नई दिल्ली6 मिनट पहलेलेखक: वरुण शैलेष

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अमरोहा में 11वीं के छात्र की मोबाइल फोन चलाते समय मौत हो गई। डॉक्टरों ने मौत का कारण हार्ट अटैक बताया है। इसी तरह हरियाणा के फरीदाबाद में बीते साल मई में एक लड़के ने मोबाइल गेम खेलने से रोकने पर बड़ी बहन की गला दबाकर हत्या कर दी।

इसी इलाके में एक बहन ने अपने भाई की इसलिए जान ले ली क्योंकि वह मोबाइल पर गेम खेल रहा था और उसे फोन नहीं दे रहा था।

ये घटनाएं बताती हैं कि व्यक्ति का मोबाइल से इमोशनल कनेक्शन कितना मजबूत है, जिसकी शुरुआत डिसऑर्डर की तरह होती है और जो बीमारी का रूप ले लेता है। इसे मानसिक बीमारी की कैटेगरी में शामिल करने के लिए साइकोलाजी की दुनिया में रिसर्च चल रही हैं।

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (TISS), मुंबई की काउंसलिंग साइकोलॉजिस्ट सौम्या निगम कहती हैं कि इंसान में स्मार्टफोन की लत लगती जा रही है।

यह सिगरेट और तंबाकू से भी बुरी लत बन चुकी है। जैसे नशे की तलब होती है, वैसे ही इंसान में मोबाइल देखने की क्रेविंग होती है। मोबाइल न मिले तो व्यक्ति खाली-खाली महसूस करता है। उसका मन बेचैन हो उठता है। स्मार्टफोन के लती हो चुके बच्चे या बड़े को अगर मोबाइल देखने से मना किया जाए तो वो बौखला उठता है।

रोजाना मोबाइल पर सबसे ज्यादा समय गुजारने वाले देशों के मामले में भारत 8वें पायदान है। एक रिपोर्ट के मुताबिक 2022 में औसतन एक भारतीय ने रोजाना 24 घंटे में से 5 घंटे मोबाइल देखने में खर्च कर दिए। 2020 में यह आंकड़ा चार घंटे था।

knowledge.ai. के इनसाइट्स के प्रमुख लेक्सी सिडो कहते हैं कि स्मार्टफोन पर लोग वीडियो स्ट्रीमिंग, डेटिंग ऐप्स और शॉर्ट वीडियोज देखने में ज्यादा समय दे रहे हैं। इसके लिए पैसे भी खर्च कर रहे हैं।

लेकिन सौम्या कहती हैं कि इंटरनेट के कारोबारी इन आंकड़ों में भले ही अपनी ग्रोथ देखें, लेकिन इसका एक स्याह पक्ष भी है, जो लोगों में बर्दाश्त करने की क्षमता कम कर उनमें गुस्सा भर रहा है।

नींद में कटौती इंसान को बना रही हिंसक

सौम्या का कहना है कि ‘मोबाइल के आदी’ हो चुके लोग अपनी नींद में कटौती कर रातभर स्मार्टफोन देखते हैं। इससे स्ट्रेस, फ्रस्ट्रेशन और उनके दिमाग पर निगेटिव असर पड़ रहा है।

इन सब वजहों से इंसान गुस्सैल बन रहा है, जिसका असर बातचीत में भी साफ नजर आता है।

मोबाइल दिमाग को कर रहा गुमराह

  • प्रोसिडिंग ऑफ द नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस में छपी स्टडी के मुताबिक रात में बिस्तर पर स्मार्टफोन इंसानी दिमाग को झांसा दे रहा है।
  • असल में, आंखों में रोशनी पहचानने वाला एक प्रोटीन मौजूद होता है।
  • यही प्रोटीन रोशनी की जानकारी मस्तिष्क को देता है। फिर दिमाग अंगों को काम बताता है।
  • ज्यादातर स्मार्टफोन से ब्लू लाइट निकलती है। आमतौर पर सुबह नीली रोशनी होती है।
  • ब्लू लाइट देखकर ही दिमाग से बॉडी को नींद से जगने का अलर्ट मिलता है।
  • रात में आंखों के सामने नीली रोशनी रहेगी तो दिमाग शरीर को बताएगा कि यह सुबह का समय है।
  • ब्लू लाइट की वजह से नींद में मददगार मेलाटोनिन हार्मोन भी मस्तिष्क में रिलीज नहीं होता है।

