5 घंटे पहले

  • कॉपी लिंक

“एक्सक्यूज मी मैडम।”

“पैसे जमा करवाने हैं या निकालने हैं?” अनुभा ने सिर ऊपर उठाए ही पूछा। आज उसकी कैश काउंटर पर ड्यूटी थी। बैंक में ड्यूटी बदलती रहती है।

“लाइए।” उसने हाथ आगे बढ़ाया।

“पैसे नहीं जमा कराने हैं।”

“तो फिर? कुछ पूछना है तो एंक्वारी काउंटर पर जाएं।” इस बार अनुभा ने सिर उठाकर देखा। एक लंबे कद का युवक खड़ा था। उसके चेहरे पर एक मुस्कान थी, जो शायद उसके व्यक्तित्व का स्वाभाविक हिस्सा थी।

“असल में, मुझे बैंक में एक खाता खोलना है। बहुत अर्जेंट है और मुझे एक गारंटर की आवश्यकता है।”

“ठीक है, आप काउंटर नंबर 3 पर जाएं। नए अकाउंट वहीं खुलेंगे, यहां नहीं। यह कैश काउंटर है।”

“मैं वहीं गया था। वे गारंटर मांग रहे हैं। क्या आप मेरी गारंटर बन सकती हैं?

“कमाल करते हैं आप भी। मैं आपको जानती तक नहीं! मैं ऐसे ही आपकी गारंटी कैसे ले सकती हूं? मैं नहीं जानती कि आप कौन हैं, कहां से आए हैं, अकाउंट क्यों खोलना चाहते हैं,” अनुभा ने उकता कर कहा।

“मेरा नाम शशांक है। मैं चंडीगढ़ में रहता हूं। आई.ए.एस. के एक पार्ट के रूप में एक महीने के लिए यहां प्रशिक्षण पर हूं। कुछ निजी कारणों से मेरे लिए आज अपना बैंक अकाउंट खोलना बहुत ज़रूरी है। आई-कार्ड होटल के कमरे में ही भूल आया हूं, आईएएस के प्रशिक्षण वाला। अगर मैं अपना आई-कार्ड लेने जाता हूं तो लौटते-लौटते बारह बज जाएंगे और आज शनिवार होने के कारण बैंक की पब्लिक डीलिंग भी बंद रहेगी। प्लीज…”

अनुभा ने गौर से उसे देखा। वह युवक सचमुच परेशान लग रहा था। कोई धोखेबाज भी नहीं लग रहा था। कुछ तो था उसके चेहरे पर जो उसे उस पर विश्वास करने को कह रहा था। किसी की मदद हो जाएगी, यह सोच वह बोली, “सोमवार को अपना आई-कार्ड दिखा जाना।” और फिर गारंटी कागजात पर साइन कर दिए।

सोमवार की शाम को जब वह बैंक की सीढ़ियां उतर नीचे आई तभी एक मोटरसाइकिल उसके सामने आकर रुकी।

“हैलो, मैं शशांक। आपको अपना आई-कार्ड दिखाने के लिए आया हूं।”

“अब? बहुत जल्दी ध्यान आया?” उसने थोड़े गुस्से से कहा।

“सुबह ट्रेनिंग में था, इसलिए नहीं आ सका। थैंक्यू सो मच। यदि कोई आपत्ति न हो, तो क्या आपको एक कप कॉफी पिला सकता हूं?”

“नहीं। मैं किसी अनजान व्यक्ति के साथ कहीं जाना पसंद नहीं करती।”

“लेकिन मैं अब आपके लिए अजनबी कहां हूं। आखिरकार, आपने मेरी गारंटी दी है,” वह मुस्कराया तो उसका चेहरा और खिल उठा। अनुभा ने देखा उसके गालों पर डिंपल पड़ते हैं। कानों के पास एक छोटा-सा तिल है और बाल एकदम रेशमी हैं। सांवले रंग पर चमकती आंखों में भोलापन और सच्चाई थी।

“आप गुस्से में बिल्कुल भी अच्छी नहीं लगतीं मैडम अनुभा।”

वह थोड़े संकोच के साथ उसके पीछे मोटरसाइकिल पर बैठ गई। कनॉट प्लेस में एक रेस्तरां के पास मोटरसाइकिल रोकी उसने।

“हॉट या कोल्ड कॉफी?”

“कोल्ड कॉफी।” उसने कहा।

“उम्मीद नहीं थी कि आप कोल्ड कॉफ़ी की शौकीन होंगी?”

