4 घंटे पहलेलेखक: मरजिया जाफर

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डॉ. हर्षशिंदर कौर उन बेटियों का सहारा हैं, जिनके सिर पर पिता का साया नहीं। उनका ‘डॉ. हर्ष चैरिटेबल ट्रस्ट’ 447 लड़कियों के स्कूल फीस देकर उन्हें पढ़ा रहा है। इनमें तीसरी से लेकर 12वीं और बीए कर रहीं कुछ लड़कियां शामिल हैं। इन बच्चियों की पढ़ाई पर हर महीने करीब साढ़े तीन लाख रुपए खर्च होते हैं।

बच्चों की डॉक्टर, डॉ. हर्षशिंदर कौर का मानना है कि ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के सरकारी नारे को जमीनी स्तर पर लागू करना जरूरी है। वे लोगों को बेटियों को पढ़ाने और साथ ही भ्रूण हत्या को लेकर भी उन्हें जागरूक कर रही हैं।

सत श्री अकाल दोस्तों…

मैं हर्षशिंदर कौर पेश से बच्चों की डॉक्टर हूं। मेरी जिंदगी की किताब खट्‌टे, मीठे और कड़वे अनुभवों से भरी कहानियों का पिटारा है। बचपन गरीबी में गुजरा। इतने पैसे भी नहीं होते कि स्टोव में मिट्टी का तेल भी डलवा सकें। लेकिन मेरे घर में पढ़ाई पर हमेशा जोर दिया गया इसलिए मेरे घर में सभी बहुत पढ़े लिखे हैं। मैं भाई-बहन में 5वें नंबर की हूं लेकिन मुझे कभी भी ऐसा महसूस नहीं हुआ कि लड़की होना कोई पाप है। मेरे भाइयों की तरह ही मुझे खूब प्यार मिला और बहुत आजादी भी।

कुत्ते के मुंह में मिले नवजात के हाथ-पैर

कोई 15-16 साल पहले की बात है। मैं और मेरे पति एक गांव में स्वास्थ्य शिविर लगाने गए। गांव में घुसते ही ऐसी ऐसी आवाजें सुनाई दीं जिन्होंने हमें परेशान कर दिया। ठहर कर देखा तो वहां कुत्ते आपस में लड़ रहे थे। मैं रूककर देखा तो एक कुत्ते के मुंह में नवजात शिशु के हाथ-पैर थे और उसी पर कुत्ते लड़ रहे थे। नवजात बच्ची को कुत्ते नोचकर खा रहे थे। मैंने बच्ची का सिर फटा पड़ा था और आंतड़ियां बाहर थीं। इस हादसे ने मेरी जिंदगी पूरी तरह बदलकर रख दी।

मां ने अपनी दुधमुंही बेटी को जानवरों के सामने परोस दिया

मैंने गांव वालों से पूछा कि ये किसकी बेटी थी? मुझसे गांव वालों ने कहा, आप बच्ची को छोड़िए, अपना कैंप लगाइए। लेकिन वीभत्स दृश्य मेरी आंखों के सामने नाचता रहा। पता चला वो अपने घर की चौथी बेटी थी। उसके पिता ने पहले से ही कह दिया था कि अगर लड़का हुआ तो ही उसकी पत्नी और तीन बेटियां उसके घर पर रहेंगी वरना वो उन लोगों को घर से बाहर निकाल देगा। इसलिए जब चौथी बेटी हो गई तो उस मासूम को अपनी मां और बहनों के लिए कुर्बानी देनी पड़ी और, मां को नौ महीने पेट में पल चुकी बेटी को कुत्तों के सामने फेंकना पड़ा।

जन्म की खुशी में नाम हर्षशिंदर पड़ा

वापस घर आई, मां को सारा किस्सा बताया तो मां ने कहा कि हमारा समाज ऐसा ही है। बेटियों को यहां बोझ समझते हैं। मैंने मां से कहा-मैं भी तो बेटी हूं। मां का जवाब था तुम्हारे जन्म पर हम बहुत खुश हुए और इसलिए तुम्हारा हर्षशिंदर रखा। मां की कही बात और उस हादसे ने मुझे रास्ता दिखाया। वो दिन है और आज का दिन, 29 साल से मैं इसी रास्ते पर चलकर खुशियां बांट रही हूं लेकिन यह रास्ता इतना आसान नहीं था।

बेटा पैदा होना मां पर निर्भर नहीं बल्कि पिता पर निर्भर है

लोग कहते एक डॉक्टर होकर, एक अच्छी नौकरी छोड़कर गांव में धक्के खाती है। लोग मुंह पर ही दरवाजा बंद कर देते हैं। मुझसे सुनने को मिलता, आपको क्या परेशानी है? आप हमारे परिवार में क्यों दखल दे रही हैं? इतना सुनने के बावजूद मैं उन्हें बार-बार समझाती कि लड़कियां को धरती से मिटा दोगे तो आगे की दुनिया की कल्पना करना नामुमकिन है। उन्हें समझाने की कोशिश करती कि बेटा पैदा होना मां पर नहीं बल्कि पिता पर निर्भर करता है और मैं ये बात आज तक लोगों को समझा रही हूं। लेकिन समाज को समझ नहीं आ रहा और मैं समझाते-समझाते हुए थक गई हूं।

