4 घंटे पहले

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टैक्सी, रश्मि दीदी के ठीक बंगले के सामने जाकर रुकी। गार्डन की हरियाली को देखती हुई मैं बरामदे तक पहुंच गयी थी। दो मिनट हुए होंगे दरवाज़े पर खड़े खड़े तभी किसी के आने की आहट सुनाई दी। रश्मि दी का नौकर था। मेरा नाम पता पूछने के बाद उसने दरवाज़ा बंद किया, फिर नम्रतापूर्वक बोला,

“आइए”

मैं बाई तरफ़ की सीढ़ियां चढ़ती हुई ऊपरी मंज़िल तक पहुंच गयी। वहीं पर एक और दरवाज़ा था। एक नौकरानी डस्टिंग कर रही थी। नमस्कार करती हुई वो, थोड़ा पीछे हटी तो घर की पुरानी नौकरानी उधर से गुजर रही थी। बिना कुछ कहे हुए उसने अपने दांत निकाले फिर मेरे पैर छूकर धीरे से बोली,

“मैडम अपने बेड रूम में हैं”

मैं उनके एयरकंडीशंड बेड रूम की तरफ़ बढ़ गयी। मद्धिम प्रकाश में मैंने देखा रश्मि दी अपने बिस्तर पर लेटी हुई थीं। उन्होंने गुलाबी सूती साड़ी और बिना बाहों का सफ़ेद ब्लाउज पहन रखा था। सिर और चेहरे का अधिकतर भाग सफ़ेद पट्टियों से ढका हुआ था। पट्टियों के बीच बीच से उनके खिचड़ी बाल झांक रहे थे। उनकी बग़ल में पड़ी सैटी पर बैठकर मैंने, धीरे से पूछा,

“कैसी हैं दीदी”

मेरे आने का पता तो उन्हें था ही, धीरे से मेरा हाथ अपने हाथ में लेती हुई बोलीं,

“अब तो ठीक हूं“

“आपने मुझे पहले क्यों नहीं बताया?”

“ सोचा तुम बेकार में परेशान होगी। वैसे, यहां आकर तुम कर भी क्या लेती”

“कुछ मदद तो हो ही जाती”

“मेरी मदद भगवान के सिवाय कोई नहीं कर सकता“ कहते कहते उनका गला भरभरा गया।

“ये सब हुआ कैसे दी”

“कोई चार दिन पहले एक शादी में शामिल होने के लिए मैं, मीरा रोड गयी थी। वैसे मैं, शादियों में जाना पसंद नहीं करती लेकिन उन लोगों ने काफ़ी मिन्नत की कि,बेटी की शादी है, पांच मिनट के लिए ही आशीर्वाद देने के लिए आ जाइये तो मैं चली गयी। अनिंदोंजी रहते हैं तो वो ही जाते हैं ऐसे समारोहों में,मगर वो यहां नहीं थे तो, मुझे ही जाना पड़ा। फ़ॉर्मैलिटी जो निभानी थी। थ्रीव्हीलर से उतर ही रही थी कि सामने से एक ठेलागाड़ी ने ऐसी टक्कर मारी कि मैं, एक तरफ़ जाकर गिरी। लोगों की भीड़ जमा हो गयी। मुझे,डॉक्टर के पास ले जाने के बजाय लगे आपस में झगड़ने। आख़िर टैक्सी वाला ही मुझे डॉक्टर के पास ले गया”

“ किस डॉक्टर के पास गयीं?”

“किसके पास जाती? यहां है कोई ऐसा डॉक्टर जो तुरत फ़ुरत घायल की मरहम पट्टी करे! एक सुधा ही है मेरी स्कूल फ्रेंड। हालांकि उसका घर भी काफ़ी दूर ही था। वहां पहुंचकर पता चला घर पर नहीं थी। जैसे तैसे उसके घरवालों ने फ़ोन करके उसे बुलाया,फिर भी आधा पौन घंटा तो लग ही गया। तब तक मैंने कितना कष्ट भुगता, मैं ही जानती हूं। घर में भी यही निकम्मा सोहन था जिसने, तुम्हारे लिए दरवाज़ा खोला होगा।

”स्टूपिड मैन” और वो, फिर इंग्लिश में बड़बड़ाने लगीं,

“ एकदम बेवक़ूफ़ है। कोई काम ढंग से तो कर ही नहीं सकता”

“ तो क्यों रख लिया आपने?”

