नई दिल्ली2 घंटे पहलेलेखक: कमला बडोनी

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छोटी सी उम्र में भूख और गरीबी के बीच छोटी बहन को आंखों के सामने मरते देखा। पैसे कमाने के प्रेशर में पढ़ाई छोड़ी। घर छोड़कर भागना पड़ा। मार इतनी खाई कि उल्टी और दस्त होने लगे। गरीबी ने 22 साल बड़े पुरुष और दो जवान बच्चों के बाप की दूसरी पत्नी बनाया।

खुद मां बनने से छह दिन पहले सास चल बसीं। मेरे बेटे की जन्म की खुशी नहीं मनाई गई। एक्टिंग को करियर के रूप में चुना तो पति के ताने सुने। लेकिन अपनी राह पर डटी रहीं, क्योंकि मैं जानती थी सफर मुश्किल जरूर है, लेकिन नामुमकिन नहीं। ‘ये मैं हूं’ में जानिए मुझ बागी वसुंधरा नेगी की कहानी…

घर की बड़ी बेटी जल्दी बड़ी हो जाती है

मेरा जन्म उत्तराखंड के पौड़ी गढ़वाल में हुआ। मैंने बचपन में बहुत गरीबी देखी। शुरुआती पढ़ाई गांव में ही हुई। हम तीन बहनें और एक भाई हैं। मैं सबसे बड़ी हूं। घर की बड़ी बेटी होना वो जिम्मेदारी है जो आपके बाद के भाई या बहन के पैदा होते ही शुरू हो जाती है। आप चाहे अपने छोटे भाई-बहन से एक साल बड़े ही क्यों हों, आपसे तब भी बात बात पर कहा जाता है कि ‘तुम बड़ी हो, तुम्हें ये काम नहीं करना है’।

तीन बहनों के बाद एक भाई का होना क्या होता है ये बताने की जरूरत नहीं है। माता-पिता का सारा प्यार बेटे तक सिमट गया और हम घर में खो गए। मां सुबह घास काटने चली जाती और तीन छोटे भाई-बहनों की जिम्मेदारी मुझ पर होती। जरा सी भी गलती होने पर खूब डांट पड़ती। भाई को अगर जरा सी भी चोट लग जाए तो मेरी शामत आ जाती।

गरीबी से बहन को मरते देखा

एक बार गांव में जब मेरी छोटी बहन बसु बीमार हुई तो मां ने मुझे पापा को चिट्ठी लिखने को कहा। मां ने चिट्ठी में लिखवाया कि बसु की तबीयत खराब है, आप कुछ पैसे भेजिए।

कुछ दिनों बाद पैसे तो नहीं आए, लेकिन पिताजी की चिट्ठी आई, जिसमें लिखा था- ‘मर जाने दो उसे, तीन बेटियां हैं हमारी, एक मर भी गई तो कोई बात नहीं।’

पापा ने पैसे नहीं भेजे तो मां ने भी उसकी बेकद्री करनी शुरू कर दी। वो घर के एक कोने में बैठी ‘मां-मां’ करती रहती, लेकिन मां उसके पास न जाती। कुछ ही महीनों में उसकी मृत्यु हो गई। वो सिर्फ छह साल में हमें छोड़कर चली गई। उसके बाद हम शहर आ गए।

शहर में लंबा संघर्ष इंतजार कर रहा था

मुझे लगता है जब तक हम गांव में थे तब तक संपन्न थे। अपने उगाये हुए अनाज से जीवन अच्छी तरह चल रहा था। मुश्किलें तब शुरू हुईं जब मां ने शहर जाने की जिद की। पापा हरियाणा में एक बड़ी कंपनी में काम करते थे। मां ने जिद पकड़ ली कि मुझे भी दिल्ली जाना है। मां ने चाचा से कहा कि मुझे दिल्ली छोड़ दो। चाचा हमें बस में बिठाकर दिल्ली ले आ गए। वहां फरीदाबाद में सराय नाम की एक जगह में पापा एक कमरे में मकान में किराए में रहते थे।

दिल्ली की स्थिति देखकर मां घबरा गई, लेकिन शर्म के मारे वह वापस गांव नहीं जाना चाहती थी। दिल्ली में मां ने घरों में काम करना शुरू कर दिया। हम दोनों बहनों की पढ़ाई सरकारी स्कूल में होने लगी। हमारी फीस सिर्फ एक रुपए थी, लेकिन वो भी पापा की जेब से नहीं निकलती। सिर्फ भाई को अच्छे प्राइवेट स्कूल में पढ़ाया जा रहा था। हमें वहां बिल्कुल भी अच्छा नहीं लगता था। हम गांव के खुले माहौल में पले-बढ़े और यहां हमें एक कमरे के मकान में बंद कर दिया गया था।

वसुंधरा नेगी उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत से अवॉर्ड लेते हुए

वसुंधरा नेगी उत्तराखंड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत से अवॉर्ड लेते हुए

