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  • Suhani Started Saying – Aunty, Explain To Mother, We Are Not Advanced Enough To Digest The Matter Of Our Mother’s Second Marriage.

5 घंटे पहले

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उस शाम मैं कुछ बेचैन हो गई। एक ही दिन में तीन फोन कॉल्स। समस्या एक ही थी–सुगंधि की शादी। सुगंधि– मेरी मित्र, सुगंधि–दो शादीशुदा बच्चों की मां, सुगंधि–जो अपने जीवन की दूसरी पारी नए सिरे से शुरू करना चाहती थी। उसके इसी निर्णय से परेशान थी सुहानी– सुगंधि की फैशन डिज़ाइनर बेटी जो मुंबई की एक मल्टीनेशनल कंपनी में काफी अच्छी पोज़िशन पर थी। प्रेम विवाह किया था उसने। सुहास– सुगंधि का बेटा और सुहानी का जुड़वां भाई। सुहास ने भी एम. बी. ए. करने के बाद अपनी विजातीय सहपाठिनी से विवाह किया और फिर ससुराल का ही हो कर रह गया।

“मां ऐसा कैसे कर सकती हैं? मेरे ससुराल में मुझे कितनी ही बातें सुननी पड़ेंगी। किस किस का मुंह बंद करती फिरूंगी ?’’ सुहानी सुबक रही थी। कुछ ऐसा ही सुहास ने भी तो कहा था–“मां को आप ही समझाइए, मौसी, प्लीज़। इस उम्र में उन्हें पूजा पाठ में मन लगाना चाहिए। अभी हम इतने एडवांस नहीं हुए कि अपनी मां की दूसरी शादी की बात हजम कर सकें।’’ तीसरा फोन सुगंधि का था जिसने मुझे आज ही हुई अपनी कोर्ट मैरिज की सूचना दी थी और मुझे अपने पास लखनऊ बुलाया था। मैं सुहानी और सुहास के बारे में सोच रही थी। कहने को ये नई पीढ़ी के बच्चे हैं लेकिन सोच कितनी पुरानी। मुझे दुःख हुआ।

पिछले कुछ सालों में सुगंधि बिल्कुल ही अकेली पड़ गई थी, ऐसा उसके फोन कॉल्स से पता चलता था मुझे। बस मशीनी ज़िन्दगी चल रही थी उसकी। घर से दफ़्तर और दफ़्तर से घर। उसके बच्चे जिन्हें उसने कभी भी पिता की कमी नहीं महसूस होने दी, मानो उसके घर का रास्ता भूल गए थे। कई कारण थे उनके घर न आने के जिनमें सबसे बड़ा कारण उनकी व्यस्तता और समय की कमी का था। सुगंधि अपने अकेलेपन से जूझते जूझते थक चुकी थी। उसके पहले विवाह के चार साल बाद ही एक दुर्घटना में पति उसका साथ छोड़ गए थे। अपने बच्चों का मुंह देखते हुए उसने दूसरी शादी के बारे में कभी सोचा ही नहीं। पूरी कर्मठता के साथ जीवन के हर मोर्चे पर डटी रही। लेकिन आज जब बच्चों ने अपने अपने घोंसले बना लिए और सुगंधि का अस्तित्व उनके किए बेमानी हो गया तब सच में वो धीरे धीरे टूटती जा रही थी। इन दिनों अपनी नौकरी से भी उसका मन उचट रहा था।

शशांक चतुर्वेदी से मैं दो बार मिली थी और सुगंधि की बातों से मुझे एहसास था कि उन दोनों के बीच कोई आकर्षण पनप चुका है। शशांक और सुगंधि को एक दूसरे की निकटता भा रही थी–ऐसा मैं समझ रही थी।