शाम में लाल रोशनी होती है, जिसे देखकर दिमाग काम समेटने और नींद की आगोश में जाने का मूड बनाता है।

अगर किसी में नीचे ग्रैफिक में बताए गए लक्षण 6 महीने से ज्यादा समय तक दिखें तो अलर्ट हो जाएं। सौम्या बताती हैं कि कुछ देर भी मोबाइल फोन पास न होने पर विदड्रॉल सिम्पट्म्स नजर आते हैं।

इसमें नींद नहीं आती है। चिड़चिड़ापन, बार बार मूड बदलना, डिप्रेशन, एंग्जाइटी, दर्द, गला सूखना, क्रेविंग और थकान जैसे लक्षण दिखते हैं। आक्रामक व्यवहार के साथ आदमी मारपीट या गाली-गलौच पर भी उतारू हो जाता है।

मानव मस्तिष्क 25 की उम्र तक पूरी तरह से विकसित नहीं होता। लिहाजा, जो किशोर मोबाइल पर निर्भर हो गए हैं, उनका मानसिक विकास प्रभावित हो सकता है।

  • स्मार्टफोन की लत बच्चे या किसी इंसान को मानसिक बीमार बना देगी
  • मोबाइल फोन की लत वाले बच्चे का ब्रेन विकसित नहीं होगा
  • निर्णय लेने, गुस्सा-इमोशन काबू करने वाले हिस्से में समस्या होगी
  • बच्चा शराब, तंबाकू का आदी बनेगा, खाना भी ठीक से नहीं खाएगा
  • फोन की वजह से ऐसे बच्चे घर-बाहर सब जगह कटे-कटे रहते हैं

स्मार्टफोन हमें अपनी ओर क्यों खींचता है, इस सवाल का जवाब हम कबूतरों के साथ एक प्रयोग और कैसिनों के डिजाइन से समझने की कोशिश करेंगे।

सवाल है-लोग स्मार्टफोन से इतना क्यों चिपके रहते हैं कि वह लत बन जाती है। एक्सपर्ट्स के प्रयोग और उनके एनालिसिस से इसे समझते हैं।

दिन में करीब 60 बार फोन अनलॉक होता है

एक शख्स दिनभर में अपने फोन को कितनी बार निहारता है? इस सवाल का जवाब जानने के लिए कैलिफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी में साइकोलॉजी के प्रोफेसर लैरी रोजन ने 200 से ज्यादा छात्रों पर किए सर्वे के नतीजे में बताया-एक नौजवान एक दिन में करीब 60 फोन अनलॉक करता है। और 220 मिनट तक फोन अनलॉक रहता है।

मतलब एक नौजवान औसतन 3.30 घंटे से भी ज्यादा फोन देखता है। हालांकि, कई लोग ऐसे भी मिल जाएंगे जो दिन में 100 बार से ज्यादा फोन अनलॉक करते हैं।

स्मार्टफोन हमें अपनी ओर क्यों खींचता है, इस सवाल का जवाब हम कबूतरों के साथ एक प्रयोग और कैसिनों के डिजाइन से समझने की कोशिश करेंगे।

सवाल- स्मार्टफोन हमें अपनी ओर क्यों खींचता है

इस सवाल को समझने के लिए स्मार्टफोन की साइकोलॉजी समझते हैं। किसी चीज की डिजाइन को एनालिसिस करने वाली न्यूयॉर्क यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर नताशा शुल कहती हैं-सेक्स, पसंद का इंसान और स्वादिष्ट भोजन, ये तीन चीजें ही किसी व्यक्ति को सबसे अधिक अपनी तरफ खींचती हैं। अब इसमें स्मार्टफोन भी शामिल हो गया है। यह भी अपनी ओर खींचता है और इसकी लत लग जाती है।

सवाल है इंसान को किसी चीज की लत क्यों लगती है?