माता-पिता के झगड़े होने लगे

मां ने काम करना क्या शुरू किया तो पापा जैसे निकम्मे हो गए। पापा ने काम करना बंद कर दिया। वो घर में ही पड़े रहते थे जिससे उनके बीच झगड़े होते। जब हम स्कूल से घर आते तो घर का सारा सामान बिखरा पड़ा होता। उसे समेटकर हम घर के काम शुरू करते।

संगीत सीखने पर पिटाई होती

मेरा रुझान कला और संगीत में था, लेकिन पापा को ये सब बिल्कुल पसंद नहीं था। मेरे दादाजी, ताऊजी सब आर्मी में थे, लेकिन मेरे पिताजी उन सबसे अलग थे। पापा काम करना ही नहीं चाहते थे।

मैं अपने गुरुजी से संगीत सीखने मंदिर जाती तो पापा मुझे बुरी तरह पीटते। उन्होंने साफ मना कर दिया कि हमारे घर में नाच-गाना नहीं हो सकता। वो मुझे अपनी बेटी तक नहीं मानते।

छोटी उम्र से काम करना पड़ा

मैं घर के कामों में मां का हाथ बंटाने के अलावा पैसे कमाने के लिए काम भी करती। मां घर में कपड़े लाती और मैं उनमें बटन टांकती, जिसके लिए कम पैसे मिलते, लेकिन हमारे पास इसके अलावा और कोई चारा नहीं था। इन सबके चलते मैं डिस्टर्ब रहने लगी और आठवीं क्लास में फेल हो गई।

मां ने कहा कि अब हम तुम्हें आगे नहीं पढ़ा सकते। भाई और बहन की पढ़ाई जारी रही। उस समय मेरी उम्र 15 साल थी। मां ने कहा कि अब तुम काम करना शुरू कर दो। मैंने मां से कहा कि अभी मैं 18 साल की नहीं हुई हूं, मैं काम कैसे कर सकती हूं। मां ने मेरी नहीं सुनी और मुझे वहां ले गई जहां मां काम करती थीं। मां ने उन्हें मेरी उम्र झूठ बताई।

मैंने अपने लिए ऐसी जिंदगी नहीं सोची थी। वहां कुछ लोग मुझे बुरी नजर से देखते जो मैं बर्दाश्त नहीं कर पाती। मैं दिनभर वहां कपड़ों पर बटन टांकती, लेकिन मेरे मन में एक ही बात चलती कि मुझे यहां से बाहर जाना है, मुझे ऐसी जिंदगी नहीं जीनी।

वसुंधरा नेगी गांव की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म की शूटिंग करते हुए

वसुंधरा नेगी गांव की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्म की शूटिंग करते हुए

मैं घर छोड़कर भाग गई

मैंने अपनी कमाई से जो थोड़े-बहुत पैसे जोड़े थे उनसे टिकट लेकर मैं ग्वालियर पहुंच गई। मेरे साथ पढ़ने वाली एक फ्रेंड ग्वालियर चली गई थी। बिना कुछ सोचे समझे मैं घर से निकल गई। मेरे पास न उसके घर का पता था और न ही फोन नंबर। वहां भटक कर जब कुछ नहीं सूझा तो मैं घर वापस आ गई। पापा ने मुझे इतना मारा कि मैं जैसे अधमरी हो गई।

22 साल बड़े पुरुष से हुई शादी

मैं 18 साल की हुई ही थी कि मेरी जिंदगी में एक और भूचाल आ गया। मेरी एक कजिन दीदी का देहांत हो गया। उनके दो बच्चे थे। उनके पति की सरकारी नौकरी थी। उनके पति से मेरी शादी करा दी गई। 18 साल की उम्र में मैं अपने से 22 साल बड़े पुरुष की दूसरी बीवी बन गई। लगभग अपनी उम्र के एक लड़के और एक लड़की की मां बन गई। उनके पास एक बेडरूम का घर था इसलिए मेरे माता-पिता खुश हो गए कि हमारी बेटी का अपना घर होगा।

मुझे लगा जैसे सबकुछ खत्म हो गया। अब मेरे पास भागने के लिए भी कोई जगह नहीं थी। मैंने इसे ही अपनी जिंदगी मान लिया। मैंने पति और दोनों बच्चों की देखभाल में खुद को बिजी कर दिया।

मैंने आत्महत्या की कोशिश की

शुरुआती पांच साल तो खुद को और घर को संभालने में बीत गए, लेकिन फिर मेरे अंदर खालीपन पसरने लगा। पति नहीं चाहते थे कि मैं कभी मां बनूं। उन्हें तो अपने बच्चों के लिए मां चाहिए थी। धीरे-धीरे दोनों बच्चे भी अपनी पढ़ाई और दोस्तों में बिजी हो गए। फिर तो मैं जैसे बुझती चली गई। मुझमें जीने की कोई इच्छा नहीं बची। एक दिन मैं इतनी डिप्रेस्ड हो गई कि मैंने नींद की 20 गोलियां खाकर आत्महत्या करने की कोशिश की। लेकिन मौत को भी शायद मुझसे मिलना मंजूर नहीं था, मुझे बचा लिया गया।

