2 घंटे पहले

  • कॉपी लिंक

शाम के सात बज चुके थे। अनामिका के कदम तेज़ी से घर की और बढ़ रहे थे। दिमाग़ में हज़ारों बातें घूम रही थीं।” राजीव घर पहुंच चुके होंगे। बच्चे भूख से परेशान हो रहे होंगे। कामवाली भी आधाअधूरा काम करके जा चुकी होगी” तभी सड़क के शोरगुल को चीरती एक आवाज़ कानों में सुनाई दी,

“अनामिका”

पीछे मुड़कर देखा तो एक जाना पहचाना चेहरा हांफता हुआ उसी की तरफ़ बढ़ा चला आ रहा था,

“सुधीर?…”

अनामिका को पहचानते देर नहीं लगी। पिछले आठ-नौ साल में कितना बदल गया है सुधीर? वज़न थोड़ा बढ़ गया है। चेहरा थोड़ा कुंभला गया है। बालों में सफ़ेदी झलक रही है।

“लगता है तुमने मुझे पहचाना नहीं”

“सुधीर, कैसे भूल सकती हूं तुम्हें? कैसे हो?”

“ठीक ही हूं” सुधीर ने लंबी सांस भर कर कहा

अब दोनों साथ साथ चल रहे थे।

“अगर थोड़ा समय हो तो हम पार्क में बैठें”

अनामिका ने घड़ी की ओर देखा फिर, कुछ सोचकर बोली, “ चलो”

“एक महीना पहले ही मेरा यहां तबादला हुआ था। तुम्हारे घर गया तो पता चला कि, तुम लोग वहां से शिफ्ट हो चुके हो। वैसे तुम बिल्कुल नहीं बदली अनामिका। अभी भी उतनी ही खूबसूरत हो। तुम्हारे मम्मी पापा कैसे हैं?” सुधीर ने एक ही सांस में सारे प्रश्न पूछ डाले। दिवंगत माता पिता का स्मरण होते ही अनामिका का गला भर आया।

“सुधीर तुम्हारे जाने के दो वर्षों के भीतर ही मां और पापा का देहांत हो गया था। भाइया-भाभी ने वो मकान बेच दिया और मुझे अपने साथ यहां दिल्ली ले आए”

“ईश्वर के आगे किसी की कहां चलती है! उमर तो सभी ऊपर से लिखवा कर ही आते हैं”

जैसे कई वाक्य दोहरा कर सुधीर अपनी सांत्वना देता रहा। अनामिका संक्षिप्त उत्तर देती रही। सुधीर के विषय में जानने की इच्छा होते हुए भी, वो चुप रही क्योंकि मन अपराधबोध से ग्रस्त था। बरसों पहले अनामिका ने, घर परिवार की मजबूरियों के चलते सुधीर के विवाह का प्रस्ताव को ठुकरा दिया था।

“कहां खो गयी अन्नू?” प्यार से सुधीर, अनामिका को इसी नाम से पुकारा करता था, लेकिन इस समय, सुधीर के निकट आने का प्रयास देखकर अनामिका कांप रही थी। समझ नहीं पा रही थी सुधीर को कैसे समझाए?

“मेरे बारे में कुछ नहीं पूछोगी अनु, पिछले आठ नौ सालों में कहां रहा, क्या किया”

सुधीर ने आगे बढ़कर अनामिका की कोमल हथेलियों को अपने हाथों में ले लिया था।

“तुम तो जानती हो मेरा हमेशा से ही ट्रांसफ़रेबल जॉब रहा है। यहां से वहां घूमता रहता हूं। बस ये समझ लो, घर के काम में निपुण हो गया हूं” और फिर वो फीकी हंसी हंस दिया।

“तुमने विवाह क्यों नहीं किया” आख़िर अनामिका ने अपना प्रश्न पूछ ही लिया

“जहां तक मैं समझता हूं, विवाह तो मन, वचन और कर्म का मिलन है, और यह मिलन तो तुम से बरसों पहले ही हो चुका था” सुधीर ने भावुक होकर अपनी बात कही तो अनामिका ख़ुद को छुड़ाते हुए उठ कर खड़ी हो गयी,

“अब चलना चाहिए, घर पर सब चिंता कर रहे होंगे”

“भैया भाभी से एक बार मिलवाओगी नहीं”

“सुधीर, इंसान सोचता कुछ है, होता कुछ है। पिछले आठ वर्षों में बहुत कुछ बदल गया है”

कहते हुए अनामिका नोएडा जाने वाली मेट्रो में चढ़ गयी। और सुधीर, उस के विचित्र व्यवहार से अचंभित वहीं खड़ा तेज़ी से भागती हुए मेट्रो और उसमें बैठी अनामिका को देखता रह गया, जो बरसों की प्रतीक्षा के बाद उसे मिली थी, और एक झलक दिखाकर न जाने कहां लुप्त हो गयी थी।