जल्दी ही एक दिन मैं लखनऊ के लिए रवाना हो गई। सुगंधि का सजा संवरा फ्लैट आज पैकिंग बॉक्सेस से भरा था। वो मुझे देख कर एकदम से किलक उठी।…और मुझे ऐसा लगा कि उसकी उम्र बीस साल पीछे चली गई है। मनचाहे का साथ जादू कर देता है क्या? शशांक भी मिले–पूरी विनम्रता से, सौजन्य से, शिष्टता से। लंच हमने एक साथ ही किया। फिर उसके बाद मैं और सुगंधि…।

“मुझे पता है तू मेरे बच्चों की पैरवी करने वाली है।’’ सुगंधि सीधे मुद्दे पर आ गई थी।

“नहीं, नहीं, ऐसा कैसे सोच लिया तूने।’’ मैं कुछ खिसिया गई। अपने अपने एकाकीपन से ऊब कर दो अकेले निकट आ जाएं तो इसमें आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

“मैं और शशांक ये घर, ये शहर छोड़ कर जा रहे हैं। नाउ वी आर ऑफिशियली मैरिड कपल।’’ सुगंधि के चेहरे पर संतुष्टि भरी मुस्कराहट थी। मैंने उसे गले से लगा लिया। उसकी ख़ुशी में मैं खुश थी।

सामान ट्रक पर लोड हो कर जा चुका था। उस रात हम होटल में रुके। मैं और सुगंधि साथ थे। हमारी निजता का सम्मान करते हुए शशांक ने अपने लिए दूसरा रूम बुक करवाया था।

रात के इत्मीनान में जब सुगंधि मेरे निकट आ कर बैठी तो मुझे लगा उसके मन में कितना कितना घमासान मचा होगा। कोई भी तो उसका अपने पास नहीं था जो उसके इस निर्णय से प्रसन्न होता। वैसे वो एक ठहरी हुई, गंभीर स्त्री थी लेकिन आज उसके मन की उथल पुथल, बेचैनी समझ आ रही थी।

