4 घंटे पहलेलेखक: कमला बडोनी

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17 साल की उम्र में शादी, 20 साल में दो बच्चों का जन्म, शादी के बाद टूटा आत्मविश्वास। आत्महत्या करने की कोशिश। बेटी ने दिखाई जीने की राह। आज युवाओं को सुसाइड से दूर रखने के मिशन पर जुटी हैं। ‘ये मैं हूं’ में जानिए कवियत्री, मोटिवेटर, हैप्पीनेस गुरु सुमीता केशवा की कहानी…

बेटा-बेटी में फर्क ने बागी बनाया

मेरा बचपन उत्तराखंड के हल्द्वानी के गांव देवखड़ी में गुजरा। तब लड़कियों पर हर तरह से पाबंदी हुआ करती थी। दो भाई व तीन बहनों में, मैं बीच की थी।

बेटा-बेटी में फर्क जो मुझे बहुत नागवार गुजरता। मेरे विरोध करने पर मुझे मारा पीटा जाता, बदले में मैं जुबान चलाती, गालियां देती, फिर और कुटाई हो जाती।

लड़कों की तरह गुल्ली डंडा खेलने पर पिटाई होती। धीरे हंस, धीरे बोल, धीरे चल, रोज सुनती। दादी रोकती तो मां कहती, ’कौन ले जायेगा इसे ब्याह कर, उसकी किस्मत फूटेगी।’ सारा परिवार एक तरफ और दूसरी तरफ अकेली मैं। मुझे जितनी मार पड़ती मैं उतनी ही उग्र हो जाती। मुझे लगता कि मुझे कोई प्यार नहीं करता। एक हीनभावना मुझमें पनपने लगी।

हालांकि आज लगता है कि मेरी ही गलती थी, मगर उस नादान उम्र का क्या कीजै जब हार्मोन्स बदल रहे हों। मारपीट की जगह उस उम्र के बच्चों को प्यार व सम्मान की जरूरत होती है। उस वक्त समाज की वजह से कई मुसीबतों का सामना करना पड़ता था। मां-बाप की सबसे बड़ी चिंता यही होती कि लोग क्या कहेंगे।

17 वर्ष में शादी कर दी गई

मेरे विरोध के बावजूद खालसा कॉलेज से 12वीं के बाद 17 वर्ष की उम्र में ही मेरी शादी कर दी गई। मां से जब मैं रोते हुए कहती- ‘मां, अभी पढ़ना है मुझे, मत कर मेरी शादी, मेरा मन नहीं है।’ तो वो भी रो देतीं, क्योंकि घर में पिता जी का बहुत दबदबा था। उन्होंने मां को भी धमकाया, जिसकी वजह से मां मरते दम तक रोती रहीं।

शादी करके मुंबई आई

मुंबई का माहौल मेरे लिए एकदम नया था। घर के सभी लोग उत्तराखंड के नहीं थे। क्योंकि घर की कई बहुएं गुजराती थीं। ससुराल वाले वर्षों से मुंबई में रहकर मुंबइया हो गए थे। सब गुजराती में बोलते और मुझे कुछ समझ न आता।

छोटा सा घर जिसमें कई लोग रहते थे। ननद का परिवार भी साथ रहता। मेरे ससुर ने मुझसे आगे पढ़ाई जारी रखने को कहा, जिस पर घर में हंगामा मच गया।

मेरी शादी के दूसरे दिन ही काम करने वाली हेल्पर को निकाल दिया गया। सुबह 5 बजे से रात 12 बजे तक कपड़े, बर्तन, पोछा व घर के अन्य कामों में सारा दिन निकल जाता था।

मुंबई में रहकर भी सोच इतनी बैकवर्ड, अब सोचती हूं तो हैरानी होती है। लेकिन उस वक्त तो मैं खुद से ही लड़ रही थी। 17 वर्ष की उम्र में मैं खुद को ही कहां जान पाई थी। शादी के बाद जल्द ही मैं प्रेग्नेंट हो गई। 18 वर्ष की उम्र में ही बिटिया हो गई। 20 वर्ष की उम्र में बेटा भी हो गया।

सुमीता केशवा कविताओं के माध्यम से युवाओं को मोटिवेट करती हैं, खुश रहना सिखाती हैं

सुमीता केशवा कविताओं के माध्यम से युवाओं को मोटिवेट करती हैं, खुश रहना सिखाती हैं

मैं अकेली हो गई

सब कुछ इतनी जल्दी हो गया कि सोचने और संभलने का वक्त ही नहीं मिला। मुझे पढ़ाई छूटने का बहुत दुख था। फिर जब बच्चे स्कूल जाने लगे तो मेरे पास अपने लिए थोड़ा सा वक्त बचने लगा। दोपहर में जब बच्चे स्कूल जाते तो मैं कम्प्यूटर सीखती, जो मुझे बाद में बहुत काम आया।

