नई दिल्ली4 घंटे पहलेलेखक: कमला बडोनी

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वह झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले बच्चों को पिछले 32 सालों से पढ़ा रही हैं। कई स्टूडेंट्स उन्हें अपना रोल मॉडल मानते हैं। पढ़ाने के लंबे अनुभव के दौरान उन्होंने बच्चों का मनोविज्ञान समझा और इस विषय पर ‘हम, बच्चे और उनका मनोविज्ञान’ किताब लिखी। उन्होंने झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले बच्चों की रोंगटे खड़ी करने वाली कहानियां सुनाई। ‘ये मैं हूं’ में आज जानिए बच्चों का भविष्य संवारने में जुटीं टीचर और समाजसेविका डॉ. आनंदी सिंह रावत की कहानी…

किताब लिखने की वजह

मेरा मानना है कि पेरेंट्स और टीचर्स को बच्चों का मन समझना और पढ़ना चाहिए। तभी पेरेंट्स अपने बच्चों को सही परवरिश और टीचर्स बच्चों को सही एजुकेशन देने में कामयाब होंगे।

एक शिक्षक के रूप में मैंने बच्चों के मनोविज्ञान को जितना समझा, उस पर जितनी रिसर्च की, उन सभी का लेखा-जोखा मेरी किताब में सिमटा है। ये किताब पेरेंट्स और टीचर्स के लिए एक गाइडलाइन है, जो उन्हें बाल मनोविज्ञान को समझने में मदद करेगी।

बच्चों को समझना जरूरी

हाइपर एक्टिव, गुस्सैल, शर्मीले… बच्चों की पर्सनैलिटी अलग अलग होती है। ऐसे में बच्चे की पर्सनैलिटी को देखते हुए उसके साथ बात करनी और उन्हें समझना होता है। चाहे पेरेंट्स हों या टीचर, जब तक वे बच्चों के व्यवहार के पीछे छिपी साइकोलॉजी को नहीं समझेंगे, तब तक उनकी समस्याओं का समाधान नहीं कर पाएंगे।

बचपन में जो बातें या घटनाएं बच्चों के दिमाग में बैठ जाती हैं उनका बच्चों की आगे की जिंदगी पर बहुत गहरा असर पड़ता है। यदि बच्चा रोज माता-पिता को लड़ते झगड़ते देखता है, तो हो सकता है कि आगे चलकर उसकी शादी करने की इच्छा ही न हो। उसे ये समझ न आए कि लाइफ पार्टनर के साथ कैसा व्यवहार करना है।

झुग्गी-झोपड़ी में रहने वाले बच्चे जो पढ़ने आते हैं, उन बच्चों की जिंदगी बड़े घरों के बच्चों से अलग होती है। उनकी दिक्कतें और जरूरतें बेशुमार होती हैं। उन्हें वो प्यार और दुलार भी नहीं मिलता है जो एक आम परिवार अपने बच्चे को देता है। इसलिए ये बच्चे बुनियादी जरूरतों से भी वंचित रहते हैं। घर का माहौल भी अच्छा नहीं होता, जिसका असर उनके दिल और दिमाग को कभी चोट पहुंचता है तो कभी झिंझोड़ता है।

ऐसे बच्चे क्लास में गुमसुम बैठे रहते हैं। किसी से बात नहीं करते। मैं ऐसे बच्चों को अलग ले जाकर उनसे बात करती हूं, उनका मन पढ़ती हूं। उनकी परेशानियां जानने की कोशिश करती हूं। दूसरे बच्चों के व्यवहार पर नजर रखते हुए उन्हें समझाती हूं कि उन्हें अपने साथ पढ़ने वाले कमजोर बच्चों से किस तरह दोस्ती करनी है और कैसा व्यवहार करना है। मेरी कोशिश रहती है कि क्लास का कोई भी बच्चा उदास या गुमसुम न रहे।

पेरेंट्स भी नहीं समझ पाते

मैं ऐसे बच्चों के माता-पिता से बात करती हूं। उनके हालात समझता हूं, उन्हें उनकी गलतियां प्यार से समझाती हूं कि उन्हें किस तरह संभलकर बच्चे से बात करनी चाहिए। बच्चे के सामने क्या कुछ नहीं करना चाहिए। लेकिन मैं अपनी इस कोशिश में अक्सर नाकाम हो जाती हूं, जिसका मुझे अक्सर अफसोस होता है। ऐसे बच्चों के माता पिता हमें ही सुनाकर चले जाते हैं कि आपको हमारे घर के मामले में दखल देने की क्या जरूरत है?

