16 घंटे पहलेलेखक: मरजिया जाफर

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कुदरत की बनाई एक ऐसी शख्सियत जिसके दिल में प्यार, दया, ममता और वफादारी कूट-कूट का भरी है, लेकिन जिंदगी के हर मोड़ पर बार-बार उसे अपनी वफादारी की गवाही देनी पड़ती है। कभी रिश्तों को लेकर तो कभी किरदार को लेकर, कभी एहसास को लेकर तो कभी विश्वास को लेकर। लेकिन अब जमाना बदल रहा है। अब महिलाएं पुरुषों को अहमियत और सफाई दे दे कर थक चुकी हैं। दैनिक भास्कर की ये मैं हूं सीरीज में वूमंन्स डे पर पायल लेसी के किरदार की ये स्पेशल कहानी इस सच से रू-ब-रू कराती है। आइए जानते हैं पायल और उनके वफादार दोस्त लेसी की कहानी उन्हीं के शब्दों में।

नमस्कार दोस्तों…..

सबसे पहले तो आप सभी वो महिला दिवस की बधाई। अपनी कहानी कहने से पहले मैं सभी को एक राय देना चाहूंगी कि हमेशा अपने लिए एक वफादार दोस्त जरूर चुने, जो आपसे बिना किसी उम्मीद के हर कदम पर साथ खड़ा दिखे। ये वफादार दोस्त आप कैसे चुनेंगे मेरी कहानी जानकर आपको इसका रास्ता खुद-ब-खुद मिल जाएगा।

मैं पायल फ्रांसिस से पायल लेसी बन कैसे बनी

मेरा नाम पायल फ्रांसिस था, लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि मैंने अपने पिता का सरनेम अपने नाम से हटाकर अपने वफादार दोस्त का नाम अपने नाम के साथ जोड़ लिया, जो मुझे बहुत सुकूंन देता है। अब मैं पायल लेसी बन गई हूं। तो आगे की कहानी में मिलिए मेरी वफादार जान से प्यारी दोस्त लेसी से जो कोई इंसान नहीं बल्कि एक फीमेल डॉग है। आप सोच रहे होंगे की आखिर मुझे लेसी से इतना लगाव क्यों? तो यहां से शुरू होती है मेरी और लेसी की यारी की कहानी।

होश संभालते ही घर में डॉग्स देखे

मेरा बचपन इंदौर में गुजरा। परवरिश, पढ़ाई, नौकरी और सोशल वर्क सब कुछ मैंने वहीं रहकर किया। शादी के बाद मैं बांसवाड़ा राजस्थान आ गई, लेकिन इंदौर महीने में 2-3 चक्कर लगाती रहती हूं, क्योंकि वहां मेरा सब कुछ है। मेरे परेंट्स, मेरे वफादार दोस्त मेरे डॉग्स भी, जो मेरे साथ पिछले 24 सालों से रह रहे हैं। मैंने होश संभालते ही अपने घर में डॉग्स देखे। क्योंकि मेरे पेरेंट्स भी एनिमल लवर हैं। इंसानों से ज्यादा मेरे घर में डॉग्स हैं। जो मेरे लिए फैमिली मेंबर की तरह हैं।

लेसी का अंतिम संस्कार करके अस्थियां त्रिवेणी घाट में विसर्जित की

मेरी पहली दोस्त डॉबरमैन क्रॉस थी। जिसे मैं प्यार से लेसी बुलाती थी। लेसी से मैं आज भी बहुत प्यार करती हूं। हांलाकि अब वो इस दुनिया में नहीं है। 13 साल की उम्र में वो हमें छोड़कर चली गई। मैंने पूरे विधि विधान के साथ लेसी का अंतिम संस्कार किया। शमशान वालों ने हमें मना कर दिया था कि हम कुत्ते का दाह संस्कार नहीं करेंगे। लेकिन मैंने लेसी का दाह संस्कार अपने हाथों से करके उनकी अस्थियां त्रिवेणी घाट पर विसर्जित की हैं।

