नई दिल्ली3 घंटे पहलेलेखक: संजय सिन्हा
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मैं पुष्पा पाल उत्तर प्रदेश के अंबेडकरनगर जिले के अकबरपुर के कुटियवा गांव की रहने वाली हूं। मेरा जन्म यहीं हुआ और मैं यहीं पली-बढ़ी।
गांव की पहली लड़की हूं जिसने एमए की पढ़ाई की। जब हाई स्कूल में थी तो एक कार्यक्रम में भाग लेने गांव से लखनऊ गई। तब गांव से कोई लड़की लखनऊ तक भी नहीं गई थी।
अपने गांव की पहली लड़की हूं जिसने स्कूटी चलाना सीखा।
आज से करीब 10 साल पहले मैं एक ऐसी लड़की थी जो बहुत कम बोलती, किसी से बात करने में सकुचाती, घबराती। मर्दों से बात करना तो मेरे लिए किसी आफत से कम नहीं था, हाथ-पैर कांपने लगते थे।
लेकिन मैंने खुद को बदला। आज महिलाओं के अधिकार, उनकी पढ़ाई-लिखाई, उनके स्वास्थ्य, उन्हें हुनरमंद बनाने में जुटी हूं।
10 सालों में 10,000 महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने में मदद की है। 50 पंचायतों में 400 से अधिक महिलाओं को अपने अधिकारों को लेकर जागरूक बनाया जो महिला अधिकारों के लिए आवाज उठाती हैं।
गडे़रिया की बेटी है, भेड़ पालो, बाकी सब नौटंकी है
मैं गड़ेरिया जाति से हूं। घर में भेड़ पाली जाती। पापा बताते थे कि एक जमाने में एक भेड़ बेचने पर 100 रुपए ही मिलते। इन पैसों से बड़ी मुश्किल से घर चलता।
कथित ऊंची जाति के लोग हमें नीचा समझते। पिता ने इस भेदभाव को झेला। इसके बावजूद उन्होंने पढ़ाई की। 20 किमी दूर नदी पार करके पढ़ने जाते। इतने पैसे नहीं थे कि साइकिल खरीद सकें।
तमाम मुश्किलों के बाद भी उन्होंने इलाहाबाद यूनिवर्सिटी से लॉ की पढ़ाई की। वह चाहते तो इलाहाबाद में ही अपना करियर बना सकते थे लेकिन गांव की तरक्की के लिए उन्होंने शहर जाना नहीं चुना।
पिता जी कहते कि पढ़ाई से हालात बदल सकते हैं। गांव में आकर बच्चों को पढ़ाना शुरु किया।
उन्होंने जन शिक्षण केंद्र की शुरुआत की। जब 2013 में अचानक हार्ट अटैक से उनका निधन हो गया, तब मैंने इस सेंटर को संभाला। मैं कम्यूनिटी एजुकेटर के रूप में महिलाओं को पढ़ाती हूं। तब कई लोग कहते कि गड़ेरिया की बेटी है, भेड़ पालो।
ताना मारते कि महिलाओं का पढ़ना-लिखाना सब नौटंकी है।
महिलाओं को उनके अधिकारों के बारे में जागरूक करती पुष्पा।
महिलाएं लाली-लिपिस्टिक लगाकर दिखाने आती हैं
गांव में कई तरह की बातें होतीं। जब महिलाओं को उनके अधिकारों के बारे में बताया जाता, उन्हें ट्रेनिंग दी जाती तो कई लोग कहते कि महिलाओं को रंगरलियां करने के लिए बुलाते हैं। ये औरतें लाली-लिपिस्टिक लगाकर दिखाने और चाट-समोसा खाने आती हैं।
कई बार लोग अपशब्द बोलते कि पिता चला गया, परिवार के लोग बेटी की कमाई खा रहे हैं। आस पड़ोस के लोग मां से कहते कि बेटी की शादी क्यों नहीं कर देते। मायके में क्यों रहती है?
