नई दिल्ली13 मिनट पहलेलेखक: संजय सिन्हा

  • कॉपी लिंक

मेरे भी सपने थे, जीवन में कुछ बनना चाहती थी, पढ़ना चाहती थी लेकिन 19 साल की उम्र में ब्याह दी गई। मैंने भी कोई ना-नुकुर नहीं की। यही सोचा कि चलो किसी तरह इस घर से तो निकली। सपना जो मायके में देखा, वो ससुराल में पूरी कर लूंगी।

हैदराबाद में मेकअप आर्टिस्ट सत्या भानू का यह सपना पूरा भी हुआ। वो आज सेल्फ डिपेंडेंट हैं और अपने फैसले खुद ले पाती हैं। लेकिन क्या शादी वाकई सारी समस्याओं का हल है?

लड़की बिगड़ रही है, इसके चाल-ढ़ाल ठीक नहीं हैं। स्मार्टफोन क्यों दिला दिया, दिन-रात फोन पर जानें किससे बात करती है।

पूछने पर कुछ बताती नहीं। कुछ हो गया तो नाते-रिश्तेदार, पड़ोसियों को मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगे। इसके लिए जल्दी लड़का देखो। ब्याह कर अपना बोझ हल्का करो। इसे जो करना है, ये ससुराल जाकर करे।

ये किसी फिल्म का डायलॉग नहीं है बल्कि घर-घर में होने वाली आम बातें हैं।

दो दिन बाद महिला दिवस है, उससे मनाने से पहले ये सोचना जरूरी है कि घर की कोई भी समस्या हो लड़की को घर से विदा करने की बात सबसे पहले होती है।

हर समस्या का हल लड़की को घर से विदा करने में ही दिखाई देता है।

हम लड़कियों को शादी के लिए ही बड़ा करते हैं

‘लड़की तो पराया धन होती है’ , ‘लड़की दूसरे की अमानत है’, ‘जवान लड़की घर नहीं बिठा सकते हैं’, ‘शादी के बाद पति का घर ही लड़की का असली घर होता है’, ‘लड़की की डोली मायके से जाती है अर्थी ससुराल से उठती है’।

शादी के बाद लड़की अपने मायके में बस एक मेहमान होती है, कुछ भी हो जाए उसे ससुराल छोड़कर नहीं आना चाहिए।

जानें-अनजाने ऐसी कितनी बातें हैं जो सदियों से पीढ़ी दर पीढ़ी लड़कियों को घुट्‌टी में पिलाई जा रही हैं।

रिलेशनशिप कोच और साइकोथेरेपिस्ट स्निग्धा मिश्रा कहती हैं कि हमारा समाज लड़कियों को शादी के लिए बड़ा करता है।

लड़की को ये अहसास कराया जाता है कि उसके मन की जो इच्छाएं हैं वो मायके में बल्कि ससुराल जाकर ही पूरी होंगी।

‘ये सब यहां नहीं चलेगा, ससुराल जाना तो जो मन में आए करना’ फिर तुम जाने और तुम्हारा पति जाने। जैसा सास ससुर और पति कहें, वही करना।

यानी लड़की की अपनी कोई इच्छा नहीं, अपनी कोई पर्सनैलिटी नहीं, उसका अपना कोई जीवन नहीं।

ससुराल वाले पढ़ा देंगे, अभी तुम शादी कर ले

उत्कल यूनिवर्सिटी की वुमन स्टडीज की डायरेक्टर डॉ. जयंती डोरा कहती हैं कई माता-पिता अपनी जिम्मेदारियों को बखूबी ट्रांसफर करना जानते हैं। इसलिए कहावत है कि ‘लड़की की शादी कर दी तो मानो गंगा नहा लिया।’

पेरेंट्स कहते हैं कि जितना पढ़ लिया बहुत है अब ससुराल जाकर पढ़ना। लड़की डॉक्टर बनना चाहती है तो पेरेंट्स कहते हैं कि डॉक्टर बनने में तो उम्र निकल जाएगी। शादी की उम्र ही नहीं रहेगी।

उन्हें डर लगता है कि लड़की 30 साल की उम्र तक कुंवारी रह गई तो फिर अच्छे लड़के हाथ से निकल जाएंगे। इसलिए वो बेटी की करियर चॉइस का गला घोंट देते हैं।

डॉ. जयंती डोरा यह कहती हैं-सवाल यह है कि जब माता-पिता ने अपनी बेटी की इच्छाओं को मार दिया तो दूसरे से क्या इतनी उम्मीद रखी जा सकती है?