“मैंने नहीं रखा। अनिंदोंजी के दफ़्तर का है। उन दिनों घर में न नौकर था न नौकरानी। इसी से ये बोले कि “सोहन, तुम घर पर रहकर मेम साहब का ध्यान रखना”

“मैं इसे कबसे कह रही हूं साहब इटानगर गये हैं। उन्हें फ़ोन मिला कर इत्तला कर दो कि, मेमसाहब का एक्सीडेंट्स हो गया है तो बेवक़ूफ़ कहने लगा मुझे क्या मालूम साहब कहां ठहरें हैं।।”

“मोबाइल पर कॉल कर देता”

“वहां नेटवर्क नहीं मिलता न”

“मेल तो कर ही सकता था कम से कम”

“एमएससी पीएचडी किया है, लेकिन एक लाइन टाइप नहीं कर सकता। फ़ोन पर बात करना नहीं आता। पता नहीं सिफ़ारिश करके कैसे भर्ती हो जाते हैं ये लोग। फिर न दफ़्तर के रहते हैं न घर के”।

“लेकिन अप्रूव तो जीजाजी ही करते होंगे न”

“अरे भई, काम की व्यस्तता के चलते, इस तरफ ध्यान ही नहीं जा पाता होगा अनिंदोंजी का”

“तो फिर जीजाजी को खबर किसने की”

“ मैंने की, और किसने? इतनी खराब हालत में किसी तरह आंखों से पट्टियां खिसका खिसका कर, चश्मा लगाकर मैंने, अपने भाई का नंबर डायल किया और उसे कहा कि,पर्सनली अनिंदों के पास जाकर मेरे एक्सीडेंट की सूचना दे आये। तो जानती हो उसने क्या किया? अनिंदो जी को एक्सीडेंट की खबर पहुंचाकर बोला, “दीदी की हालत गंभीर नहीं है। आप आराम से अपना काम निपटा कर ही जाइएगा”।

”सुनते ही मेरा दिमाग़ बेक़ाबू हो गया… कितना किया है मैंने इसके लिए, आदमी बना दिया। इसके दाख़िले के लिए किस किस की खुशामद नहीं की! अच्छे से अच्छे शिक्षकों से ट्यूशन दिलवायी। एक से एक किताबें। एक से एक कपड़े लत्ते। जो बन सका सब किया, और इसे इतना भी शऊर नहीं कि, अपनी बहन के एक्सीडेंट की सूचना सही तरीके से अपने जीजाजी को पहुंचा दे!

जब काम था तो अनिंदोजी की दायें बायें खुशामद करते रहते थे दोनों पति पत्नी, पत्नी ने तो, मुझसे मिलने के बहाने से, आ- आकर अनिंदों जी पर डोरे डालने शुरू कर दिये थे। उनके साथ घूमती, वो भी लाल बत्ती वाली गाड़ी में। मुझे कभी देखा है लाल बत्ती वाली गाड़ी में घूमते? मैं कभी इनकी गाड़ी तक का इस्तेमाल नहीं करती। ड्राइवर है पर, मेरा नहीं है। और ख़ुद मैं गाड़ी चलाती नहीं। इस शहर के ट्रैफ़िक में गाड़ी चलाना मेरे बस की बात नहीं। कोई विश्वास करेगा कि मैं, पूरे यूरोप में गाड़ी चला चुकी हूं” उनका गला फिर भरभराने लगा था।

“जीजाजी कब आये”

“आ तो गये थे दूसरे दिन सवेरे ही, मगर अपनी आदत के मुताबिक़ एयर पोर्ट से ही पूरी फ़ौज लेकर आये थे। वहीं इटानगर में ही शोर मचाना शुरू कर दिया कि, सारे प्रोग्राम रद्द कीजिए, फ़ौरन पटना पहुंचना है। मेरी पत्नी का एक्सीडेंट हो गया है। बस फिर क्या था। सारे अफ़सर, गुप्ता साहब, तोमर साहब, डिसूज़ा साहब, इनके पीए टाइपिस्ट, बॉडीगार्ड सभी हांफते हांफते सीधे चले आये थे और उन सब के लीडर बने हुए थे अनिंदों, मेरे पति।

