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3 घंटे पहलेलेखक: मरजिया जाफर

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चिलचिलाती धूप और लू के थपेड़ों के बीच भारत लोकतंत्र का पर्व मना रहा है। देश में आम चुनाव के लिए पहले चरण की वोटिंग हो गई। आने वालों चरणों में गर्मी और घूप अपने शबाबा पर होगी। मतदान के अनुभव को बेहतर बनाने के लिए चुनाव आयोग हर मतदान केंद्र पर प्याऊशाला का इंतिजाम कर रहा हैं। इनमें पीने का पानी, के अलावा शौचालय और व्हीलचेयर की सुविधा भी शामिल है।

फुरसत का रविवार है, गर्मी अपने शबाब पर है। वोटर की लंबी कतार का हिस्सा है तो पार्टियां और प्रशासन ने आपकी प्यास बुझाने और मतदाताओं को सहराब करने के लिए पोलिंग बूत पर प्याऊ का बंदोबस्त किया है। लेकिन इस गर्मी कोशिश करें हर प्यासे को पानी पीलाएं चाहे वो इंसान हो या पशु-पक्षी। इस नेक काम को करने से पहले प्याऊ शाला के कुछ नियम और शुरूआत के बारे में जान लिजिए।

भारत में एक वो भी दौर था जब पानी की खरीद-फरोख्त को गुनाह माना जाता था। उस दौर में देश में पानी पीने और पिलाने की कई अनोखी परंपराएं जैसे ‘प्याऊ संस्कृति’ थी जिसमें पानी पीने और पिलाने का रिवाज था। बोतलबंद पानी के कल्चर के बीच भूली-बिसरी ‘प्याऊ संस्कृति’ को एक बार फिर से याद कर लेना चाहिए।

….यूं हुई प्याऊशाला की शुरूआत

दरअसल प्याउ शाला की शुरूआत मां गंगा के धरती पर आने के बाद से ही हुई। इसके लिए राजा भगीरथ ने कड़ी तपस्या की थी। यही वजह है कि देश भर में लोग गंगा दशहरा के दिन लोग प्याऊ लगवाते हैं। प्याऊ लगवाना, तालाब या कुंए खुदवाना नेक काम में गिना जाता है।

पानी पिलाना नेक काम

पानी पिलाना हर धर्म में पुण्य माना जाता है। गांव में अगर पानी बिना मीठे के दे दिया जाए तो लोग बुरा मानते हैं। समझ लिजिए ये मेहमान नवाजी की तौहीन है। कोई मेहमान हो या फिर राहगीर, मुसाफिर उसे पीने के पानी के साथ कुछ खाने को भी दिया जाता था। ऐसा नहीं करने पर माना जाता कि ‘पानी सूखा’ और ‘खातिरदारी या इज्जत अधूरी’ है।

छागल या मश्किजा में भरकर पानी पिलाना

कुछ दशक पहले तक की बात है। बस, ट्रेन या किसी भी गाड़ी से सफर कर रहे लोग थैलीनुमा चीज को खिड़की से लटका देते थे। कोई भी राहगीर प्यास लगने पर उस थैली से पानी मांग कर पी लेता।

मोटे कपड़े की बनी इस थैली को ‘छागल’ कहते थे। बोतलबंद पानी का कारोबार शुरू होने से पहले लोग इसी थैली में पानी रख बाहर निकलते थे।

कई जगह यह छागल जानवरों के चमड़े से भी बनाई जाती थी जिसे अरबी भाषा में मश्किजा कहा जाता है। इसमें पानी ठंडा बना रहता है। बाहर जितनी ज्यादा गर्मी होती मश्किजा यानी छागल के अंदर का पानी उतना ही ठंडा होता जाता।

प्यास बुझाने का बिजनेस

आज एयरपोर्ट से लेकर रेलवे स्टेशन, बस अड्डे और छोटी-बड़ी दुकानों में पानी की बोतल मिल जाती है। आमतौर पर इन बोतलों की कीमत 20 रूपए से लेकर 300 रूपए तक होती है। कई बार ब्लैक वॉटर या नेचुरल ग्लेशियर वॉटर के नाम पर कस्टमर से हजारों रुपए ले लिए जाते हैं। लेकिन यह चलन बहुत पुराना नहीं है। कुछ दशक पहले तक पानी पिलाना बिजनेस की जगह सवाब यानि पुण्य और जिम्मेदारी का काम था। मतलब, जो इंसान गर्मी और बसंत में पानी पिलाने का इंतजाम करता है; उसके पुण्य का वर्णन हजारों लोग मिलकर भी नहीं कर सकते। दूसरे कई पुराणों में ‘जलदान’ को ‘गोदान’ के बराबर बताया गया है।

