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  • After Identification, She Performed Her Last Rites As Per Religion, Said Goodbye To 4 Thousand Dead Bodies With Respect.

2 घंटे पहलेलेखक: मरजिया जाफर

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मां को अचानक खोया, दादी भी चल बसीं, दादा शहीद हो गए, धीरे धीरे पूरा हंसता खेलता घर परिवार कहीं खो गया। कुछ दिन बाद बड़ा भाई भी दुनिया से जाता रहा। भाई को खोकर एक बहन ने लावारिस शवों की वारिस बनने का किया फैसला। अब तक 4 हजार से ज्यादा लावारिस लाशों का दाह संस्कार करा चुकी हैं। आज भी सिलसिला जारी है।

दैनिक भास्कर की ये मैं हूं सीरीज में जानिए दिल्ली के नंदनगरी की रहने वाली पूजा शर्मा की दिल दहलाने वाली कहानी उन्हीं के शब्दों में।

नमस्ते दोस्तों….

मैं पूजा शर्मा, मेरी कहानी सुनकर आपको शायद अजीब लगे लेकिन मेरी जिंदगी के सफर में कुछ ऐसे भी पड़ाव आएं जिन्होंने मुझे दुनियादारी से हट कर दुनिया से विदा होने वालों की अंतिम सेवा करने की प्रेरणा दी।

मन में चलते मातम को मिशन बनाया

मेरा जन्म 7 जुलाई 1996 में दिल्ली में हुआ। मैंने कुछ साल पहले अपने भाई को खोने और पिता के सदमे से मिले दुख को मातम न बनाकर मिशन बना लिया। दरअसल, 13 फरवरी 2022 को मेरे बड़े भाई की किसी से बहस हो गई ये बहस इतनी बढ़ गई की मेरी आंखों के सामने ही मेरे भाई की हत्या कर दी गई। इस घटना के बाद कोई भी मेरी मदद के लिए आगे नहीं आया और मैं अकेले ही जैसे तैसे भाई को दिल्ली के जीटीबी अस्पताल लेकर गई। जहां डॉक्टर ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। जिसके बाद मैंने सिर पर पगड़ी बांधकर छोटा भाई का फर्ज निभाया। अपने बड़े भाई का अंतिम संस्कार किया और फैसला किया कि मैं बेसहारों का सहारा बनूंगी।

मिशन लावारिस का लक्ष्य शवों को सम्मान देना

मिशन लावारिस के तहत मैंने शवों का वारिस बनकर उनका अंतिम संस्कार करती हूं। भाई की मौत के बाद मैंने कसम खा ली कि मैं उन लोगों की वारिस बनूंगी जिनकी लाशें लावरिस कहकर बिना किसी संस्कार के जलाई या दफना दी जाती हैं। मैं अपने फैसले पर कायम रहते हुए आज भी लावारिस शवों का अंतिम संस्कार और अस्थि विसर्जन कर कर रही हूं। अब तक मैंने 4 हजार से ज्यादा लावारिस शवों की अंत्येष्टि रीति रिवाज के साथ की है।

भरा पूरा परिवार खत्म हो गया

मेरे दादा आर्मी में थे, वो शहीद हो गए। चार साल पहले तक मैं अपने पूरे परिवार के साथ रहती थी। दादी, पापा, मां और भाई सब एक साथ जिंदगी बिता रहे थे। परिवार में दुख की शुरूआत मां की मौत से हुई। 20 दिसम्बर 2019 को दिमाग की नस फटने से अचानक मां चल बसीं। इस दुख से परिवार पूरी तरह उबर भी नहीं पाया था कि 13 मार्च 2022 को एक विवाद में हुए झगड़े में भाई की हत्या हो गई। बेटे के जाने से पापा को सदमा लगा वो कोमा में चले गए। मेरे परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा। घर में कोई पुरुष नहीं बचा, जो मेरे भाई का अंतिम संस्कार करता। ऐसे हालातों में मैंने हिम्मत नहीं हारी और नई भूमिका के रूप में पगड़ी पहनकर खुद ही भाई का अंतिम संस्कार किया।