भारत में शादी को जरूरत से ज्यादा तवज्जो दी गई है। लड़की की परवरिश भी शादी के नजरिए से की जाती है।

माता-पिता जीवनभर बेटी की शादी के लिए पैसा बचाते हैं। कभी बेटी की शादी के लिए बेटे की शादी में दहेज लेते हैं। यही वजह है कि बेटी और बेटे की पढ़ाई में भी फर्क हो जाता है।

मायका हो या ससुराल लड़की की दोयम हैसियत

लड़की की शादी करने से पिता के सिर से बोझ उतर जाएगा, यह सोच पितृसत्तात्मक सोच है। यानी हर चीज को पुरुष के नजरिए से देखना।

लड़कियों की सुरक्षा को सम्मान से जोड़ दिया गया है। ‘घर की इज्जत है’, ‘घर की आबरू है’, इस पर किसी तरह की आंच नहीं आनी चाहिए। इसलिए इसे दबा कर रखो, अंदर छिपाकर रखो, बाहर न निकलने दो।

बाहर निकलेगी तो लोगों की निगाह में आएगी। इसी वजह से परिवार में लड़कियों को कमतर समझा जाता है और अहमियत भी नहीं मिलती।

राजस्थान यूनिवर्सिटी में सोशियोलॉजी की एसोसिएट प्रोफेसर डॉ. रश्मि जैन कहती हैं कि बेटा होने पर बधाइयां दी जाती हैं, थाली पीटी जाती है क्योंकि भारतीय समाज मानता है कि बेटे की कमाई पर मां-बाप का हक है, लेकिन बेटी होने पर मां को दोष दिया जाता है।

लो लक्ष्मी आई है अब इसके लिए पैसे जोड़ना शुरू कर दो।

डॉ. रश्मि कहती हैं कि लड़कियों को दो कारणों से बोझ समझा जाता है एक उनकी सुरक्षा और दूसरा उनके आने से परिवार पर बढ़ा आर्थिक बोझ है।

जब काम करने का समय आएगा तो लड़की ससुराल चली जाएगी

महिला को कभी भी उत्पादन की इकाई के रूप में नहीं देखा गया। वह घर का जो काम करती है उसे काम में जोड़ा ही नहीं जाता।

उसका काम जीडीपी में योगदान नहीं माना जाता। डॉ. रश्मि कहती हैं- इस सोच के चलते महिलाओं को दोयम दर्जे का माना जाता है। पति-पत्नी के बीच भी यही स्थिति होती है।

कहने को शास्त्रों में पत्नी को अर्धांगिनी, धर्मपत्नी, सधर्मिनी, गृहलक्ष्मी कहा गया है लेकिन हकीकत में वाइफ सेकेंड सिटीजन ही होती है।

मैरिटल स्टेटस की डोर से क्या आजादी बंधी है? इस सवाल पर डॉ. रश्मि कहती हैं कि मायके में पितृ सत्ता की जंजीरें लड़की से लिपटी होती हैं।

इसलिए वो भी चाहती है कि शादी करके अपने मां-बाप के बंधनों से आजाद हो जाए। लेकिन भारतीय समाज का ढांचा ऐसा है कि लड़की एक पिंजरे से निकल दूसरे पिंजरे में चली जाती है।

शादी टाइमपास नहीं, हेल्दी रिलेशनशिप के लिए काम करना पड़ता है

रिलेशनशिप कोच स्निग्धा मिश्रा कहती हैं कि शादी टाइमपास नहीं है। शादी के लिए लड़का-लड़की की सोच, सामाजिक परिप्रेक्ष्य पर बात होनी चाहिए। एक दूसरे को समझने में, एक दूसरे का साथ निभाने में बहुत समय लगता है।

हेल्दी रिलेशनशिप के लिए यह जरूरी है। यह तभी संभव है जब लड़कियों की इच्छा का सम्मान हो। लड़कियों की सुरक्षा, उसके मां बनने की उम्र को एक पैरामीटर बनाकर शादी नहीं करनी चाहिए।

स्निग्धा कहती हैं कि लोग मुगालते में रहते हैं कि शादी हो जाती है तो सब ठीक हो जाता है। जबकि ऐसा नहीं है।

मैरिज पर लगातार काम करना पड़ता है और ये मेहनत शादी के बाद दोगुनी हो जाती है। दूसरा रिलेशनशिप को हेल्दी बनाना सिर्फ लड़की की जिम्मेदारी नहीं होती, दोनों पार्टनर को बराबर प्रयास करने की जरूरत होती है।

खबरें और भी हैं…

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here