एक पिता की चिट्ठी से हौसला बुलंद हुआ

जब मैं कोशिश करते करते टूट गई तब उम्मीद की किरण एक चिट्ठी से मिली। उस चिट्ठी में लिखा था, ‘मैं अपनी पत्नी के अबॉर्शन के लिए क्लीनिक के बाहर बैठा था। मैंने वहां पेपर में आपका एक आर्टिकल पढ़ा। जिसे पढ़ने के बाद मैं अपने आंसू रोक नहीं सका। मुझे लगा कि मैं तो किसी की मां का कत्ल करने जा रहा हूं। मैंने ये पाप करने का फैसला बदल लिया।’

अब वह शख्स कनाडा में रहता है। उस आर्टिकल को उसने फ्रेम करा कर घर में लगाया और अपनी बेटी का नाम मेरे नाम पर रखा। मुझे लगा कि मेरी कोशिशें अगर किसी एक की जिंदगी बनाती है तो मुझे इस काम को जारी रखना चाहिए। अब मेरे पास ऐसी 50 से ज्यादा चिट्ठियां हैं जो पिता की तरफ से आईं हैं। जिन्होंने अपनी गलती मानी है और बेटियों को भरपूर प्यार दे रहे हैं।

यूनाइटेड नेशन के सम्मान से मोटिवेशन मिला

इस काम में जब हम जुट गए तो पता चला सिर्फ जन्म लेने में ही बेटियों को परेशानी का सामना नहीं करना पड़ता बल्कि जिंदगी के हर कदम पर उन्हें अपनी लड़ाई लड़नी पड़ती है। कभी घरेलू हिंसा की शक्ल में तो तो कभी दहेज तो कभी रेप की शिकार बन के। मैंने उन बच्चियों की अवाज बनी जो कम उम्र में ही बलात्कार का शिकार हो गईं। सुप्रीम कोर्ट तक जाकर उनकी लड़ाई लड़ी। हमारे काम को जान और उससे प्रभावित होकर यूनाइटेड नेशन से भी बुलावा आया। 2012 में ‘वुमन ऑफ द ईयर’ और ‘इंटरनेशनल वुमन राइट्स एक्टिविस्ट’ के तौर पर भी मुझे सम्मानित भी किया। इस सम्मान ने मुझे और मन लगाकर काम करने के लिए प्रेरित किया।

डॉ. हर्ष चैरिटेबल ट्रस्ट’ 447 लड़कियों के स्कूल फीस देकर उन्हें पढ़ा रहा है।

डॉ. हर्ष चैरिटेबल ट्रस्ट’ 447 लड़कियों के स्कूल फीस देकर उन्हें पढ़ा रहा है।

447 बेटियों को अपना बनाया

करीब 447 बेटियों को हमने अपनी बेटी समझकर पाला। इन बच्चियों में वो बच्चियां भी शामिल हैं जिनके पिताओं ने बेटी के आत्मसम्मान के लिए आत्महत्या कर ली। इन लड़कियों को स्कूलों में भेजा, उनकी फीस भरी ताकि वो आत्मनिर्भर बन सकें। पंजाब के अलग-अलग हिस्सों में स्कूलों, कॉलेजों, यूनिवर्सिटी में जरूरतमंद लड़कियों को पढ़ा रही हूं। एक लड़की ने मैथ में पीएचडी पूरी कर ली है, जबकि दूसरी अमेरिका में डॉक्टरेट कर रही है। ये वही लड़कियां हैं जिनके माता-पिता ने आत्महत्या कर ली थी।

मां की पीठ गरम प्रेस से जली देखी

बेटियों पर जुल्म की इंतहा खत्म नहीं होती। एक ऐसी मां को देखा जिसकी पीठ पर गरम प्रेस का निशान था। पता चला कि बेटी को जन्म देने की सजा थी।

सस्पेंड हुई, सैलरी रुकी, पति के कैंसर का पता चला

दहेज के खिलाफ मोर्चा खोलने पर मैंने एक जंग और लड़ी। जब मैंने दहेज के खिलाफ आवाज उठाई तो मुझे नौकरी से सस्पेंड कर दिया गया। मेरे और मेरे पति की सैलरी भी रोक दी गई। वो दौर इतना मुश्किलों भरा रहा। मेरे पति को कैंसर डायग्नोज हो गया। पैसों की दिक्कत, पति की बीमारी, बेटियों की पढ़ाई हर चीज के लिए पैसों की जरूरत थी। मुझे रोज इंक्वायरी के लिया बुलाया जाता। चार चार घंटे फलतू मैं बैठाते। पति का इलाज चल रहा था। तब भी वो कहते तुम डटी रहो। एक मिसाल कायम करो। जिंदगी का क्या, आज है कल नहीं। कोर्ट ने मुझे बाइज्जत बरी भी किया। नौकरी पर वापस से बहाल हुई। मेरी जंग उसी तरह आज भी जारी है।

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