लेसी की याद में मां मौत की कगार पर आ गईं

लेसी के जाने के बाद मैं और मां इतना टूट गए कि हम दोनों का हीमोग्लोबिन कम हो गया। मेरी मम्मी तो मौत के मुंह तक पहुंच गईं। डॉक्टर ने कहा इनकी गोद में एक डॉग का बच्चा लाकर दो शायद इनकी तबीयत में सुधार हो जाए। डॉक्टर के कहने पर पापा मां के लिए लैब्राडोर लेकर आए और उसका नाम भी हमने लेसी-सेकेंड रखा। लेसी सेकेंड आने के बाद घर का माहौल और मां की तबीयत धीरे धीरे सही होने लगी। लेसी-1 के जाने के बाद मैंने भी मन को बहलाने और लेसी की याद में आसपास के अवारा कुत्तों की सेवा करना शुरू कर दिया। मैं सड़क पर फिर रहे कुत्तों के लिए टोस्ट, टमाटर गाड़ी में भरकर ले जाती और उन्हें खिलाती।

तीन और डॉग्स अलग अलग जगहों से छुड़ा कर अपने घर लाई। जिसमें से एक फीमेल डॉग प्रेंग्नेट थी उसे भी मैंने घर पर लाकर रखा । उसके 5 बच्चे हुए जिनमें 4 मेल और एक फीमेल था। फीमेल डॉग का पैर टूट गया तो हमने उसे भी पाल लिया। उसने भी तीन बच्चों को जन्म दिया। दो मेल और एक फीमेल। मेल डॉग को तो लोग ले लेते है लेकिन फीमेल डॉग को कोई नहीं रखता। ऐसा कर करके मेरे घर में चार फीमेल डॉग हो गए। हमारा दिल भी बहल गया।

लेसी को जिंदा रखने के लिए उसका सरनेम लगा लिया

लेसी सरनेम लगाने के पीछे की वजह यह है कि दुनियाभर में सरनेम ही जाति की पहचान है। आप किस जाति से है ये बात सरनेम से ही पता चलती है। ये समाज के बनाए नियम हैं। जिसे हर धर्म और हर जाति के लोग आंख बंद करके चलते हैं। लेकिन मैं जाति जैसी किसी भी चीज को नहीं मानती। मुझे लगता था मेरी लेसी ही मेरी सब कुछ है। मेरा आज मेरा कल सब कुछ लेसी के इर्द-गिर्द घूमता था। इसलिए सरनेम में लेसी लगा लिया।

लेसी के साथ एक अलग कनेक्शन था

लेसी मेरे दिल के बहुत ज्यादा करीब थी। वो मेरे साथ सोती, मेरे साथ जगती, मेरे साथ ही बैठकर उसका खाना पीना होता। हद तो ये थी कि मैं ऑफिस जाने के लिए जल्दी उठती तो वो भी मेरे साथ जल्दी उठ जाती। छुट्टी के दिन में 2 बजे तक सोती तो वो भी मेरे साथ सोया करती। मेरा और उसका ऐसा कनेक्शन था कि अगर कभी मैं बीमार पड़ गई तो वो भी बीमार पड़ जाती थी। मेरे पेट में दर्द होता तो उसे भी पेट में दर्द शुरू हो जाता। कुत्ते अपना पेट दर्द ठीक करने के लिए घास खाते हैं। उसे पता था कि अगर वो घास खाएगी तो ठीक हो जाएगी लेकिन जानबूझ कर वो घास नहीं खाती थी, जब तक मैं सेहतमंद न हो जाउं। रात को जब मैं वॉशरूम के लिए उठती तो वो भी उठ जाती। मुझे ढूढ़ने लगती और वो बाथरूम के दरवाजे पर आकर बैठ जाती।

लेसी की वजह से मैंने अपनी इंगेजमेंट भी तोड़ी

जब तक मेरी जिंदगी में लेसी थी मुझे लगता था कि मैं कभी शादी नहीं करूंगी। लेसी की वजह से मेरी एक इंगेजमेंट भी टूटी थी। लेकिन इत्तेफाक देखिए लेसी के जाने के एक महीने बाद ही मेरी मुलाकात मेरे पति से हुई। ये इत्तेफाक ही था। लेसी में इतनी ताकत थी कि वो मेरे दूसरे डॉगी को भी अपने साथ ले गई। उन दोनों को पता था कि जब तक हम दोनों जिंदा रहेंगे ये शादी नहीं करने वाली। उन दोनों के जाने के बाद ही मैंने शादी की। मेरे पति को मेरे डॉग लव पर कोई एतराज नहीं है। बल्कि वो मुझे सपोर्ट करते हैं। मैंने सोचा है कि मैं डॉक्स के लिए एक एनजीओ बनाउंगी। जिस पर मैं काम भी कर रही हूं।

