’’

मधुरा चुपचाप चल रही थी। शिव का कॉम्प्लीमेंट उसे अच्छा लगा।

“एक कप चाय मेरे साथ पीना चाहेंगी?’ ’शिव ने प्रस्ताव रखा।

मधुरा ने सिर ऊपर करके उसकी तरफ देखा तो वो सकपका गया–“नहीं, अगर नहीं पीने का मन है तो मना भी कर सकती हैं।’’

मधुरा एक बार फिर हंस पड़ी–“भला इस मौसम में कौन चाय पीने को मना करेगा?’’

…और शिव एकटक उसे देखता रहा।

इसके बाद उन दोनों की आंखें चाय की दुकान की तलाश में दूर तक देखने लगीं। चलते चलते मधुरा एकाएक लड़खड़ाई तो शिव ने उसका बढ़ा हुआ हाथ थाम लिया।

“आपने हाई हील तो नहीं पहन रखी है?’’

“नहीं नहीं, मैं तो हमेशा वेज हील्स ही पहनती हूं। वो भी काफी कम हील।’’ मधुरा स्वयं को बैलेंस करते हुए बोली।

शिव को लगा कि परिचय के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ होगा कि पहनी हुई चप्पलों के कारण एक लड़की उसके इतने करीब आई। सड़क पर जाती कारें, लोगों की भीड़, शोर, सभी कुछ होने के बावज़ूद उन दोनों को एक दूसरे का साथ भा रहा था। हल्की धूप, ज़रा ज़रा सी छांव भली लग रही थी।

“इस बार बारिश जल्दी आ गई,’’ मधुरा बेहद हल्के स्वर में बोली ।

“हां, हमें मिलना जो था।’’शिव ने मन ही मन कहा। काश वो अपनी बात शब्दों में कह पाता–उसने सोचा। एक छाते के नीचे दो अजनबी साथ चल रहे थे…कुछ कुछ महसूस करते हुए…चुपचाप। छाते को थामे हुए शिव का हाथ बार बार मधुरा की कलाई छू रहा था। किसी पेड़ के नीचे बिखरे हुए बहुत सारे गुलमुहर कितने लाल दिख रहे थे। उधर ही टिकी चाय की गुमटी के पास पहुंचते हुए महसूस हुआ कि हवा में अदरक की महक भी घुल गई है।

चाय पीने के बाद मधुरा ने अपना बैग खोल कर पेमेंट देना चाहा तो शिव ने उसे रोक दिया–“आज की चाय मेरी तरफ से।’’

मधुरा ने आपत्ति भी नहीं की।

“कल क्या फिर मिलेंगे हम लोग?’’शिव ने हिचकिचाहट के साथ पूछा।

मधुरा मोनालिसा सरीखी मुस्कराती रही–“मैं रोज़ दस बजे ऑफिस पहुंचती हूं,’’कहते हुए वो भाग कर सामने आती हुई बस में चढ़ गई। विदा के लिए उसने हाथ हिलाए और छाता थामे हुए शिव उसे मुग्ध भाव से दूर तक देखता रहा। बस की सीट पर बैठ कर मधुरा ने एक बार फिर से अपना बैग खोल कर टटोला–एक बिल्कुल सूखा हुआ लेडीज छाता उधर चुपचाप रखा था।

-आभा श्रीवास्तव

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