नई दिल्ली3 घंटे पहलेलेखक: मरजिया जाफर

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सड़क पर चलते गाड़ियों में लगे आईने पर भी निगाह पड़ गई तो हाथ सीधा बालों पर चला जाता है। यह इंसानी फितरत का हिस्सा है। ज्यादा जल्दी में हों तो एक बार पीछे पलट कर आईने में खुद को निहारते जरूर हैं।

जरा आईने के बिना जिंदगी की कल्पना करके देखिए। आईना न होता तो क्या होता, सुंदर कपड़े, मेकअप, श्रृंगार बेईमानी से लगते। इंसान खुद के अक्स को निहार कर खुश न होता, तो सजने सवंरे का क्या फायदा। खुद अपना अक्स आईने में उतरता देख लोग खुद को ठीक करने लगते हैं। खास कर महिलाओं को इसकी सबसे ज्यादा जरूरत पड़ती है। महिलाओं के तो पर्स में भी छोटा सा आईना रहता है।

आज ‘फुरसत का रविवार’ है। छुट्‌टी में तैयार होकर कहीं घूमने जाने का प्लान होगा। तैयार होकर आईने के सामने खड़े होकर खुद के अक्स को निहारेंगे भी, क्योंकि आईना इंसान का सच्चा साथी है। वो खामी और खूबी दोनों को बखूबी दिखाता है।

लेकिन क्या कभी सोचा है कि ये आईना बना कैसे और किसने इसका आविष्कार किया और वो कौन शख्स था जिसने पहली बार आईने में खुद की शक्लो-सूरत देखी होगी। इन्हीं सवाल के जवाब ढ़ूढ़ने के लिए इतिहास के खस्ताहाल पन्नों से आईने के इजाद की कहानी ढूढ़ते हैं…

जब लोगों ने देखा खुद का अक्स…

आईने का आविष्कार 1835 में जर्मन रसायन विज्ञानी जस्टस वॉन लिबिग ने किया। उन्होंने कांच के एक फलक की सतह पर मैटेलिक सिल्वर की पतली परत लगाकर आईने को इजाद किया। आईने के इजाद होने से पहले लोग अपनी शक्ल पानी में देखा करते थे। लेकिन ये काम लोग दिन में यानी सूरज की रोशनी में ही कर सकते थे।

सदियों पहले ऐसा दिखता था दर्पण

शुरुआत में ओब्सीडियन से बने पॉलिश किए आईने बहुत दुर्लभ थे। इस तरह के शीशे 8,000 साल पहले तुर्की में इस्तेमाल किए गए।

इसे तुर्की के लोग एनाटोलिया कहते थे। प्राचीन मेक्सिको के लोग भी इसी तरह के शीशे का इस्तेमाल करते थे। ये वो दौर था जब आईने आम नहीं, बल्कि बेहद खास और गरीबों की पहुंच के बाहर था। इसे जादुई उपकरण माना जाता। मान्यता थी कि आईने में देवताओं और पूर्वजों का अक्स देखा जा सकता है।

तांबे और पत्थर का आईना

4000 से 3000 ईसा पूर्व मेसोपोटामिया, जिसे अब इराक के नाम से जाना जाता है और मिस्र में तांबे को पॉलिश करके बनाए गए शीशे का इस्तेमाल होता था। वहीं इसके करीब 1,000 साल बाद दक्षिण अमेरिका में पॉलिश किए गए पत्थर से कांच बनाए जाने लगे।

वहीं, पहली शताब्दी ईस्वी में रोमन लेखक प्लिनी द एल्डर द्वारा कांच के आईनों का ज़िक्र किया। हालांकि ये शीशा मौजूदा शीशों से बिल्कुल अलग था। ये धूंधले और छोटे आकार के देखते थे।

1835 में दुनिया के सामने साफ चेहरा दिखाने वाले आईने आए। इनमें दिखने वाली छवि पहले वाले आइनों से बेहतर थी। इसका चलन 1935 में तब शुरू जब जब हाइड्रो के साथ दर्पण लेकर पापुआ न्यू गिनी की खोज करने निकले। उन्होंने दर्पण को उन वस्तुओं में जगह दी थी जिनका वह व्यापार करने वाले थे।