नताशा ने अमेरिकी साइकोलॉजिस्ट और फादर ऑफ बिहैवरिज्म कहे जाने वाले बीएफ स्कीनर के प्रयोग का उदाहरण दिया।

इनाम और बर्ताव का किसी पर क्या असर पड़ता है? ये जानने के लिए स्कीनर ने पिंजरे में कैद कबूतरों पर कई प्रयोग किए। लीवर दबाने पर बतौर इनाम खाना बाहर आता था। जब भूख लगे लीवर दबाइए और खाना मिल जाएगा। लेकिन स्कीनर ने 1950-60 के दशक में यह पाया कि इनाम पाने की लत तब लगती है जब पता न हो कि इनाम कितना और कब मिलेगा।

कुछ नया पाने की चाहत इंसान को मोबाइल से चिपकाए रखती है

स्कीनर के मुताबिक कबूतरों को भी पता था कि जब भूख लगी हो तभी लीवर दबाना है, लेकिन अगर लीवर दबाने से कभी खाना मिले और कभी खाना न मिले तो वे भी इससे चिपके रहेंगे और लगातार दबाते रहेंगे।

‘एडिक्शन बाय डिजाइन’ शीर्षक से लिखी अपनी किताब में नताशा बताती हैं कि इंसान हो या जानवर अगर उन्हें इसकी जानकारी न हो कि इनाम में क्या मिलेगा तो वो खींचे चले आते हैं।

कैसिनो यानी जुआघरों में सबसे ज्यादा मुनाफा स्लॉट मशीनों से ही आता है। जुआ खेलने वाला इंसान बार बार कैसिनो स्लॉट दबाता है ताकि वो कुछ जीत जाए।

कबूतरों के साथ प्रयोग, स्लॉट मशीन और स्मार्टफोन में क्या समानता हो सकती है? खाने के लिए लीवर पर बार-बार कबूतर का चोंच मारना, किसी कैसिनो में जुआरी का बार बार स्लॉट का बटन दबाना या मेट्रो में किसी यात्री का बार-बार वॉट्सऐप, इंस्टापोस्ट या फेसबुक टाइमलाइन चेक करना इसी तरह के इनाम के खोज में किया गया उपक्रम है। ये सभी जानना चाहते हैं कि आगे क्या आने वाला है?

स्मार्टफोन की लत भी आगे कुछ नया पाने की चाहत में लगती है। इसे एक प्लेजर लूफ की थ्योरी से समझते हैं।

स्मार्टफोन इंसान के ब्रेन को हैक कर रहा

स्मार्टफोन में इंस्टॉल ऐप्स इंसान को मोबाइल का आदी बना रहे हैं। यहीं से दिमाग को हैक करने की कोशिश शुरू होती है, और यह काम प्लेजर एक्टिवेशन से शुरू होती है। हम वो काम करना चाहते हैं जिससे हमें खुशी मिलती है। जब भी हमें खुशी मिलती है, हमारे ब्रेन में डोपामाइन नाम का केमिकल रिलीज होता है जो हमें खुशी देता है। खुशी यानी प्लेजर समस्या नहीं है। समस्या है प्लेजर लूप।

आपने जब पहली बार मोबाइल में कुछ देखा और दिमाग में डोपामाइन रिलीज हुआ और आपको खुशी मिलती हैं। फिर आप फोन रख देते हैं और अपना दूसरा काम करने लगते हैं। लेकिन जैसे ही दिमाग में डोपामाइन का लेवल कम होता है फिर से दिमाग को डोपामाइन की क्रेविंग यानी तलब होने लगती है। आप फिर मोबाइल उठा लेते हैं और सोशल मीडिया, मेल, वॉट्सऐप वगैर देखने लगते हैं। यह सब लगातार चलते रहता है। अगर थोड़ी थोड़ी समय पर फोन निहार रहे, चेक कर रहे हो तो आप प्लेजर लूप में हो।

हम प्लेजर लूप में जाते कैसे हैं?