हर साल मनाती हूं लेसी की बरसी

आज भी हम लेसी की बरसी मनाते हैं। मेरे घर में लेसी और उसके साथी जो अब इस दुनिया में नहीं है उनकी फोटो लगी है। मम्मी रोजाना सुबह शाम डॉग्स की तस्वीरों के सामने दूध और मिठाई परोसती हैं। मैंने कभी भी लेसी की फोटो पर माला नहीं चढ़ाई, ना ही उसे कभी ‘रेस्ट इन पीस’ कहा। मेरे मानना है की जो लोग दुनिया छोड़कर जाते हैं उनके लिए ये किया जाता है। मैंने अपनी लेसी को अपने आस-पास, अपने जेहन में जिंदा रखा है, जिसे मैं महसूस भी करती हूं।

लेसी मेरे और मेरे परिवार के दिल में आज भी जिंदा है।

लेसी मेरे और मेरे परिवार के दिल में आज भी जिंदा है।

सपने में आती है लेसी

मेरे मोबाइल के वॉलपेपर पर लेसी की फोटो हैै। मैं रोज सोने से पहले लेसी की फोटो देखकर उसे याद करके सोती हूं। जागने के बाद सबसे पहले उसी की फोटो देखती हूं। मुझे आज भी यकीन है मेरी लेसी एक दिन मेरे पास जरूर वापस आएगी। जब मेरी तबीयत खराब होती है तो वो मेरे सपने में आती है। एक दिन मैंने देखा कि वो मेरे गोद में बैठकर मिठाई खा रही है। जिस दिन मैं लेसी को सपने में देखती हूं मेरे आंसू थमने का नाम नहीं लेते बहुत रोती हूं।

पापा रोजाना इंदौर से 20 कि.मी कुत्तों को खाना खिलाने जाते हैं

मेरे पापा घर में रोजाना अपने हाथों से 10 किलो चावल पकाते हैं। जिसमें पैडी क्रीम दूध मिलाकर इंदौर से 20 किलोमीटर बाईपास के पास रहने वाले कुत्तों को खाना खिलाते हैं। इस काम की शुरुआत पापा ने कोरोना के समय में की थी। ये जान कर हैरानी होगी तब से लेकर अब तक, हर मौसम में गर्मी, सर्दी, बरसात, कोई भी दिन ऐसा नहीं गुजरा जब 20 किलोमीटर जाकर पापा ने इन डॉग्स को खाना ना खिलाया हो। बाईपास पर गाड़ियों का आना-जाना ज्यादा होता है, रेहाइशी एरिया न होने की वजह से वहां जानवर भूखे रह जाते हैं। इस काम को करने के लिए हम किसी भी संस्था या सरकार से कोई मदद नहीं लेते जो भी हमारे पास है उसी से कुत्तों का रोज खाना खिलाते हैं।

सुअर को बचाने के लिए मेरी हाथापाई हुई

मुझे सिर्फ कुत्तों से ही नहीं सभी जानवरों से प्यार है। एक बार का किस्सा है कि इंदौर को साफ सफाई के चक्कर में सुअर मुक्त किया जा रहा था। मैंने ऑफिस जाते वक्त देखा कि एक सुअर को जबरदस्ती पकड़कर ले जा रहे हैं। मैं गाड़ी रोककर वहां गई और सुअर को बचाने के लिए उन लोगों से मेरी हाथापाई तक हो गई। दूसरे दिन ये खबर अखबारों की सुर्खियां भी बनीं।

मैं जानवरों की फीलिंग को महसूस करती हूं

मैं एक लेखक भी हूं, पायल लेसी नाम से ही लिखती हूं। मैंने कई ओटीटी पर रिलीज होने वाली सीरीज के रिव्यू भी लिखे हैं। 2012 में मैं एक इवेंट में गई। उस इवेंट में 18 देशों के धर्म गुरू आए और उन्होंने अपने-अपने धर्मों की अच्छी बातें बताईं। मैं भी उस प्रोग्राम का हिस्सा बनी। मुझे लोगों से मिलना जुलना बहुत पसंद है। वहां मेरी मुलाकात हिदायतउल्ला खान साहब से हुई, जो पेशे से एक जर्नलिस्ट हैं। मैंने उनके सपोर्ट से ही लिखना शुरू किया। मेरी मां भी कई मैग्जीन में कहानियां लिखती है। घरेलू टिप्स बताती हैं। मैंने वाइल्ड लाइफ पर भी आर्टिकल लिखे हैं। वाइल्ड लाइफ मेरा फेवरेट सब्जेक्ट है, जो मेरे दिल के करीब है। मैं जानवरों की फीलिंग को महसूस कर सकती हूं।

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