“क्यों?” हैरानी से उसने पूछा।

“आप हर समय गुस्से में रहती हैं या नाराजगी चेहरे पर नजर आती है। इसलिए मुझे लगा कि आप हमेशा गर्म, खौलती हुई कॉफी पीना पसंद करती होंगी। वैसे खूबसूरत चेहरे पर गुस्सा अच्छा नहीं लगता।” शशांक ने कान पकड़ते हुए कहा।

उसे हंसी आने ही वाली थी कि अंदर ही रोक ली और गंभीर लगने का प्रयास करने लगी। ‘आखिर यह होता कौन है उसके बारे में कोई राय बनाने वाला? एक तो मदद की और अब उसका मजाक उड़ा रहा है! लेकिन वह ऐसी ही है। इससे पहले कि वह कुछ कहती, वह बोला,

“मिस अनुभा, लगता है मैंने आपको कुछ ज्यादा ही नाराज़ कर दिया है? क्या करूं मुझे खुश रहना और हमेशा मुस्कुराते रहना ही पसंद है। तनावों से भरी इस भागदौड़ भरी जिंदगी में हम भले ही किसी को कुछ नहीं दे पाएं, लेकिन हंसी से सराबोर दो पल तो बांटे ही जा सकते हैं। कुछ गलत कहा क्या मैंने?”

तभी वेटर ने कॉफी की ट्रे लाकर रख दी।

“मुझे दोस्त बनाना पसंद है…अच्छे दोस्त। क्या आप, मेरा मतलब है अनुभा तुम, मेरी दोस्त बनना चाहोगी?”

“नहीं, नहीं! मैं अकेले रहना पसंद करती हूं। गारंटी क्या दे दी, आप तो पीछे ही पड़ गए हैं?” वह गुस्से से बोली।

लेकिन वह शरारत से मुस्कराता रहा और उसकी आंखों में देखता रहा।

“मैं चलती हूं,” वह उठ खड़ी हुई।

“मैं घर छोड़ दूं?”

“मैं खुद जा सकती हूं।” अनुभा रेस्टोरेंट से बाहर निकल गई। और रुकती तो दिल को संभालना मुश्किल हो जाता जो पहली बार किसी के लिए धड़कने को मचल रहा था।

उस दिन शुक्रवार था। लंच के बाद, जब वह कुर्सी पर सिर टिका आंखें बंद कर थोड़ा ब्रेक ले रही थी तो शशांक का ख्याल अचानक मन के आंगन की दीवार पर किसी पक्षी की तरह फुदकने लगा। बहुत ही अलग किस्म का है…बातें भी दिलचस्प हैं। उसके जैसी कम बोलने वाली और जल्दी किसी से न घुलने-मिलनी वाली के चेहरे पर भी उससे बात करते हुए मुस्कान आ गई थी, हालांकि उसके बहुत सफाई से छिपाने के बावजूद उसने देख लिया था।

एक ख्याल फिर आया। क्या वह किसी दिन फिर बैंक आएगा? वह उसका इंतज़ार क्यों कर रही है? अनुभा ने ध्यान काम पर लगा दिया। सोमवार को वह रोजाना की तरह काम में तल्लीन थी कि एक आवाज ने उसे चौंका दिया। “मेरे ख्याल से कभी-कभी इंसान को काम से छुट्टी भी ले लेनी चाहिए।”

अनुभा ने सिर उठाकर देखा। शशांक अपनी परिचित, शरारती मुस्कान के साथ उसके काउंटर के सामने खड़ा था। उसने घड़ी की ओर देखा। साढ़े पांच बज रहे थे। बैंक का आधा हिस्सा खाली था, और बाकी लोग निकलने की तैयारी कर रहे थे।

“नीचे पार्किंग के पास मिलती हूं।” उसके जाने के बाद वह सोचने लगी ‘ ओह! वह अवश्य सोच रहा होगा कि मैं उसका इंतजार कर रही थी।’

“कोल्ड कॉफी पीने चलें?” उसने पूछा।

वह बिना एक भी शब्द बोले मोटरसाइकिल की पिछली सीट पर बैठ गई। कॉफी पीते हुए उसने पूछा, “क्या तुम अपने बारे में कुछ बताना चाहोगी?”

“आपकी गारंटर हूं। और क्या जानना है?”