सभी ने एक्सीडेंट के बारे में पूछ पूछकर अपनी सहानुभूति जतलानी शुरू कर दी।

“एक्सीडेंट कैसे हो गया, आप, थ्रीव्हीलर से क्यों आती जाती हैं, गाड़ी क्यों नहीं ले गयीं? मेरे घर फ़ोन कर देतीं। मेरा ड्राइवर आ जाता। मेरी वाइफ़ ले जाती आपको”

रश्मि दीदी की यातना का अंत नहीं था। दुखी होकर बोलीं,

“ अनिंदोंजी ने तो फॉर्मल वे में पूछा, क्या हुआ, एक्सीडेंट कैसे हुआ और कमरे में जाते जाते बोले, “अरे भाई, इन लोगों को चाय वाय पिलवाओ। बिना नाश्ता किए मत जाइएगा। डिसूज़ा साहब, गुप्ता साहब। बस मैडम का मैनेजमेंट देखिये। थोड़ी देर में ही सब तैयार हो जाएगा”

“मैं रोने रोने को हो आयी। इस इंसान को इतना मालूम नहीं कि, घर में दूसरा कोई नहीं है…जैसे तैसे उठकर मैंने चाय बनाई। प्लेट में नाश्ता रखा और ये? कमरे से लौटकर, फिर शोर मचाते हुए बैठक तक पहुंच कर बोले,

“ अरे अरे देखिए इस हालत में भी मैडम चाय बना रही हैं…और फिर पूरा स्टाफ वाह वाही पर उतर आया”

रश्मि दीदी के पति की इन अजीबोग़रीब बातों को मैं पहले भी सुन चुकी थी पर क्या कह सकती थी?

धीरे से बोली, “ दीदी, आपने तो प्रेम विवाह किया था… स्कूलिंग फिर कॉलेज। भली भांति परिचित होंगी उनके स्वभाव से”

“उस उम्र में हम किसी से इसलिए प्यार नहीं करते क्योंकि वो हमें अच्छा महसूस कराते हैं। बस एक तरह का जुनून होता है। दीवानगी। असलियत तो एकछत के नीचे रहकर ही पता चलती है।“

“एकाध बार पास बैठकर बोले बतियाये तो होंगे?”

“एकदम नहीं, उन लोगों के जाते ही बस फ़ोन घुमाना शुरू कर दिया। दुनिया भर से बातें कर लें। डॉक्टर सुधा से भी डिस्कस कर लिया। फिर मुझ से आकर बोले, डॉक्टर सुधा तो कह रही थी चिंता की कोई बात नहीं है।” फिर मुझ से मुखातिब होकर बोले, “अगर आप माइंड न करें तो कल मैं, दिल्ली चला जाऊं। कल मिनिस्टर साहब से मेरी मीटिंग तय है”

मैं क्या कहती। इनके रहने से जो आवा जाही रहेगी घर में कम से कम उस से तो आराम ही रहेगा। बोली, “ज़रूर जाओ” बस फिर से फ़ोन घुमाना शुरू कर दिये, “ शेखर साहब,तोमर साहब। मैडम से इजाज़त मिल गयी। डॉक्टर ने भी बोला है चिंता की कोई बात नहीं है। हैलो -हैलो,डिसूज़ा साहब”

शिकायत अभी भी ख़त्म कहां हुई थी? वहां दिल्ली में मंत्री जी से दोपहर में मुलाक़ात हुई होगी।

रात में फिर मंत्री जी का भी फ़ोन आ गया, “हां, कैसी हैं मैडम आप? दर्द कैसा है। पट्टियां कब खुलेंगी? लीजिए गुप्ता जी से बात कीजिए। फिर शेख़रन, फिर डिसूज़ा। फिर बेचारा दरबानसिंह भी क्यों छूटता”

“ क्या कीजियेगा दीदी?” मैंने सांत्वना देने की कोशिश की ,

“एक साफ़ सुथरी व्यक्तिगत ज़िंदगी जैसी चीज़ उनके पास पहले भी नहीं थी, उम्र के साथ साथ जो थोड़ी बहुत अटैचमेंट्स होंगी भी वो भी ख़त्म होती चली जा रही हैं”