“तुझे पता है मीनू, मेरी शादी को पहला सम्मान बस तूने ही दिया है,’’ उसकी आंखें छलछला आई थीं–“शशांक से मेरा रिश्ता क्या आज का है? नहीं, ये रिश्ता तो बरसों पहले का है जिसे कोई भी नहीं जानता। शायद शशांक भी नहीं। उन दिनों बी. ए. फाइनल की परीक्षा के तुरंत बाद ही मेरा ब्याह तय हो गया था। मेरे होने वाले पति मुझे एक बार देखना चाहते थे। मैंने उनकी कोई भी तस्वीर तब तक नहीं देखी थी। उस दिन जो युवक अकेला आ कर बैठक में पिता जी के पास बैठा उसे मैंने किवाड़ की ओट से देख लिया था। लम्बा, पूरा, छरहरा, गोरा, हंसमुख। कुछ देर वो मां बाबा के साथ बतियाता रहा। बात बात पर उसकी खिलखिलाती हंसी सुनी तो मुझे लगा हर छठ पर सुनी गौरा पार्वती की कथा और व्रत जैसे एकबारगी सच हो गए। निर्जला उपवास रखते हुए ऐसे ही पति की तो कामना की थी मैंने। लेकिन जब कुछ देर बाद ही विनय अपनी बाइक पार्क करने के बाद उनकी बगल में आ कर बैठे तो पता चला होने वाला दूल्हा तो विनय हैं, शशांक नहीं। मैंने भाग्य को स्वीकार कर मन को मना लिया। सात फेरे विनय के साथ लेकर उनकी ब्याहता बन कर उनके घर आ गई। शशांक से कुछ दिन विनय का सम्पर्क रहा, उसके बाद दोनों की अपनी अपनी व्यस्तता होती गई। नौकरी के चलते वे दूसरे शहर चले गए और मैं चाह कर भी शशांक को फिर कभी नहीं देख सकी।’’ सुगंधि अपने अतीत में डूब उतरा रही थी और मैं आश्चर्यचकित थी। वो कहती रही –“मेरी नियति ने मुझसे विनय को छीन लिया लेकिन मेरे बच्चे मेरे पास थे। नातेदार, रिश्तेदार चार दिन की सहानुभूति दिखा कर अलग हो गए। मैं अपने बच्चों की मां के साथ साथ पिता भी बनी रही। जीवन समर के मोर्चे पर संघर्ष करते हुए मैं थकने लगी थी। बच्चे सेटल हुए तो लगा इस भागती दौड़ती ज़िन्दगी को अब ठहराव मिलेगा। लेकिन क्या ठहराव मिला? नहीं। मिली तो बस बच्चों की उपेक्षा, उनकी व्यस्तता, उनका परायापन। मैंने जब जब उन्हें पुकारा, कोई मेरे पास नहीं आया। ऐसे में अगर मैंने शशांक का हाथ थामा तो क्या गलत किया?’’ सुगंधि का गला भर आया था, “उनके कोई रिश्तेदार हमारे अपार्टमेंट में ही रहते हैं। उनसे मिलने ही वो यहां आए थे या मेरा भाग्य उनको मेरे पास खींच लाया था, नहीं जानती। एक दिन अनायास ही लिफ्ट में हम लोग मिल गए। उनका दोबारा मेरे जीवन में आना…,’’उसने एक ठंडी सांस लेकर कहा, ‘’इसे ईश्वरीय संयोग ही तो कहा जा सकता है। उन्होंने मुझे पहचान लिया और फिर मैंने भी। पता नहीं क्या वजह रही होगी कि शशांक ने आज तक विवाह नहीं किया था –ऐसा मुझे उनसे दो तीन बार मिलने पर पता चल गया था। हम लगातार मिलने लगे। पिछले दिनों जब मैं तेज़ बुखार में पड़ी थी तब न सुहानी के पास मेरे लिए समय था, न ही सुहास के पास। उस समय सारी लोकलाज, मर्यादा छोड़ कर शशांक मेरे पास रहे। सेवा टहल करते रहे। पूरी पूरी रात सिरहाने बैठ कर जागे। ठीक होने के बाद भी मेरी देखभाल करते रहे।’’ सुगंधि की छटपटाती आंखें बेचैन थीं। हमेशा फेडेड जीन्स पर लूज़ टॉप पहनने वाली, बॉय कट बालों वाली सुगंधि आज साड़ी में कितनी प्यारी लग रही थी। उसके बालों की रेशमी लटें कन्धों तक झूल रही थीं। उसके पोर पोर से सौन्दर्य फूट रहा था। कहां छिपी थी उसकी इतनी सुन्दरता अब तक? वो कहती रही और मैं सुनती रही_”एक उम्र होती है प्रेम की, उमंग की, कामनाओं की, मन को भरमाने की और उसी उम्र के चढ़ाव के साथ वो सब चुकता जाता है। मैं भी यही समझती थी। लेकिन नहीं, ऐसा नहीं था। मां होने का फ़र्ज़ निभाते निभाते मैं भूल चुकी थी कि मैं एक औरत भी हूं। शशांक ने जिस पल मुझे प्रपोज़ किया वो उनकी दृष्टि…सच, कितनी अजीब थी वो दृष्टि। एकदम मेरे अन्तस को खरोंचती हुई। पुरुष की दृष्टि भी कभी कभी कितनी बांध लेने वाली होती है –उस दिन इस बात का अनुभव हुआ मुझे। मन के इस छटपटाते मोड़ को अब इस उम्र में बांध पाना मेरे लिए मुश्किल होता जा रहा है मीनू। मैं भी चाहती हूं कि कोई प्यार से मेरे बालों को सहलाये, कोई मुझे सराहे, मेरी हंसी को अपनी अंजुरी में भर ले,’’ सुगंधि भावुक हो रही थी –“अंधेरों से डरने वाली मैं जब उसी अंधेरे में शशांक के साथ रही तब जान सकी कि मैंने बहुत सालों के बाद आसमान के सितारों को देखा, चांद को देखा। कैम्पस की लवर्स लेन में हम घंटों साथ टहलते। साथ बैठ कर दरख्तों के झरते हुए पत्ते देखते। खूब सारी बातें करते लेकिन इन बातों में बादल नहीं होते, बारिश नहीं होती, गुलमुहर, महुआ, हरसिंगार या अमलतास की बातें भी नहीं होतीं। बस सीधी सच्ची सी कुछ बातें और उन बातों के बीच उनकी शरारती हंसी।