मेरा उन्हें जवाब होता जिनके बेटे हैं वो अपने माता-पिता को भूखे रखते हैं लेकिन मैं वो बेटी हूं जो अपने माता-पिता और परिवार की देखभाल कर रही हूं।
पापा ने कहा, जहां सभी बच्चे पढ़ेंगे वहीं तुम पढ़ोगी
पापा ने गांव में ही क्राई (CRY) संस्था की मदद से कक्षा 5 तक का स्कूल खोला। स्कूल में फीस नहीं ली जाती थी। सारे बच्चे उसमें पढ़ाई करते। मैं भी उसी स्कूल में पांचवीं तक पढ़ी।
इसके बाद मैंने अकबरपुर जाकर पढ़ने की बात सोची। मैंने पिता से कहा कि मैं अकबरपुर के मिडिल स्कूल में पढ़ना चाहती हूं।
तब उन्होंने पूछा कि क्या गांव के दूसरे बच्चे भी तुम्हारी तरह इतने सक्षम हैं कि वो अकबरपुर जाकर पढ़ेंगे? अगर नहीं तो तुम भी उनके बराबर ही गांव में ही पढ़ोगी।
मैं पंचायत के ही मिडिल स्कूल में आठवीं तक पढ़ी। आगे की पढ़ाई के लिए पापा ने हमेशा मोटिवेट किया। बीए करने के बाद मैंने एमए और बीएड किया और सोशल सेक्टर में काम करने के लिए एमएसडब्ल्यू भी किया।
शादी के बाद भी मायके के परिवार को संभालूंगी, मंजूर है तो बताएं
मेरे लिए लड़के वालों की तरफ से रिश्ता आया। मैंने लड़के को क्लियर बताया कि घर की बड़ी बेटी हूं, पिता नहीं हैं। अपने पैरों पर खड़ी हूं और परिवार के लिए कमाती हूं।
मेरे भाई-बहन हैं उन्हें पढ़ाने की जिम्मेदारी मुझ पर है। शादी के बाद भी मैं अपने मायके के परिवार को संभालूंगी, मंजूर है तो ‘हां’ बोलिएगा। लड़के ने हामी भरी तब मैंने शादी की।
पुष्पा को रानी लक्ष्मी बाई अवॉर्ड और बिटिया गौरव सम्मान दिया गया है।
ससुराल में जाकर जाना एक महिला क्या-क्या झेलती है
मेरे पति ने मुझे हमेशा सपोर्ट किया है। शादी से पहले जो वादा किया वो अब तक निभाते रहे हैं। अक्सर फील्ड विजिट में रहती हूं या मीटिंग में तो वो बेवजह फोन नहीं करते।
हालांकि कभी-कभी वो कहते हैं कि क्या जिंदगी भर मायके की जिम्मेदारी को निभाओगी। क्या ससुराल में और लोग नहीं हैं? कई बार वो कुछ कहना चाहते हैं पर कह नहीं पाते।
ससुराल में आकर मैंने महिला होने के अस्तित्व को समझा है। अच्छी बहू कौन है, कैसे उसे रहना होता, कैसे उसे सभी जिम्मेदारियां निभानी होती है।
एक महिला अपना धैर्य और आत्मविश्वास कैसे बनाए रखती है यह ससुराल जाकर ही पता चलता है।
70 साल की महिला भी दीदी बुलाती है
मैं पिता द्वारा शुरू किए गए जन शिक्षण अभियान को चला रही हूं। हर दिन महिलाओं के हक, रोटी-रोजगार, स्वावलंबन के लिए लड़ती हूं। महिलाओं को जागरूक करती हूं।
इस जागरुकता का ही असर है कि अब पुलिस में महिलाओं की संख्या बढ़ गई है। जब महिलाओं से मिलती हूं तो वो मुझे दीदी बुलाती हैं।
70 साल की बुजुर्ग महिला भी मुझे दीदी कहकर बात करती है।
टीबी मरीजों के लिए 8 मॉडल विलेज बनाए
टीवी मरीजों के लिए मेरी संस्था ने काफी काम किया है। अक्षय प्रोजेक्ट के तहत टीबी मरीजों के लिए 8 मॉडल विलेज बनाए हैं। 480 ‘आशा’ महिलाओं को ट्रेंड किया है।
हमारे गांव में दलित बच्चों के लिए प्राइमरी स्कूल खोलने के लिए जापान के दूतावास से आर्थिक मदद मिली। उन लड़कियों को पढ़ाई से जोड़ा जिनकी पढ़ाई किसी कारण से छूट गई है।
13,000 से अधिक बच्चों का स्कूल में दाखिला कराया। घरेलू हिंसा के खिलाफ महिलाओं को जागरूक करने और महिला सशक्तीकरण के लिए मुझे ‘बिटिया गौरव अवॉर्ड’ और ‘रानी लक्ष्मी बाई अवॉर्ड’ से सम्मानित किया गया।
महिलाएं सामाजिक बंधन की बेड़ियों को तोड़ रहीं
मैंने अपने 10 साल के संघर्ष में देखा है कि समाज ने महिलाओं को किस तरह बंधनों से बांधकर रखा है।
महिलाएं अपने अधिकारों के लिए लड़ती है और कड़ी मेहनत के बाद किसी मुकाम तक पहुंच पाती हैं।
इसके बावजूद पितृ सत्तात्मक समाज इतना हावी है कि वो महिलाओं की स्वतंत्रता, तरक्की और उनकी कामयाबी स्वीकरता ही नहीं।
मुझे इस बात की खुशी है कि मेरे प्रयासों से कई महिलाएं इन बेड़ियों को तोड़ रही हैं।