शिवलिंग पर माथा टिकाकर दो घंटे रोई

दो दिन बाद जब अपने भाई की अस्थियां लेने शमशान पहुंची तो वहां शिवलिंग के सामने 2 घंटे तक लगातार रोती रही। इस दौरान मुझे एहसास हुआ कि जिन लोगों के परिवार में कोई नहीं है उनका अंतिम संस्कार कैसे होता होगा। बस यहीं से जिंदगी को नया मोड़ मिल गया और जीने का मकसद भी। लावारिस शवों का अंतिम संस्कार मेरे लिए मिशन बन गया। न जाति देखी न धर्म और लावारिस शवों के अंतिम संस्कार करने का बीड़ा उठा लिया। भाई की हत्या के बाद लावारिस शवों का वारिस बनने की जो मैंने शपथ ली थी उस पर कायम रहते हुए मैं अब तक दिल्ली के 4000 लावारिस शवों का अंतिम संस्कार कर चुकी हूं।

मुर्दाघरों के संपर्क में रहती हूं

मिशन को पूरा करने के लिए मैं दिल्ली के अस्पतालों के मुर्दाघरों के संपर्क में रहती हूं। जहां से मुझे लावारिस लाशों के बारे में जानकारी मिलती रहती है। इसके बाद मैं शव को पास के श्मशान घाट तक ले जाने के लिए एंबुलेंस की व्यवस्था करती हूं। पूरे सम्मान और रीति रिवाज के साथ लावारिस शवों का अंतिम संस्कार करने के बाद उनकी अस्थियों को हर महीने की अमावस्या को हरिद्वार के कनखल घाट में अस्थियों का विसर्जन कर पिंडदान भी करती हूं। जिनकी पहचान हो जाए उसके धर्म के मुताबिक अंतिम संस्कार का ख्याल भी रखती हूं।

मां के बनाए गहने बेच दिया

शुरूआत में मेरे पास इतने पैसे नहीं होते थे कि मैं अंतिम संस्कार की सामग्री खरीद सकूं। मां ने जो मेरी शादी के लिए गहने बनवाए उन्हें बेच कर खर्चा पूरा किया। भाई की आखिरी निशानी स्कूटी भी बेच दी। यहां तक प्रॉपर्टी गिरवी रख दी। सारा पैसा लावारिस शवो के अंतिम संस्कार की सेवा में खर्च कर दिया।

दादी के दिए प्लॉट पर वृद्धाश्रम बना रही हूं

मैंने इस मिशन को जारी रखने के लिए दिल्ली में ब्राइट द सोल फाउंडेशन एनजीओ बनाया। इस एनजीओ के जरिए ही लोगों को प्रेरित और सशक्त बनाना चाहती हूं। मुझे समाजिक कामों से जुड़े कुछ लोगों ने भी आर्थिक मदद मिलती रहती है। मेरे पिता का इहबास हास्पिटल शाहदरा दिल्ली से आज भी ट्रीटमेंट चल रहा है। बेटे की याद में उन्हें आज भी दौरे पड़ते हैं। दादी ने 50 गज का प्लॉट दिया है उसी पर वृद्धाश्रम बना रही हूं।

मैं कॉकरोच और छिपकली से डरती थी

सच बता रही हूं मैं भी वही लड़की हूं जो कॉकरोच और छिपकली से डरती थी। आज मैं सांपों के बीच में रहती हूं। इन 4 सालों में शमशान महाकाल तो जाती हूं लेकिन लौट कर नहाती नहीं हूं। शवो से उड़ती लपटों की तपिश से ही नहाना हो जाता है। मैं निस्वार्थ भाव से दूसरों की सेवा करना अपना फर्ज समझती हूं।

ये सब करके दिल को सुकून मिलता

मैं सिर्फ लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार ही नहीं करती बल्कि बेसहारा लोगों, बुजुर्गों, एचआईवी/एड्स से पीड़ित मरीजों, बलात्कार पीड़ित महिलाओं, कैंसर, ब्रेन ट्यूमर, टीबी और गंभीर बीमारियों से जुझ रहे लोगों कि मदद के लिए भी हर वक्त उनके साथ खड़ी रहती हूं। ये सब करने से मेरे दिल को सुकूंन मिलता है। ये कहावत गलत नहीं है जिसका कोई नहीं उसका तो खुदा है यारों। लेकिन मैं खुदा नहीं एक मामूली लड़की हूं। खुदा की बंदी बन जीती हूं, ईश्वर ने मुझे इस काम के लिए चुना है।

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