जो बच्चे घर में माता-पिता को लड़ते-झगड़ते देखते हैं वो स्कूल में अन्य बच्चों के साथ भी ऐसा ही व्यवहार करते हैं। ये बच्चे जिस बस्ती और घरेलू माहौल से आते हैं, वो एक ऐसी सामाजिक समस्या है जो एक बचपन को तबाह कर देती है।

मुझे इन बच्चों के घर का माहौल और रहन सहन को समझने में सालों लगे। इनका बालमन समझने के लिए मुझे इनकी मन की तह तक जाना था, इनसे घुलना मिलना था, तब कहीं जाकर उनकी समस्याओं को समझना आसान हुआ। तब बच्चे भी मेरी बात मानने समझने लगे।

दिल दहला देने वाले किस्से

परिवार में मारपीट, घर का टूटना, मां को पीटते देखना, कभी सौतेले बाप तो कभी सौतली मां का दर्द झेलते हुए जीना इन बच्चों के बचपन को रौंद डालता है। ऐसे में झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले ये बच्चे इस दयनीय स्थिति में पहुंच जाते हैं जहां से उन्हें वापस लाने में बहुत मेहनत करनी पड़ती है।

मां-बाप के प्राइवेट पल बच्चे को सहमा गए

रोहन (बदला हुआ नाम) मन में जैसे कोई गुबार छिपाए हुए था। जब मैंने उससे बात की तो वह फूट-फूटकर रोने लगा। उनका घर इतना छोटा था कि परिवार के सभी सदस्यों को एक ही छोटे से कमरे में एक साथ सोना पड़ता। रोहन ने रात में माता-पिता को संबंध बनाते देखा। बच्चे के मन में डर बैठ गया और वह सोचने लगा कि उसका पिता रात के अंधेरे मां को चोट पहुंचाता है।

मैंने उसे बताया कि पापा आपकी मम्मी को प्रताड़ित नहीं करते, वो तो उन्हें प्यार करते हैं और ऐसा सभी के पेरेंट्स करते हैं। मैंने उसके पेरेंट्स को स्कूल में बुलाकर बच्चे की मनःस्थिति के बारे में बताया। काउंसलिंग के बाद बच्चा खुश रहने लगा।

वो पिता से मिलना चाहती थी

छठी क्लास में पढ़ने वाली सोफिया (बदला हुआ नाम) एक दिन डायरी में कुछ लिख रही थी। मैंने आदत के मुताबिक पूछा कि तुम क्या लिख रही हो। पहले वह हिचकिचाई, फिर उसने कहा कि वह अकेले में मुझे अपनी डायरी दिखाएगी। मैं उसे एक खाली क्लास में ले गई।

जब उसकी डायरी पढ़ी तो मैं अपने आंसुओं को रोक नहीं पाई। उसने डायरी में अपने पिता के नाम चिट्ठी लिखी थी। दरअसल उसकी मां ने दूसरी शादी कर ली थी। उसे मां के साथ नए पापा के पास जाना पड़ा, जहां नए पापा और सौतेला भाई उसे चोट पहुंचाते। लड़की किसी से कुछ कह न पाती थी। उसे अपने पापा बहुत याद आते थे इसलिए बच्ची अपने पापा के नाम चिट्ठियां लिखती। उसके बाद मैं उस बच्ची से रोज मिलती। उसका ध्यान रखती, उसे समझाती।

डॉ. आनंदी सिंह रावत पढ़ाने के साथ-साथ बच्चों का मनोविज्ञान समझने और उनका मार्गदर्शन करने में जुटी रहती हैं।

डॉ. आनंदी सिंह रावत पढ़ाने के साथ-साथ बच्चों का मनोविज्ञान समझने और उनका मार्गदर्शन करने में जुटी रहती हैं।

मैं टीचर बनना चाहती थी

मेरी परवरिश मुंबई में एक साधारण परिवार में हुई। मैं बचपन से टीचर बनना चाहती थी। परिवार की आर्थिक स्थिति ठीक नहीं थी इसलिए इंटर के बाद मैंने ट्यूशन पढ़ाना शुरू किया ताकि अपनी फीस के पैसे जोड़ सकूं। डिग्री की पढ़ाई नहीं कर सकती थी इसलिए मैंने मोंटेसरी कोर्स किया, जिससे मुझे बच्चों को पढ़ाने का अवसर मिला।

प्रिंसिपल ने प्रोत्साहित किया

स्कूल के प्रिंसिपल ने मुझे पढ़ने के लिए प्रोत्साहित किया और बीएड कॉलेज में मेरा एडमिशन कराया। दो साल मुझे एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी मिल गई।

फिर मेरी शादी हो गई। मैं खुशनसीब हूं कि मुझे ससुराल भी अच्छा मिला और मैं आगे बढ़ती चली गई। मैंने एमए की डिग्री भी हासिल की।

डॉ. आनंदी सिंह रावत स्कूल के बच्चों के साथ

डॉ. आनंदी सिंह रावत स्कूल के बच्चों के साथ

बेटी और मैं एक साथ पढ़ रहे थे

शादी के जब परिवार बढ़ा तो मेरी जिम्मेदारियां भी बढ़ने लगीं। दोनों बच्चों की परवरिश के साथ घर के काम और स्कूल की नौकरी के चलते अपने लिए समय ही नहीं बचता था। लंबे ब्रेक के बाद आखिरकार मैंने पीएचडी पूरी की। बेटी मेडिकल की पढ़ाई कर रही थी और मैं अपनी पीएचडी पर काम कर रही थी।

मेहनत सफल हुई

जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव आए, परिवार में कई हादसे भी हुए, लेकिन मैं सारी मुश्किलों से जूझते हुए अपना काम पूरी ईमानदारी से कर रही हूं। अपने पढ़ाए बच्चों को जब मैं अच्छा करते हुए देखती हूं तो खुशी होती है।

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