सबसे पहले किसने देखा आईना

माना जाता है कि तेबिली नाम के एक शख्स ने पहली बार आईने में खुद का अक्स देखा। इसके बाद कबीले के सरदार पुया ने शीशे में खुद को देखा और ये अद्भुत नजारा देख चौंककर उछल पड़ा। उसने तेबिली को आईना पकड़ने को कहा और अलग-अलग एंगल से, पास और दूर से अपना प्रतिबिंब देखा।

कन्नडी आईने से है खास पहचान

धरोहरों से जुड़ी गलियों से रोजाना गुजरना बहुत रोमांचित होगा, और अराणमुला ऐसी ही जगह है। यूं तो अराणमुला की पहचान के लिए बहुत से किस्से हैं लेकिन यहां की सबसे खास पहचान है ‘अराणमुला कन्नाडी’ यानी दर्पण। यह दर्पण इस जगह को दुनियाभर में एक खास पहचान देता है।

इसकी दुनियाभर में पहचान है। ‘अराणमुला कन्नाडी’ यानी दर्पण देश के उन खास उत्पादों में से है जिसे जीआई टैग मिला है। इसका मतलब अराणमुला कन्नाडी पर किसी और स्थल के लोगों का दावा नहीं हो सकता।

इस आईने की खास बात यह है कि कन्नाडी शीशे के बजाय धातु से बनाए जाते हैं और इसके बनने की प्रक्रिया पीढ़ियों से चले आ रही परंपरा का हिस्सा है। यह कला एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को विरासत में मिलती है। इसे बनाने वाले कुछ ही परिवार बचे हुए हैं और उन्हीं के जरिए से देश विदेश के कला और शिल्प की पहुंच होती है।

अराणमुला के दर्पणों की खासियत का एक और वजह है। जहां शीशे के दर्पण में अक्सर उसकी भीतरी सतह पर किए गए पारे के लेप के कारण बनता है वहीं धातु के इन आईनों में छवि मुख्य सतह पर ही बन जाती है।

शीशे वाले दर्पण की भीतरी सतह की गहराई में अंतर होने से छवि में अंतर आ जाता है। केरल की आर्ट एंड क्राफ्ट आर्टिस्ट लक्ष्मी मेनन कहती हैं कि हम सबने यह अनुभव किया होगा कि शीशे के अलग-अलग दर्पणों में अलग-अलग छवि बनती है। ऐसा अराणमुला कन्नाडी आईने में नहीं होता, इसकी इसी खूबी की वजह से देश-विदेश में इनकी काफी मांग होती है।

द्रविड़ शैली के मंदिरों की नक्काशियों को देखकर दंग रह जाएंगे

लक्ष्मी कहती हैं कि अराणमुला कन्नाडी का जिक्र आते ही इन्हें बनाने वालों के जरिए द्रविड़ शैली के मंदिर बनाने वालों के इतिहास जानने का मौका मिलता है। इन दर्पणों को बनाने वालों के पूर्वज मंदिर और वास्तुकला के माहिर थे। तमिलनाडु के तिरुनलवेली में एक ऐसी जगह है शंकरनकोविल। वहां पाण्ड्य वंश के शासनकाल में वास्तु शिल्पकारों की एक बड़ी आबादी है।

जिन द्रविड़ शैली के मंदिरों की नक्काशियों को देखकर लोग दंग रह जाते हैं, ये सब उन्हीं शिल्पियों की देन है। उनकी प्रसिद्धि समूचे दक्षिण भारत में फैल गई और त्रावणकोर के राजा ने विश्वकर्मा समुदाय को केरल में द्रविड़ शैली का मंदिर बनाने के लिए आमंत्रित किया।

इनमें से तिरुअनंतपुरम का पद्मनाभ स्वामी मंदिर, अराणमुला का पार्थसारथी मंदिर, चेंगन्नूर का महादेव मंदिर और हरिपाद का श्री मुरुगन मंदिर आज भी अपनी शान के साथ खड़े हैं। इन शिल्पियों को तमिल विश्वकर्मा के नाम से जाना जाता है। इनके अपने मंदिर और देवी मस्तम्मा हैं जो पार्वती का एक रूप मानी जाती हैं।

कब और कैसे?

अराणमुला जाना केरल में किसी भी अन्य स्थान की यात्रा करने के समान ही आसान है। नजदीकी रेलवे स्टेशन चेंगन्नूर है और हवाई अड्डा तिरुवनंतपुरम! इन सभी जगहों से यहां आने के लिए टैक्सी और बस की सुविधा आसानी से उपलब्ध है। यहां मानसून के समय आएं या बाद में, मौसम सही रहता है।

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