मैं क्लास जा रही हूं देखकर घर में वही देवरानी-जेठानी वाली साजिशें शुरू हो गईं। मां-बाप दूर थे इसलिए मुझसे मिलने आ नहीं पाते थे। एक बार आए, तो मैंने उनसे शिकायत की। उन्होंने मेरा पक्ष जानने के बजाय कहा कि तुम्हें सहन करना होगा, हमारी इज्जत का ख्याल रखो। तुमने ही कुछ अनाप शनाप कहा होगा।

मैं बिल्कुल अकेली पड़ गई। जॉइंट फैमिली की वजह से पति भी कुछ न कह पाते, उनकी तरफ हो जाते। मैं घर के झगड़ों व जीवन संघर्षों से थक चुकी थी। कई बार आत्महत्या के ख्याल आते, पर अगले ही पल बच्चे याद आ जाते। एक बार कोशिश भी की, पर नाकाम रही।

बेटी ने नई पहचान दी

बच्चों की जरूरतें पूरी करने के लिए औरों का मुंह देखना पड़ता था। मैंने पति की मदद से छोटी सी एक बिंदी फैक्ट्री शुरू की। कुछ वर्षों बाद वह भी बंद करनी पड़ी।

बेटी जब कॉलेज में मास मीडिया की पढ़ाई कर रही थी। उसने मुझे उबारने की कोशिश की। बेटी की उंगली पकड़कर मैं बड़ी होने लगी। बेटी ने हिम्मत दी, आत्मविश्वास बढ़ा। अखबारों में लिखना शुरू किया। मेरा कम्प्यूटर कोर्स काम आया।

स्ट्रेस पता नहीं कहां चला गया। दिमाग हर पल कुछ नया सोचता रहता। दिमाग नए-नए विचारों को लाता और मैं उन्हें पकड़ कविता बना लेती। मैं खुद भी नहीं जान पा रही थी कि मैं कैसे कविताएं लिख रही हूं।

मैंने ट्रांसलेशन का काम भी शुरू किया। 2007 में सेरोगेसी पर मेरा पहला उपन्यास ‘एक पहल ऐसी भी’ आया। जिसकी बहुत चर्चा हुई, फिर मैंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। मैंने दिल्ली के लालकिला से भी काव्यपाठ किया। मेरी कई किताबें ‘संबंध’, ‘चाय की चुस्कियों में तुम’, ‘छूकर मेरे मन को’ प्रकाशित हो चुकी हैं। देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी मेरे काव्य संग्रह के लिए मुझे शुभकामना संदेश भेजा।

युवाओं को डिप्रेशन से बचाती हूं

आजकल आए दिन युवाओं की आत्महत्या की खबरें सुर्खियों में रहती हैं। मैंने फैसला किया कि मैं युवाओं के बीच रहकर उन्हें कविताओं द्वारा अपने मन की गांठें खोलने के लिए प्रेरित करूंगी। इसके लिए मैंने एक दिलचस्प कोर्स तैयार किया जो युवाओं के बहुत काम आ रहा है। मैं चाहती हूं कि युवा आत्मविश्वास से इतने भर जाएं कि असफल होने का डर उन्हें आत्महत्या की ओर न ले जाए।

युवाओं को संवेदनशील बनाना जरूरी

आत्मविश्वास की कमी आत्महत्या का एक बड़ा कारण है। मैं भी इस दौर से गुजरी हूं। दिमाग को बिजी रखना बहुत जरूरी है।

सबसे पहले तो वो बातें, जो आपको व्यथित कर रही हैं वह लिखिए, खुद पढ़िए और फाड़ दीजिए। जब लिखकर खुद को अभिव्यक्त करने लगेंगे, तो धीरे-धीरे तनाव मुक्त होते जाएंगे। आत्मविश्वास बढ़ेगा और अपनी ताकत को पहचानने का अवसर भी मिलेगा।

मैंने मुंबई के श्रीनिवास बगड़का कॉलेज की एजुकेशन डायरेक्टर डॉ. वनश्री वालेचा के साथ मिलकर 2017 से ‘हैप्पीनेस क्लासेज’ की शुरुआत की। ‘हैप्पीनेस क्लासेज’ से युवाओं में अभूतपूर्व बदलाव देखने को मिले हैं।

हैप्पीनेस क्लासेज से मैंने ये जाना कि जो बच्चा ज्यादा उद्दंड होता है, वह कहीं न कहीं भीतर से डिस्टर्ब होता है। मुझे लगता है कि जीवन ही सबसे बड़ा गुरु है, जहां हम खुद सीखकर ही दूसरों को रास्ता बता सकते हैं। मैं अपने जीवन के उन सभी संघर्षों का धन्यवाद देना चाहूंगी, जिनकी वजह से आज मैं सफल हो पाई।

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