नई दिल्ली1 घंटे पहलेलेखक: मरजिया जाफर

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‘गरीब की थाली में पुलाव आ गया है। लगता है शहर में चुनाव आ गया है’।

ये बातें किसी शायर ने यूं ही नहीं कही बल्कि ये वक्त की असली तस्वीर है। देश में चुनावी दौर जारी है। मछली, मटन और मुगल की राजनीति के साथ ही साथ जुमलेबाजी और एक दूसरे पर छींटाकशी दबाकर हो रही है। चुनावी रण में मौजूद दिग्गज दमखम लगा रहे हैं।

राजनीतिक दल अपने वोटर को बहलाने फुसलाने में लगे हैं, इसलिए पार्टी और नेता एक दूसरे पर छींटाकशी करने से भी परहेज नहीं करते। इन सबके झांसे में भोली भाली जनता फंस जाती है, खासकर महिला वोटर।

रेवड़ियों का भी एक मौसम होता है। रेवड़ियां यूं तो सर्दियों में खाई जाती हैं। लेकिन बेमौसमी चुनावी रेवड़ियां कभी भी, कही भी धड़ल्ले से बांटी जा सकती हैं। आज ‘फुरसत का रविवार’ है। इंद्रदेव मौसम को ठंडा-ठंडा कूल-कूल बनाने में लगे हैं लेकिन चुनाव की सरगर्मियों का ताप भी महसूस हो रहा है।

सोचने की बात ये है कि इसका चुनावी सरगर्मियों का सेक महिलाओं को कितना लग रहा है। रेवड़ियों किसी के भी खजाने से भी आएं पर मिठास का बोझ घर की रसोई को ही उठाना पड़ता है। आज फुरसत में चुनावी रेवड़ियों की कहानी कहते हैं।

महिला वोटर पर राजनीतिक दलों की नजर

सभी राजनीतिक दलों की नजर अब महिला वोटर्स से हटने का नाम नहीं लेती। वजह ये है कि पुराने जमाने में घर का मुखिया जिस नेता के झांसे में आ जाता पूरा परिवार उसी को वोट देने निकलता था। बदलते दौर और चुनावी मंसूबे ने वोटर बढ़ाने की कमान परिवार की महिला सदस्य के हाथों में थमा दी है। मकसद सब्जबाग दिखाकर देकर वोट पाना है।

सवाल उठता है महिलाओं को क्या बातें लुभाती हैं। महिलाएं हमेशा घर की आर्थिक व्यवस्था को संभालकर चलती हैं, दिल से सोचती हैं, तो इनके दिल-दिमाग पर मुफ्त के मलीदे मिलने का असर भी ज्यादा होता है।

मिसाल के तौर पर मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को ही देख लीजिए। वो अपनी प्रजा के ‘मामा’ कहलाए और अपने प्रदेश की ‘भांजियों’ को दिल खोलकर सौगातें देते रहे। कुछ सौगातें उनकी भांजियों ने पाईं कुछ उनके हाथों से फिसल गईं।

सबकी नजर महिला वोटर पर ही टिकी है। लेकिन राज्यों के चुनावी झुंझुने की खनक देश में होने वाले 2024 के आम चुनाव में भी गूंज रही है। लेकिन देखने की बात ये है कि पार्टियां चुनाव के समय अपनी पार्टी की महिलाओं कोे टिकट बांटते समय कितना याद रखती हैं।

चुनावों में सीट एडजस्टमेंट की बातें तो खुल्म खुल्ला होती हैं लेकिन कितनी पार्टियां हैं जो शान से ये कह सकें कि अपने पार्टी की 33% महिलाओं का ध्यान रखा।

लोकसभा चुनाव में महिलाओं को जब टिकट देने की बात आती है तो सभी राष्ट्रीय राजनीतिक दल अपना हाथ खींच लेते हैं। वाम दलों और क्षेत्रीय दलों की क्या शिकायत की जाए।

ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस और बीजू जनता दल को छोड़ दें तो किसी भी राजनीति दल ने 2014 या 2019 के लोकसभा चुनाव में महिला उम्मीदवारों को 20 फीसदी टिकट भी नहीं दिया।

इससे ज्यादा हास्यास्पद स्थिति क्या हो सकती है कि कांग्रेस और बीजेपी ने 2019 के चुनावी घोषणापत्र में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण देने का वादा किया था। लेकिन इसके बावजूद टिकट मिलने में महिलाओं की हिस्सेदारी कहीं भी नजर नहीं आई, और पार्टियां चलीं महिलाओं को बांटने चुनावी रेवड़ियां।

हवा-हवाई घोषणापत्र

चुनाव जीतेंगे तो पूरे गांव को सरकारी नौकरी देंगे। हवाई अड्डा बनाएंगे। बुजुर्गों को बीड़ी देंगे। लड़कियों के लिए ब्यूटी पार्लर सेवा मुफ्त। 60 साल की माताओं को च्यवनप्राश के दो डिब्बे।

जरा सोचिए सरकारी नौकरी, सड़कें ठीक नहीं लेकिन हवाई अड्डे। धूम्रपान स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है लेकिन बीड़ी के पैकेट बांटने की बात हो रही, स्कूल में टीचर नहीं लेकिन मुफ्त ब्यूटी पार्लर सेवा, माताएं दो डिब्बा च्यवनप्राश खाकर स्वस्थ हो जाएंगी।

इसे रेवड़ी नहीं तो क्या कहेंगे। यूपी के एक नेता ने अपने जन्मदिन पर साड़ियां बांटी, भगदड़ मची, हाथपैर टूटे। कहने को रेवड़ियां बंटी लेकिन ये कैसी रेवड़ियां हैं?