गुमशुदा ‘धर्मार्थ प्याऊ’

गर्मी के दिनों में जयपुर जैसे शहरों में खस की एक कुटिया डाली जाती। कुटिया में रेत पर 4-5 घड़े लगाए जाते। उसमें पानी के साथ केवड़ा और गुलाब जल मिलाया जाता।

कड़ी धूप में 4 महीने चलने वाले ‘धर्मार्थ प्याऊ’ का यही स्वरूप होता। कुछ जगहों पर इसे ‘पौशाला’ भी कहा जाता। इसके पास से गुजरते ही केवड़े-गुलाब जल की महक और ठंडे पानी की कल्पना लोगों को अपनी ओर खींच लेती।

छोटे प्याऊ राहगीरों के भरोसे ही चलते थे। जबकि बड़े और व्यस्त प्याऊ पर महिलाओं को काम पर रखा जाता था।लेकिन धीरे-धीरे ये प्याऊ गायब हो रहे हैं। कुछ शहरों में इनकी जगह आधुनिक वॉटर कूलर ने ले ली है। तो ज्यादातर जगह लोग बोतलबंद पानी खरीदकर पीते हैं।

गुरुद्वारा नानक प्याऊ

दिल्ली का पहला गुरुद्वारा वास्तव में एक प्याऊ है, जिसकी स्थापना खुद गुरु नानकदेव ने सन् 1505 में की थी, जब वह पहली बार दिल्ली आए थे। उन्होंने देखा कि यहां लोगों को पीने के लिए साफ पानी नहीं मिलता और जमीन से भी खारा पानी निकलता है। जिसके बाद उन्होंने मीठे पानी का एक सोता खोजा। जिसे प्याऊ का रूप दिया गया। आसपास के लोग यहां से पानी ले जाते थे।

500 साल बाद भी वह प्याऊ और गुरुद्वारा दिल्ली के जीटी करनाल रोड पर मौजूद है। प्याऊ के ही नाम पर उस गुरुद्वारे का नाम ‘गुरुद्वारा नानक प्याऊ’ पड़ा। यह प्याऊ आज भी आसपास के लोगों की प्यास बुझाता है। इसी तरह का एक प्याऊ बंगला साहिब गुरुद्वारे में भी है।

भिश्ती मश्क से पिलाते पानी

कुछ दशक पहले तक दिल्ली नगर निगम में ‘भिश्ती’ की स्थाई नियुक्ति होती थी। पुराने जमाने में भिश्ती बकरी के चमड़े से बने मश्क को कंधे पर ढोते। इसमें पानी भरा होता। साथ में तांबे का एक कटोरा होता। यह कटोरा खासतौर से भिश्तियों के लिए बनाया जाता।

इसकी पेंदी से छन-छन की आवाज आती। कंधे पर मश्क लटकाए भिश्ती कटोरे को बजाते चलते थे। यह प्यासे लोगों के लिए संकेत होता था। इस आवाज को सुनते ही लोग जमा हो जाते और भिश्ती मश्क के पानी से सबकी प्यास बुझाता।

दिल्ली के भिश्तियों का इतिहास भी कम रोचक नहीं है। सैकड़ों सालों तक चांदनी चौक और मीना बाजार की दुकानों की सुराहियों को भरने वाले भिश्ती मुगलों के साथ भारत आए और पूरे देश में फैल गए। बताया जाता है कि ये मुगल सेना के साथ चलते और युद्ध में सैनिकों को पानी पिलाते। बाद में अंग्रेजों ने भी इनकी नौकरी बहाल रखी। आजादी के बाद भी पुरानी दिल्ली इलाके में दिल्ली नगर निगम भिश्ती नियुक्त करता था।

पानी पिलाने के अलावा ये खास मौकों और पर्व-त्योहारों पर साफ हुई सड़कों पर पानी का छिड़काव करते। इसके लिए खास किस्म की मश्क का इस्तेमाल किया जाता। ‘जोशुआ प्रोजेक्ट’ के मुताबिक दिल्ली में लगभग 400 भिश्ती आज भी आबाद हैं। भारत-पाकिस्तान को मिलाकर इनकी आबादी 5 लाख के करीब है।