वसुंधरा नेगी नाटक में अभिनय करते हुए

वसुंधरा नेगी नाटक में अभिनय करते हुए

पति घर से बाहर नहीं जाने देते

पति ने मुझे कभी किसी चीज की कमी नहीं होने दी, लेकिन मेरे घर से बाहर निकलने से उन्हें आपत्ति थी। मैं बच्चों के स्कूल प्रोजेक्ट के लिए कविताएँ लिखती तो टीचर मेरी तारीफ करतीं कि तुम अच्छा लिखती हो। पति को ये सब अच्छा नहीं लगता था। वो मेरे लिए कविताओं की किताबें लाते और कहते- ‘इन्हें पढ़ो, कविताएँ लिखने की क्या जरूरत है।’ मैं पेंटिंग करती तो पति उसके लिए भी मना कर देते थे। कहते- ‘तुम क्यों बना रही हो पेंटिंग, हम खरीदकर ले आएंगे।’

सहेली ने दी मां बनने की सलाह

एक बार मेरी एक सहेली रेणु शर्मा घर आईं। उनका जिक्र मैंने अपने प्ले ‘हाफ वुमन’ में किया है। घर में मेरी बनाई पेंटिंग देखकर उन्होंने कहा, इन पेंटिंग्स में रंग नहीं हैं। मेरे लेखों, कविताओं और पेंटिंग्स में रंग इसलिए नहीं थे, क्योंकि मेरे जीवन में रंग नहीं थे। लेखक या पेंटर रचनाओं के माध्यम से अपने मन के भाव दर्शाता है।

जब उन्होंने मुझे टटोला तो मैं उनके सामने फूट पड़ी। मैंने सहेली से कहा कि मैं ऐसी जिंदगी नहीं जीना चाहती। तब उन्होंने कहा- या तो इस आदमी को छोड़ दो या इससे अपने बच्चे को जन्म दो। मैंने अपना बच्चा प्लान करने का मन बना लिया।

बेटे के जन्म से छह दिन पहले मेरी सास का देहांत हो गया, घर में मातम का माहौल था। मुझे प्रसव का दर्द शुरू हुआ तो पति मुझे हॉस्पिटल तक नहीं ले गए। मेरे बेटे के जन्म पर घर में खुशी तक नहीं मनाई गई।

एक्टिंग के लिए ताने सुने

मैंने घर के पास ही एक्टिंग सीखनी शुरू की। नुक्कड़-नाटक के साथ साथ प्लेज में भी काम करने लगी। पति को ये सब पसंद नहीं था। वो मुझे भला-बुरा कहते, लेकिन मैं अब समझ चुकी थी कि बिना काम किए जीना मुश्किल हो जाएगा।

पति को दमा की तकलीफ थी। धीरे धीरे उनके दोनों फेफड़े खराब हो गए। मैंने उनकी सेवा में कोई कमी नहीं रखी, लेकिन अपने पैशन पर भी काम करना जारी रखा। अब तो पति का साथ भी छूट गया है।

बेटे को गांव में पढ़ाया

जब मेरा बेटा पांच साल का हुआ तो पति की पहली पत्नी के दोनों बच्चे काफी बड़े हो चुके थे। बेटा जॉब भी करने लगा था। मैं थिएटर के काम से बाहर जाती तो मेरे बेटे का ध्यान कोई न रखता। पति बेड पर थे, दोनों बड़े बच्चे अपनी दुनिया में बिजी थे। फिर मैं बेटे को अपने साथ उत्तराखंड ले गई। वहां बेटे की पढ़ाई के साथ-साथ मेरा एक्टिंग का काम भी जारी रहा।

फिल्मों में काम मिलने लगा

देहरादून में आरिफ जकारिया की फिल्म ‘पिंटी का साबुन’ के लिए ऑडिशन हो रहा था। मैंने भी ऑडिशन दिया और मैं सलेक्ट हो गई। यह मेरे लिए पहला बड़ा मौका था। मुझे शबाना आजमी और जूही चावला की फिल्म ‘चॉक एंड डस्टर’ में टीचर का रोल मिला।

मेरे नाटक द हाफ वुमन, टिंचरी माई, तीलू रौतेली, ढोल के बोल, पेट को गुस्सा क्यों आया, 16 दुनी 8, शून्य, दोस्ती की हद आदि काफी लोकप्रिय रहे हैं। मैंने अपनी लिखी हुई फिल्म ‘लाजो’ और ‘एक कत्ल जो जरूरी था’ में अभिनय भी किया। मेरे पास साउथ की फिल्मों के ऑफर हैं, जिन पर मैं काम कर रही हूं।

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