बिहार में महिलाओं को बिजनेस शुरू करने के लिए 10 लाख रुपए की सहायता का वादा हुआ। लेकिन रकम पाने के लिए महकमें पैसे खिलाने पड़ते हैं। ऐसी रेवड़ियां मीठी कहां लगती हैं।

सोशल वर्कर सुजाता लवांडे कहती हैं कि सरकार अगर महिलाओं को मुफ्त में कुछ देना चाहती है तो उसे सुरक्षा दे। शिक्षा दें। फ्री की स्कूटी बिना पट्रोल के कैसे चलेगी। महिलाओं को पहले रोजगार दें। महिलाएं अपनी जरूरत का हर समान खुद खरीद लेंगी।

रेवड़ी-कल्चर की शुरुआत

भारत में वोटरों को रिझाने के लिए मुफ्त के माल की शुरुआत तमिलनाडु से हुई। 2006 में तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव में डीएमके ने सरकार बनने पर सभी परिवारों को फ्री कलर टीवी देने का वादा कर दिया।

पार्टी ने तर्क दिया कि हर घर में टीवी होने से महिलाएं एजुकट होंगी। डीएमके का तीर निशाने पर जा लगा और वो चुनाव जीत गई। वादा पूरा करने के लिए 750 करोड़ रुपए का बजट लगाया गया।

2011 के विधानसभा चुनाव में एडीएमके ने टीवी वाला फार्मूला अपनाकर मिक्सर ग्राइंडर, इलेक्ट्रिक पंखे, लैपटॉप, कम्प्यूटर यहां तक की सोने की थाली देने का वादा तक कर डाला।

शादी होने पर महिलाओं को 50 हजार रुपए और राशन कार्ड धारकों को 20 किलो चावल देने का वादा भी किया गया। वोटर के रूप में मौजूद ‘जिन’ ने कहा जो हुक्म मेरे आका। नतीजे आए तो एडीएमके की सरकार बन गई।

मुफ्तखोरी की लत से बचने के लिए 2013 में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला देते हुए कहा फ्रीबीज सभी लोगों को प्रभावित करती है, जो स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव की जड़ को काफी हद तक कमजोर करती है।

सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग को आदेश देते हुए कहा सभी राजनीतिक पार्टियों से सलाह-मशविरा कर एक आचार संहिता बनाएं।

साल 2015 में चुनाव आयोग ने राजनीतिक पार्टियों और उम्मीदवारों के लिए आचार संहिता जारी भी की, लेकिन उसके बावजूद चुनावों में फ्री-बीज का ऐलान होता ही रहा है।

राज्यों को कर्जदार बना रही पॉलिटिकल रेवड़ियां

आमदनी अठ्ठनी खर्चा रूपया। देश में सब्सिडी के नाम पर फ्रीबीज पर बेतहाशा खर्च होने से राज्य सरकारों का कर्जा बढ़ रहा है। खर्च और कर्ज को सही तरीके से मैनेज नहीं किया तो हालात श्रीलंका और पाकिस्तान जैसे हो सकते हैं।

आंकड़ों पर नजर डालें तो पांच साल में राज्य सरकारों का सब्सिडी पर खर्च 60% से ज्यादा बढ़ा है। पांच साल में ही राज्य सरकारों पर कर्ज भी करीब 60% तक बढ़ा है।

आरबीआई के मुताबिक, 2018-19 में सभी राज्य सरकारों ने सब्सिडी पर 1.87 लाख करोड़ रुपए खर्च किए थे। ये खर्च 2022-23 में बढ़कर 3 लाख करोड़ रुपए के पार चल गया।

इसी तरह से मार्च 2019 तक सभी राज्य सरकारों पर 47.86 लाख करोड़ रुपए का कर्ज था, जो मार्च 2023 तक बढ़कर 76 लाख करोड़ से ज्यादा हो गया।

सोशल वर्कर कविता राय कहती हैं कि सरकारों को सोचना चाहिए कि लोगों को इन फ्रीबीज की जरूरत ही क्यों पड़ती है।

अगर मुफ्त में कुछ देना ही है तो शिक्षा दो देश का हर व्यक्ति आत्मनिर्भर बन जाएगा। फ्री अनाज, कपड़ा देकर सरकार देश की जनता को सरकार मानसिक और शारीरिक रूप दिव्यांग बना रही है।

इस महान लोकतंत्र की महान पार्टियों से महिलाओं का सविनय नम्र निवेदन है कि हमें रेवड़ियों से न रिझाएं, हमें मान-सम्मान दें और घर से लेकर सड़क तक सुरक्षित महसूस कराएं। सफलता का बाकी सफर हम खुद अपनी काबिलियत के बल पर तय कर लेंगे।

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