3 घंटे पहले

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वह कह रहा है कि मुझसे बहुत प्यार करता है। हम शादी करने वाले हैं। दीवारें बोलती हैं। मैं सुन सकती हूं उसकी आवाज। दीवारें बोलती हैं…” “जब से जोशी ने अपने एक मंजिला मकान को तीन मंजिला कोठी का रूप दिया है, उसका दिमाग कुछ ज्यादा ही खराब नहीं हो गया है?” दवे जी ने अपनी पत्नी से कहा तो वह एकदम भड़क उठीं। “आपको हर किसी में कमी ही नजर आती है। आपको तो शुरू से ही जोशी भाईसाहब पसंद नहीं हैं। वही क्या कौन है जिसकी आप तारीफ करते हैं? सिवाय अपनी बेटी के कभी किसी की प्रशंसा की है आपने आज तक? यह तो शुक्र है कि अपनी बेटी पर जान छिड़कते हैं और बेटा न होने पर कभी मुझे ताना नहीं दिया। वरना क्या मैं आपके स्वभाव को जानती नहीं। आपकी तुनकमिजाजी की वजह से सभी कतराते हैं आपसे। वह तो मैं ही हूं जो पिछले 27 वर्षों से आपका साथ निभा रही हूं।” “हद करती हो तुम भी। और मालती मेरी बेटी है ही इस काबिल कि उसकी तारीफ की जाए। अपने पति का पक्ष लेने के बजाय उस जोशी की तरफदारी कर रही हो? लगता है जोशी की बीवी कोई घुट्टी पिलाती है तुम्हें? डिब्बे भी तो भर-भर कर दे जाती है आए दिन।” दवे जी ने चिढ़ते हुए कहा। “मेरी अच्छी सहेली है विभा। अब इसमें भी आपको दिक्कत है?” “हां-हां सब अच्छे, मैं बुरा! दवे जी ने गुस्से से पैर पटके और पैक करके रखा अपना टिफिन बॉक्स उठाया और घर से निकल गए। जोशी जी और दवे बरसों से पड़ोसी हैं। दोनों घरों में आना-जाना है और जब भी मदद करने की बात आती है तो रतन जोशी कभी पीछे नहीं रहते। हालांकि दवे जी थोड़ी संकुचित सोच रखते हैं। इसके बावजूद जोशी जी और विभा ने कभी भी पड़ोसी धर्म निभाने में कोई कमी नहीं छोड़ी। रतन जोशी के बेटे अमित ने जब उनका कपड़े का बिजनेस संभाला तो उनके यहां धन वर्षा होने लगी और उन्होंने तीन मंजिला कोठी खड़ी कर ली। पहले की तरह नीचे की मंजिल में वे रहते हैं और बाकी दोनों मंजिल किराए पर चढ़ा दी हैं। किराया भी बहुत अच्छा मिलता है। दवे जी को यही बात अखर रही थी, क्योंकि वह अपनी सरकारी नौकरी में बहुत तरक्की नहीं कर पा रहे थे। घर में किसी चीज की कमी नहीं थी, लेकिन बहुत सारा धन नहीं था उनके पास।

उनकी बेटी मालती और अमृत साथ ही बड़े हुए थे और उनके बीच की दोस्ती ने कब प्यार का रूप ले लिया, उन्हें पता ही नहीं चला था। मोबाइल फोन तब आए-आए थे और हर किसी के लिए उसे खरीदना या कॉल कर पाना संभव न था। एक मिनट की कॉल के सोलह रूपए लगते थे और इनकमिंग भी फ्री नहीं थी। पेजर का इस्तेमाल कुछ लोग करने लगे थे। इसलिए बातचीत का जरिया केवल मिलकर बात करने से ही संभव था। मालती और अमृत की मुलाकात बाहर तो कम ही हो पाती थी, क्योंकि छिप-छिपाकर प्यार करने का ही चलन था उन दिनों। इसलिए दोनों घरों के बीच की दीवार के पास खड़े होकर वे जब-तब बातें कर लेते या आंखों ही आंखों में अपने दिल की बात कह देते थे। लेकिन जब से घर दो मंजिला होने से दीवार ऊंची हुई थी, ऐसा करना कम हो गया था। हालांकि उन्हें लगता था कि वे एक-दूसरे को दीवार के पार देख न भी पाएं, तब भी एक-दूसरे को महसूस कर सकते हैं, एक-दूसरे को सुन सकते हैं। जब दिल मिल जाएं तो शब्दों का उतना महत्व नहीं रह जाता, जितना कि धड़कनों की गुनगुनाहट का। मालती जब मर्जी उसके घर चली जाती, लेकिन अमृत बहुत कम ही उनके घर आता था क्योंकि दवे जी उसे कुछ खास पसंद नहीं करते थे। एक तो वह जोशी का बेटा था उस पर दिखने में बहुत साधारण था। दवे जी को मालती की सुंदरता पर गर्व था, उस पर से वह पीएचडी कर रही थी। जबकि अमित बी.ए. करने के बाद ही बिजनेस में लग गया था। उन्हें मालती का अमृत से बात करना और मिलना- जुलना बहुत बुरा लगता था। पर उनकी पत्नी बिंदु तो अमृत की तारीफ करते नहीं थकती थीं। “एकदम गऊ है अमृत। इतना शरीफ बच्चा है कि कभी किसी से बेअदबी नहीं करता। चेहरे पर कितनी प्यारी मुस्कान खिली रहती है हमेशा। कितनी होशियारी से सारा बिजनेस संभाल लिया है।” दवे जी सुनते तो और चिढ़ जाते और मन ही मन अमृत को दो-चार गालियां दे देते। उनका बस चलता तो वह यह घर छोड़कर कहीं और शिफ्ट हो जाते। इतनी दूर कि जोशी परिवार से कोई संबंध रखने का बिंदु और मालती को मौका ही नहीं मिलता। बिंदु अमृत की पसंद की चीज बनाकर जब-तब मालती के हाथ भिजवाती भी रहती थीं। वह देख रही थीं कि मालती और अमृत एक-दूसरे को पसंद करते हैं और उन्हें भी इस रिश्ते से कोई आपत्ति नहीं थी। वह और विभा सीधे-सीधे तो नहीं, लेकिन घुमा-फिराकर इस रिश्ते के लिए अपनी सहमति दे चुके थे।