हर शाम, हर रात बिछड़ने से पहले वो पूछते थे–“विल यू मैरी मी।’’

जिस आख़िरी शाम हम बिछड़ने वाले थे, मैं अपने घर लौटी। रात एक डूबती उतराती नींद में कट गई। कुछ कटे, कुछ फटे से ख्वाब इस नींद में यहां वहां बिखरे हुए थे। मैं इस ख्वाब में देख रही थी कि गुलाब के फूलों का गुलदस्ता लेकर मैं उन्हें विदा देने पहुंची हूं। भरी हुई आंखों के साथ हाथ हिला रही हूं या फिर उनके गले लग कर रो रही हूं। फिर एकाएक मेरी नींद टूट गई और ख्वाबों को याद करके मन कसैला हो गया। सुबह होने के साथ ही मैंने एक पक्का निर्णय लिया–बस अपने लिए। मेरे मन पर जो एक धुन्ध छा गई थी वो धीरे धीरे अपने आप छंटने लगी। तिरपनवें साल में इच्छायें नहीं मरतीं। तिरपन साल में औरत बूढ़ी तो नहीं हो जाती? इस उम्र में दोबारा जीवन शुरू करना चाहती हूं मैं। अभी बहुत देर तो नहीं हुई न?’’ सुगंधि मुझसे अपना मन बांट रही थी। तिरपन साल…ओह, सुगंधि कहां से तिरपन साल की लगती हैॉ? मैंने सोचा । प्रकट में कह उठी –“नहीं, नहीं, देर कहां?’’

“इससे पहले कि बहुत देर हो जाये मैं जीना चाहती हूं।’’ कहते हुए सुगंधि ने अपने घर की चाभियां मुझे थमा दीं –“कभी मेरे बच्चे अपने घर आना चाहें तो…।’’ वो रो रही थी–“ मैं साल के ग्यारह महीने शशांक की प्रिया बन कर रहूंगी लेकिन एक महीने के लिए अपने इस घर में ज़रूर लौटूंगी। अगर मेरे बच्चे मुझे माफ़ कर देंगे तो उस एक महीने के लिए उनकी मां बन कर रहूंगी। जीवन पता नहीं कितना लम्बा है। कोई भी तो साथ नहीं था, पास नहीं था। शशांक को साथी चुन कर मैंने गलत तो नहीं किया, मीनू ?’’ उसकी आंखों में कई सवाल थे। उस पल वो मुझे बहुत मासूम लगी, बिल्कुल अबोध, नन्ही बच्ची सी।

“ऐसा क्यों सोचा तूने। अपने लिए, अपने बारे में सोचना गलत तो नहीं। आज नहीं तो कल तेरे बच्चे भी तेरे इस निर्णय का सम्मान करेंगे।’’

रात बीत चुकी थी। भोर की पहली किरण फूट रही थी। सुगंधि और शशांक की फ्लाइट का समय हो चला था। शशांक के साथ जाती सुगंधि को देख कर मैंने विदा के लिए हाथ हिलाया। मन से ये शुभकामना की कि उसका भावी जीवन खुशियों से भरा रहे। तिरपन साल– सच में अभी बहुत देर तो नहीं हुई है।

-आभा श्रीवास्तव

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