मेट्रो की खिड़की से छोटी होती जा रही सुधीर की आकृति और उसकी अवस्था देखकर, अनामिका की आंखों से आंसूओं की अविरल धारा बहने लगी। वह बहुत बेचैन थी। सड़क के दोनों ओर क़तार में सजी-संवरी दुकानें, उसकी ज़िंदगी के बीते वर्षों की तरह पीछे छूटती जा रही थीं। कितनी बार सुधीर के साथ इन सड़कों पर घूमते हुए ठहाकों में डूबी ख़ुशनुमा शामें बीती थीं। न जाने कितनी रंगबिरंगी कल्पनाओं से सजे सपनों के घरौंदे उन दोनों ने बनाए थे। सजे हुए बाज़ार, जगमगाती सड़कें उसी तरह न्यौता दे रही थीं, किंतु ज़िंदगी बहुत आगे निकल चुकी थी।

रात के आठ बज चुके थे। तेज़ कदमों से वो घर की तरफ़ बढ़ रही थी लेकिन, दिल और दिमाग़ पर सुधीर की छवि, उस की बातों की गूंज, स्पर्श की महक का सुखद एहसास विद्यमान था। घंटी बजाते ही, राजीव ने दरवाज़ा खोल दिया,

“सब कुशल तो है न अनु? तुमने घंटी का बटन इतनी ज़ोर से दबाया कि, मैं तो घबरा ही गया। भई दरवाज़ा खोलने में थोड़ा समय तो लगता है न”

मेज़ पर चाय का प्याला देखकर अनामिका समझ गयी थी कि अपनी आदत के अनुसार, राजीव दफ़्तर से लौटकर चाय पी चुका है। उसने झट से गाउन पहना और किचन में प्रवेश करने ही वाली थी कि राजीव ने उसे रोक लिया,

“पहले तसल्ली से चाय पी लो, फिर खाना बनाना” मेज़ पर रखी पत्रिका के फड़फड़ाते पन्नों पर पेपर वेट रहते हुए राजीव ने चाय की चुस्की ली, फिर पूछा,

“आज बहुत देर कर दी। काम ज़्यादा था क्या?”

“हां”

ऐसा लगा जैसे चाय का घूंट अनामिका के गले में अटक गया हो। बात पलटने के अंदाज में उसने पूछा,

“बच्चे कहां हैं”

“ रितेश सो रहा है और सोनू पड़ोस में मुन्नी के घर कॉपी लेने गयी है”

चाय का प्याला किचन में रखते हुए राजीव बोला, “समाचार का वक्त हो गया है। अब आप अपना फ़ील्ड संभालिये।”

डिनर तैयार करते वक्त अनामिका सोच रही थी

“आज इतने वर्षों बाद सुधीर क्यों मिला? मैंने कितनी मुश्किल से तो उसे भुलाया था। वक्त ने आज उसे किस मोड़ पर लाकर खड़ा कर दिया है?”

अतीत के गलियारों में घूमते हुए ही उसने भोजन तैयार कर लिया और रोज़ की तरह सभी को मेज़ पर पहुंचने के लिए पुकार लगा दी। सभी झटपट खाने के लिए पहुंच भी गए। अनामिका की हलक से एक भी निवाला नहीं उतरा। सिर दर्द से फटा जा रहा था। वो,चुपचाप आकर बिस्तर पर लेट गयी, किंतु आंखों में नींद नहीं थी। अतीत में, सुधीर के साथ बिताये प्यार भरे पल, सिलसिले से आंखों के सामने आने लगे थे, शहर के शोर शराबें से दूर पेड़ों के झुरमुट से घिरे एक टीलेनुमा स्थान पर वो दोनों अपनी रंगीन शामें गुज़ारा करते थे।

सुधीर हमेशा कहता, “ अनामिका, वो देखो,दूर पहाड़ियों के पीछे लाल सूर्य का गोला डूब रहा है और अपनी लालिमा से सारे आकाश को रंगीन कर रहा है। इसी तरह मैं भी तुम्हें हमेशा हंसते मुस्कुराते देखना चाहता हूं।”

“सुधीर मैं भी तुम्हें बहुत प्यार करती हूं” कहते हुए अनामिका भी सुधीर की बाहों में सिमट जाती

“अनामिका। अनामिका, भई, सपने में किसे प्यार कर रही हो। मैं तो यहां हूं तुम्हारे पास” राजीव ने प्यार से उसके माथे पर चुंबन अंकित कर के कहा, “ओ राज तुम आ गये।। नींद में मैं तुम्हारा ही सपना देख रही थी”

सुबह नींद से उठते ही, दैनिक दिनचर्या के काम निबटा कर अनामिका ऑफिस के लिए निकल पड़ी। इस दौरान, सुधीर का ध्यान, बराबर उसके मन मस्तिष्क पर छाया रहा। उसने जानबूझकर दूसरी बस पकड़ी, और आवाजाही के लिए दूसरा रास्ता पकड़ लिया। किंतु मन अशांत ही था।

हर महीने के दूसरे शनिवार को वो सब बच्चों के साथ घूमने के लिए ज़ाया करते थे। इस बार भी ज़ू का प्रोग्राम तय हुआ था। बच्चों के मनपसंद पकवान बने, मोबाइल पर गाने अपलोड हुए साथ ही बैडमिंटन। सब सामान जुटा कर वो सभी ज़ू पहुंच गये।