वो कुछ कहतीं इतने में नौकरानी ने धीरे से दरवाज़ा खोला। उसे देखते ही दीदी फिर भड़कीं,

“क्या कर रही हो तुम? इतनी देर से ये आयी हैं। चाय नाश्ता कुछ भी नहीं भिजवाया”

“ सोहन से कपड़े धुलवा रही थी”, “ बुलाओ उसको”

चौदह पंद्रह साल का लड़का सिर झुकाकर उनके सामने आकर खड़ा हो गया। दीदी की बमबारी फिर से शुरू हो गयी।

“नौकरी मांगते वक्त तू क्या बोला था, कि हम धोबी हैं हमको कपड़ा धोना सिखाने की ज़रूरत नहीं है और अब, रोज़ तुमको, राधा कपड़े धोना सिखा रही है। वाशिंग मशीन तक बिगाड़ कर रख दी तुमने”

उसके जाने के बाद वो बताती रहीं कि,कैसे उनके पति के ऑफिस के नरेंद्र बाबू ने चमचागिरी करके, लड़के के मां बाप के ऑपरेशन का बहाना बनाकर ये लड़का उनके यहां काम पर लगा दिया। दो महीने की एडवांस तनख़्वाह भी इसे दिलवा दी और ढंग से एक कपड़ा तक धोना नहीं आता इसे”

दुख से जड़ीभूत होकर मैं बैठी रही। सचमुच कितना शोषण, कितनी नीच प्रवृत्ति, कितना स्वार्थ भरा पड़ा है लोगों के मन में। दाई नौकर हैं तो वही हाल, भाई बहन हैं तो वही हाल, पति का तो कहना ही क्या? कौन नहीं जानता कि, दीदी की अद्भुत सुंदरता, ऊंची शिक्षा, ऊंचे घराने के कारण ही हर तरफ़ से हीन उनके पति ने उनसे प्रेम की पींगें बढ़ायीं, शादी की और सफलता की सीढ़ियां चढ़ते चले गये। और अब, न उनकी भावनाओं को समझते हैं न संवेदनाओं की ही कद्र करते हैं।

“ छोड़िये दीदी।” मैंने दुखी होकर कहा, ”ये दुनिया आपके लिये नहीं थी। कहीं और चली चलिए”

“कहां जाएंगे?”

“ किसी आश्रम वग़ैरह में जहां आपका कोई शोषण नहीं करेगा” मैंने उत्साह से भरकर कहा,” बल्कि आपको कोई समाजसेवा का काम मिल जाए, जैसे बच्चों को पढ़ाने या अपाहिजों को कुछ सिखाने का तो आपका मन भी लग जाएगा। आप उनसे ज़रा सा करेंगी तो वो, आपको इतना प्यार देंगे कि, आपकी आत्मा तृप्त हो जाएगी”

“ पागल हो गयी है क्या?” मैं उनकी डांट सुनकर सटपटा गयी, अपनी सफ़ेद पट्टियों से घिरे चेहरे में धसीं क्रुद्ध आंखों से मुझे घूरते हुए बोलीं,

“ तुम तो मेरा घर तुड़वा कर रहोगी। ज़िंदगी भर का संघर्ष, त्याग किसलिए किया मैंने? इसी घर पर अपने अधिकार के लिए न? और अब, अपना घर छोड़कर समाजसेवा में जुट जाऊं! क्यों छोड़ूं मैं अपना घर? इस घर में मेरा राज है। पति का क्या है। जगह जगह घूमते रहते हैं। कभी भाषण, कभी उद्घाटन, कॉन्फ्रेंस वग़ैरह वग़ैरह। असली राज तो मेरा ही है, मेरे एक इशारे पर ये लोग थर थर कांपते हैं”

क्रोध में बिलबिलाती वो उठ खड़ी हुईं और मैं सिटपिटाकर उठ कर खड़ी हो गयी। किसी ने सच ही कहा है कि, “हर औरत को अपना पिंजरा ही प्यारा लगता है”

-पुष्पा भाटिया

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