भिश्ती बना था भारत का बादशाह

भिश्ती और उसके एक दिन के लिए भारत का बादाशाह बनने की कहानी मशहूर है। बात बादशाह हुमायूं के जमाने की है। सन् 1539 में मुगल बादशाह हुमायूं चौसा के युद्ध में शेरशाह सूरी से बुरी तरह हार गए। शेरशाह के सैनिकों से भागते हुए हुमायूं ने उफनती गंगा में छलांग लगा दी और वह डूबने लगा। तभी किनारे पर पानी भर रहे एक भिश्ती की नजर डूबते बादशाह पर पड़ी और उसने हुंमायू की जान बचाई।

बाद में जब हुमायूं ने दिल्ली की सत्ता वापस हासिल की तो उसने अपनी जान बचाने वाले भिश्ती निजाम को ढूंढ निकाला और उसे एक दिन के लिए बादशाह बना दिया। इस एक दिन को निजाम भिश्ती ने बखूबी भुनाया और अपने नाम से चमड़े का बना सिक्का जारी किया।

अंग्रेजों के जमाने में ‘पानी पांडे’ सीट तक पहुंचाते थे पानी

अंग्रेजों ने जब देश भर में रेलवे का जाल बिछाया; उस वक्त हैंडपंप की तकनीक भी विकसित नहीं हुई थी। ताल-तलैया और कुंआ, बावड़ी, नदी से ही पानी पिया जाता। सड़क मार्ग से चलने वाले लोगों के लिए कहीं रुककर इसमें से किसी जगह पानी पी लेना आसान था। लेकिन लंबी दूरी की रेल यात्रा में रुककर पानी पीना संभव नहीं था।

ऐसे में अंग्रजों ने शुरुआती दौर में ही रेलवे में ‘वॉटर मैन’ रखने शुरू कर दिए। इनका काम लंबे सफर के दौरान वक्त-वक्त पर हर सीट पर जाकर लोगों को पानी पिलाना था। आम लोगों में ये ‘वॉटर मैन’ आगे चलकर ‘पानी पांडे’ के नाम से मशहूर हुए। अंग्रजों के जाने के बाद जब जगजीवन राम देश के रेल मंत्री बने तो छुआछूत की कुप्रथा मिटाने के लिए उन्होंने बड़े पैमाने पर दलित ‘पानी पांडे’ नियुक्त किए।

मश्किजा, भिश्ती, धर्मार्थ प्याऊ, पानी-पांडे गुजरे जमाने की बात

मश्क, भिश्ती, धर्मार्थ प्याऊ और पानी पांडे अब गुजरे जमाने की बात हैं। नया चलन बोतलबंद पानी का है। यह सभी जानते हैं कि पानी बनाया नहीं जाता। लेकिन फिर भी इसकी पैकेजिंग और लोगों तक पहुंचाने का कारोबार 25 लाख करोड़ रुपए का है। 2030 तक इसके बढ़कर 45 लाख करोड़ रुपए से ज्यादा हो जाने की संभावना है। यूनाइटेड नेशंस यूनिवर्सिटी की एक स्टडी के मुताबिक दुनिया भर में हर मिनट पानी की 10 लाख बोतलें बिकती हैं।

पानी की बिक्री का शुरु में मजाक उड़ा

साल 1965 में मुंबई के ठाणे में बिसलेरी ने देश का पहला वॉटर प्लांट लगाया। तब लोगों को यकीन नहीं हो रहा था कि आने वाले वक्त में पानी की भी खरीद-बिक्री हो सकती है। शुरुआती दौर में इस बिजनेस का बहुत मजाक उड़ा। लेकिन 2021 आते-आते भारत में ही बोतलबंद पानी का कारोबार 20 हजार करोड़ रुपए का हो गया। पानी हमारे जीवन का अहम हिस्सा है। चाहे इसे खरीद कर पिएं या फिर किसी प्याऊ से। बिना पानी हमारा काम नहीं चलेगा।

रहीम ने लिखा-

रहिमन पानी राखिये, बिन पानी सब सून।

पानी गये न ऊबरे, मोती, मानुष, चून॥

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