टिकट खिड़की के पास ही किसी ने अनामिका को आवाज़ लगायी तो उसने पीछे मुड़कर देखा। सुधीर था। अनामिका के दिल की धड़कन बढ़ गयी। राजीव भी जड़वत वहीं खड़ा हो गया और तेज़ तेज़ कदमों से अपनी ओर आते सुधीर को देखने लगा।

“अनामिका, तुम उस दिन अचानक कहां खो गयीं थी?” सुधीर ने पूछा

“उस दिन मैं ज़रा जल्दी में थी। आओ,मैं तुम्हारा परिचय करवा दूं,”

अब तक राजीव और सुधीर की आंखें एक दूसरे से टकरा चुकी थीं।

“राजीव ये सुधीर है। मेरे कॉलेज का दोस्त और ये मेरे पति राजीव” कहते हुए अनामिका की आवाज़ गले में ही अटक गयी।

राजीव ने, सुधीर की ओर हाथ बढ़ा दिया किंतु सुधीर हैरानी से दोनों को देखता रहा और फिर, बिना कुछ कहे ही वापस लौट गया। राजीव की बेचैनी और बढ़ गयी,

“ बड़ा अजीब आदमी है, इतना परेशान क्यों हो गया?” राजीव ने कहा, “पता नहीं, अरे,बच्चे कहां निकल गये। जाओ, उन्हें बुला लाओ”

राजीव बच्चों के पीछे भागा और अनामिका की डबडबाई नज़रें दूर जा चुके सुधीर के पीछे। दूसरे दिन अनामिका ने ऑफिस जाने के लिए पुराना रास्ता ही पकड़ा, क्योंकि अब कोई डर नहीं था। आशा के अनुरूप सुधीर चौराहे पर खड़ा पहले से ही उस की प्रतीक्षा कर रहा था। दूर से ही उसे देख अनामिका ठिठक गयी। वो पीछे मुड़ने ही वाली थी कि सुधीर उस का रास्ता रोककर खड़ा हो गया,

“ नहीं अनामिका ,मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगा”

“सुधीर, हटो, कोई देख लेगा तो क्या सोचेगा? मैं शादीशुदा हूं”

“ हां, लेकिन तुम्हें मेरे सवाल का जवाब देना होगा। मुझे में क्या कमी थी, तुमने मेरे साथ विवाह करने से क्यों इंकार कर दिया”

“ ज़रूर बताऊंगी, अगर थोड़ा सा समय हो तुम्हारे पास तो कुछ देर सामने कॉफी हाउस में बैठें”

सुधीर सहर्ष मान गया। जब तक बैरा कॉफी लेकर आता, अनामिका ने कहना शुरू किया,

“सुधीर, तुम तो जानते ही हो मेरे दोनों भाइयों ने मेरे माता पिता को अपने पास रखने से मना कर दिया था। ऐसे में मैं, उन्हें अकेला कैसे छोड़ सकती थी? इसीलिए मैंने उस समय शादी के लिए साफ़ इंकार कर दिया था। और ये भी निश्चय किया था कि, आजीवन कुंआरी रहूंगी। तुम्हारे जाने के दो साल बाद ही मां और बाबूजी, दोनों चल बसे। मैं, अन्नू भैया के पास आकर रहने लगी। हालांकि मैं कमाती थी फिर भी भाभी का व्यवहार मेरे प्रति सही नहीं था। अक्सर भैया से कहती रहतीं,” या तो इसकी शादी कर दो या इसके लिए किसी दूसरे मकान में इसके रहने की व्यवस्था कर दो”।

आख़िर, एक दिन भैया, भाभी के दबाव में आ गये और मेरा रिश्ता, दो बच्चों के पिता, विधुर, राजीव के साथ तय कर दिया। अब मेरे सामने दो विकल्प थे। या तो आजीवन भाभी के ताने सुनती या, राजीव का रिश्ता मंज़ूर करती। मैं बुरी तरह टूट चुकी थी सुधीर। मैंने तुम्हारे ऑफ़िस में जाकर भी पता लगाना चाहा कि, आजकल तुम कहां हो? लेकिन वहां से भी मुझे कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला। आख़िर, काफ़ी सोचविचार के बाद मैंने दूसरा विकल्प ही चुन लिया”

“राजीव एक अच्छा इंसान है। बीते वर्षों में उसने मुझे भरपूर प्यार और सम्मान दिया है। अब तुम ही बताओ, मैं उसे कैसे धोखा दे सकती हूं?”

“नहीं अनामिका नहीं। तुम्हारा कर्तव्य यही है कि तुम अपना घर परिवार संभालो, मैं अपना तबादला किसी दूसरी जगह करवा लूंगा। और फिर कभी तुम्हारे जीवन में हस्तक्षेप नहीं करूंगा” कहते हुए सुधीर भीड़ में खो गया। आंसू के दो कतरे न जाने कब अनामिका की आंखों की कोर भिगो गये थे जिन्हें उसने पोंछ लिया था, यत्नपूर्वक।

-पुष्पा भाटिया

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here