स्मार्टफोन में जितने भी ऐप्स हैं, उनके पीछे हजारों इंजीनियर काम कर रहे हैं ताकि मोबाइल यूजर्स प्लेजर लूप में बने रहें और अपना मैक्सिमम टाइम वहां पर गुजारें। तीन तरीके से आपको प्लेजर लूप में रखा जाता है।

1. नयापन

इंसान को हमेशा नयापन पसंद है। ऐप्स यही काम करते हैं। वो हमेशा कुछ नया देते रहते हैं ताकि आप उनसे चिपके रहे। जब भी फोन खोल रहे हैं नए फीचर, नया मैसेज, नया नोटिफिकेशन नया अपडेट मिल रहा है। यह सबकुछ यूजर्स को एंगेज रखता है।

2. एंग्जाइटी

जब हमें भूख लगती है, हम खाते हैं। कोई समस्या होती है, हम उससे निपटते हैं। यानी एंग्जाइटी को निपटा रहे हैं। इसी तरह नए नोटिफिकेशन, न्यूज फीड, मैसेज के जरिए मोबाइल यूजर्स अपनी एंग्जाइटी को सॉल्व करते हैं। जैसे फेसबुक पोस्ट पर कितने लाइक आए, रील पर कितने व्यूज मिले। इस तरह हम अपने स्ट्रेस को निपटाते हुए उस प्लेजर लूप में चले जाते हैं, जिसे ऐप्स के जरिए तैयार किया गया है।

3. अटेंशन

इंसान को अटेंशन पसंद है। ऐप्स यही करते हैं वो आपके हर काम पर अटेंशन दिलाते हैं। आपके वीडियो, फोटो, विचार। लाइक, व्यूज देखकर मोबाइल यूजर्स को खुशी मिलती है और फिर प्लेजर लूप में फंसते चले जाते हैं।

मोबाइल ने दिमाग उलझाया, यूजर्स को आता बात बात पर गुस्सा

सौम्या निगम के मुताबिक इंसान के मस्तिष्क में दो तरह की मेमोरी, लॉन्ग टर्म मेमोरी और वर्किंग मेमोरी होती है। सभी तरह की सूचना वर्किंग मेमोरी के जरिए लॉन्गटर्म मेमोरी में जाती हैं। गंभीर असर छोड़ने वाली घटनाएं लॉन्ग टर्म मेमोरी में होती हैं। लेकिन रोजाना की गतिविधियां वर्किंग मेमोरी तक सीमित रहती हैं। वर्किंग मेमोरी सबसे अहम होती है। रोजाना की जिंदगी इसी पर निर्भर करती है।

उस हालात को फिर याद कीजिए जब आप मोबाइल देख रहे हैं, और किसी से बात भी कर रहे हैं। मोबाइल स्क्रीन पर तमाम सूचनाएं आपके दिमाग से गुजर रही हैं।

इसी में आपको सामने वाले से भी बात करनी है। दिमाग हैंग होने की स्थिति में पहुंच जाता है। यह सब कुछ दिमाग को थका रहा है।

डॉ. सौम्या निगम कहती हैं कि मोबाइल का ज्यादा इस्तेमाल इंसान को भले ही बददिमाग बना रहा हो, मगर वह आज जरूरत बन चुका है।

ऐसे में जरूरी है कि मोबाइल के बेहिसाब और बेतहाशा इस्तेमाल से बचा जाए। जितना काम हो, बस उतना ही मोबाइल पर समय दिया जाना चाहिए। बाकी टाइम परिवार और दोस्तों को दें, जिंदगी खुशहाल होगी।

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