अनुभा ने कुछ नहीं बताया, लेकिन शशांक एक के बाद एक किस्से सुनाता रहा, अपने बारे में, अपने माता-पिता, अपनी नौकरी और हर उस चीज़ के बारे में बताता रहा जो उसे पसंद है या नहीं।

“मैं इस शनिवार को मसूरी जा रहा हूं। तीन महीने तक मेरी ट्रेनिंग का एक पार्ट वहीं होगा। साल के अंत में पंद्रह दिनों के लिए यहां आऊंगा। फिर वापस घर चला जाऊंगा।”

वह कुछ बोली नहीं, लेकिन लगा भीतर कुछ चटका है। उसने शशांक की आंखों में देखा…कोई ऐसा भाव नहीं था जो उसे कुछ सोचने पर मजबूर करे, लेकिन एक-दो मुलाकातों में ही हुआ उससे जुड़ाव, उसकी मित्रता, उसका उल्लास और उसकी शरारती मुस्कान… जलते हुए रेगिस्तान पर पानी की नन्ही बूंद की तरह सुखद और शांत करने वाली लगती है।

शशांक मसूरी चला गया और वह एक बार फिर अपने काम में डूब गई। इस शहर में वह अकेली रहती थी। दिसंबर शुरू हो गया था। एक दिन वह अचानक फिर प्रकट हो गया…

उस दिन वह काउंटर पर नहीं, खुले केबिन में बैठी थी।

“हेलो!”

“तुम कब आए?” अनुभा ने चौंकते हुए पूछा। उसके गाल आरक्त हो गए थे उसे देखकर। “दरअसल, मैं इंतजार ही कर रही थी,” उसके मुंह से निकला।

“सच में?” उसके होंठों पर वही खास मुस्कान थी। “अभी पहुंचा हूं। सीधे रेलवे स्टेशन से ही आ रहा हूं। कल तो छुट्टी है। कहीं चलोगी?”

अनुभा ने सहमति में सिर हिलाया।

“तुमने अब तक शादी क्यों नहीं की?” म़ॉल में घूमते हुए शशांक ने उससे पूछा।

“ पता नहीं।”

“तुमने कभी किसी से प्यार किया है?” शशांक उसे कुरेद रहा था।

“नहीं। मुझे ऐसा मौका कभी नहीं मिला,” उसने रूखेपन से कहा।

“मौका मिला नहीं, या तुमने किसी को कोई मौका नहीं दिया?”

“जो भी सोचना चाहो।”

“ठीक है, अगर तुम नहीं बताना चाहती तो रहने दो।

“बोटिंग करने चल सकते हैं क्या?” शशांक ने पूछा।

वे झील के पास पहुंचे। झील के शांत जल में पूर्णिमा के चांद का प्रतिबिंब चमचमाते चांदी के सिक्के के समान लग रहा था। वे दोनों वहीं पड़े पत्थरों पर बैठ गए। सभी पत्थर ऐसे चमक रहे थे मानो हाल ही में दूधिया चांदनी में डुबकी लगाई हो।

“क्या तुमने कभी चांद को ध्यान से देखा है?”

“नहीं।” उसकी नज़र ऊपर चंद्रमा की ओर उठी। “मेरे पास इन चीज़ों के लिए कभी समय नहीं था।”

“तो फिर समय निकालो अनुभा। जिंदगी में खुशियों के लिए ये चीजें जरूरी हैं। स्वयं को कल्पनाओं में बह जाने दो कभी-कभी। तुम्हें अच्छा महसूस होगा। खैर, ध्यान से देखकर बताओ चंद्रमा कैसा है?”

चांद को बहुत ध्यान से देखती हुए वह बोली, “ऐसा लग रहा है जैसे किसी ने आकाश में एक गोला बना दिया है!”

“सच कहूं तो तुम बहुत बोर हो। चांद के बारे में कितनी कविताएं, छंद और गीत लिखे गए हैं, और तुम इसे एक गोला कह रही हो। मैं उसके आकार की बात नहीं कर रहा।” अचानक शशांक ने उसका हाथ अपने हाथों में ले लिया। “तुम मुझे चांद जैसी लगती हो।”

वह सिहर उठी। किसी पुरुष ने पहली बार छुआ था उसे। इससे पहले कि वह विरोध करती, शशांक ने उसकी आंखों में झांका… उसके भीतर नरम एहसास हिचकोले खाने लगे। शशांक की आंखें फिर चांद पर टिक गई थीं।

“जानती हो अनुभा मुझे चांद क्यों पसंद है, क्योंकि वह मुझे ट्रैंक्विलाइज़र की तरह लगता है। उसे देख एक सुकून भर जाता है जिंदगी में और लगता है जैसे हम अकेले नहीं हैं।”

-सुमन बी.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here