जब से दीवार ऊंची हुई थी तब से मालती और अमृत ही नहीं, बिंदु और विभा भी अब वहां खड़े होकर बात नहीं कर पाते थे।
शाम को मालती उनके घर जब खीर लेकर गई तो अमृत उसे पिछवाड़े में ले गया। “मालती, अब हम बात भी नहीं कर पाते हैं इस दीवार की वजह से। मैं तुम्हें फोन करना भी चाहूं तो तुम्हारे पास मोबाइल नहीं है। लैंडलाइन पर करता हूं तो तुम्हारे पापा सिर पर खड़े होते हैं, जिसके कारण तुम बात नहीं कर पातीं। बताओ क्या करें?”
“दीवार गिरा दो!” मालती हंसते हुए बोली।
“बात तो सही कह रही हो। हमें दूरियों की दीवार गिरा देनी चाहिए। बोलो कब भेजूं पापा-मम्मी को तुम्हारे घर रिश्ते की बात करने? वरना अगर रिवाज की बात करूं तो तुम उन्हें भेज दो।”
यह सुन शरमा गई मालती। “भेजना तो तुम्हें ही पड़ेगा। मेरे पापा नहीं करेंगे तुमसे मेरा विवाह,” मालती ने उसे ठेंगा दिखाया।
“मजाक की बात नहीं है यह? क्या हम थोड़ा गंभीरता से इस बारे में सोच सकते हैं? अगर तुम सचमुच से प्यार करती हो और मुझसे शादी करना चाहती हो तो?” अमृत के चेहरे पर फैली उदासी देख मालती ने उसके हाथ थाम लिए।
“मैं तुमसे प्यार करती हूं, क्या इस बात का प्रमाण देना होगा मुझे?”
“नहीं। लेकिन साथ रहने के लिए शादी तो करनी ही होगी या…?”
“बस-बस। अब कोई अजीब आइडिया मन में मत लाना। मैं मम्मी से बात करती हूं,” मालती ने अमृत के हाथों को अपने गालों पर लगाया और प्यार से उसे देखा।
मालती दो–तीन दिन यही सोचती रही कि कैसे अपने मन की बात मम्मी से कहे। बिंदु समझ तो रही थीं कि मालती के भीतर कोई उथल-पुथल चल रही है। रात को बात करेंगी, उन्होंने सोचा। वह किचन में थीं कि फोन बजा।
“मालती, देख तो किसका फोन है? तेरे पापा का न हो? ऑफिस से निकलने से पहले एक हार जरूर फोन करते हैं।”
बड़ी देर तक जब मालती का कोई जवाब नहीं आया तो वह बैठक में आईं। मालती रिसीवर पकड़े बुत बनी खड़ी थी।
“क्या हुआ?” उन्होंने उसे झिंझोड़ा। फोन कट चुका था, इसलिए जान नहीं पाईं कि किसका फोन था।
इतने में दवे जी हांफते हुए घर में घुसे। “अमृत का एक्सीडेंट हो गया। अस्पताल पहुंचने से पहले ही उसकी मौत हो गई। फौरन उनके घर चलो।”
मालती की जड़ता उसके बाद टूटी नहीं। “अमृत, आज मम्मी आएंगी तुम्हारे घर। तुम उनके हाथ मेरा शादी का जोड़ा भिजवाना देना। सही कहते हो तुम, दूरियों की दीवार हमें गिरा देनी चाहिए।” मालती दीवार के पास खड़ी हो बड़बड़ाती रहती है।
“दीवार के पार कोई नहीं अब। तू किससे बात कर रही है? चल अंदर चल।” बिंदु उससे कहतीं।
“आप ध्यान से सुनो। अमृत खड़ा है वहां। वह मुझसे बात कर रहा है। दीवारें बोलती हैं। वह कह रहा है कि मुझसे बहुत प्यार करता है। हम शादी करने वाले हैं। दीवारें बोलती हैं। मैं सुन सकती हूं उसकी आवाज। दीवारें बोलती हैं…”
-सुमन बाजपेयी

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