56 मिनट पहलेलेखक: मरजिया जाफर

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नमस्ते दोस्तों……

मैं कुकु द्विवेदी इंदौर से हूं। मेरा बचपन बहुत ही खुशगवार गुजरा, जो अच्छी और खूबसूरत यादों के पिटारे से भरा है। पापा पेश से डॉक्टर थे और दूसरों की मदद करने वाला था। उनकी ये काबिलियत मेरे अंदर भी आ गई। पापा हमेशा सबकी मदद करते। हमारे घर में आए दिन दावतें हुआ करतीं। मां काफी लोगों का खाना बनाती। लोग आते जाते रहते। मम्मी-पापा सबके लिए हर वक्त खड़े रहते। हम ब्राह्मण हैं, लेकिन मेरे घर में हर जाति हर धर्म के लोगों का आना जाना रहता। दिमाग में कभी ऊंच नीच छुआ-छूत वाली बात नही आई।

22 साल की उम्र में नौकरी शुरू की

मैंने इंदौर से अपनी पढ़ाई पूरी की। पहले ही प्रयास में मुझे बैंक की नौकरी मिल गई। 22 साल की उम्र में मैंने 1977 में बैंक ऑफ इंडिया जॉइन कर लिया। इसी बीच, मैंने एलएलबी में भी एडमिशन ले लिया था।

बचपन से ही जरूरतमंदों की मदद करने का शौक

मुझे बचपन से ही लोगों की मदद करने का शौक था। स्कूल से लेकर हर जगह कभी भी मुझसे कोई मदद मांगता तो मैं कभी उसे मना नहीं करती। लेकिन उस वक्त मुझे नहीं पता था कि जो काम मैं कर रही हूं उसे सोशल वर्क कहते हैं, क्योंकि पापा और मां भी ऐसे ही काम किया करते थे। नौकरी में आने के बाद दूसरों की मदद का सिलसिला जारी रहा।

मेरे स्कूल के बच्चे पढ़ने में बहुत होशियार हैं।

मेरे स्कूल के बच्चे पढ़ने में बहुत होशियार हैं।

जीने के लिए कितनी कम चीजों की जरूरत होती है

मैं और मेरे पति दोनों बैंक में ही जॉब करते थे। पति के सपोर्ट से ही शादी के बाद भी दूसरों की मदद करने का सिलसिला जारी रहा। मुझे एक किस्सा आज भी यादा है, मेरे घर के पास एक लड़की रहती थी। उसके पापा ड्राइवर थे। वो लड़की पढ़ाई में बहुत होशियार थी। मेरी बेटी की हमउम्र रही होगी। मैंने उससे वादा किया कि तुमको जितना पढ़ना है पढ़ो, मैं तुम्हारी पढ़ाई का पूरा खर्च उठने के लिए तैयार हूं।

वो लोग इतने गरीब थे कि एक छोटे से कमरे में रहते। मैं एक दिन उनके घर घूमने गई तो एहसास हुआ कि जीने के लिए कितने कम जगह और सामान की जरूरत होती है। एक छोटा सा कमरा, उसी में किचन, पास में बाथरूम, परिवार में 4 लोग उसी कमरे में रहते।

लड़की ने मां-बाप को तोहफे में घर दिया

उस लड़की ने बीएससी की पढ़ाई पूरी करने के बाद नौकरी शुरू की। वो अपने मां पापा को एक घर गिफ्ट करना चाहती थी। उसने नौकरी करके कुछ पैसे जुटाए और लोन की मदद से अपने पेरेंट्स को एक वन रूम सेट घर गिफ्ट किया। मुझे ये सुनकर इतनी खुशी हुई कि लगा बच्ची के साथ साथ मेरी भी मेहनत रंग लाई।

महंगा इलाज गरीबों के बस की बात नहीं

नौकरी के दौरान ही मेरी बेटी की तबीयत खराब हो गई। बेटी का इलाज करते करते मुझे एहसास हुआ कि इलाज कराना कितना महंगा है। हम तो इस खर्च को उठा लेते हैं लेकिन उन लोगों का क्या जो दो वक्त की रोटी मुश्किल से जुटा पाते हैं। अगर उन्हें इलाज की जरूरत पड़ी तो वो क्या करेंगे। ये बात मेरे दिमाग पर इतनी हावी हो गई कि मैंने सोचा मेरे अकेले के करने से ज्यादा फर्क नहीं पड़ेगा क्यों न अपने ही सहकर्मियों से मदद की मांग की जाए।

हर कर्मचारी की तनख्वाह में से 10 रुपए काटने लगे

मैंने बैंक के यूनियन लीडर से कहा कि हम सब बैंक में काम करते हैं। अच्छी सैलरी भी है। हमें गरीब लोगों के इलाज में मदद करने के लिए कुछ योगदान करना चाहिए। उनको मेरी बात समझ आई। यही कोई करीबन 1980 के आसपास की बात होगी। उन्होंने हर कर्मचारी की तनख्वाह में से 10 रुपए काटने के लिए कहा। इंदौर ऑफिस में 400 कर्मचारी काम कर रहे थे। हमने बैंक ऑफ इंडिया नाम से एक समिति और एक अकाउंट बनाया। इसमें हर महीने चार हजार रुपए जमा होने लगे। धीरे धीरे करके जब उसमें 20 से 25 हजार रुपए जमा हो गए तो हमारे यूनियन लीडर ने मुझे बुलाकर कहा तुम्हारे लिए मैंने पैसे इकट्ठे कर दिए अब बताओ इसका क्या करना है।

ऑफिस एक घंटे लेट आने की छूट मिली

मैंने उनसे कहा मैं इस पैसे से लोगों की मेडिकल और एजुकेशन में मदद करना चाहती हूं। लेकिन अब मेरे सामने समय की कमी की दिक्कत आ रही थी कि ऑफिस के साथ-साथ इस काम के लिए कैसे वक्त निकालूं। मैंने उनसे कहा कि ज्वॉइंट फैमिली और बच्चे के साथ नौकरी कैसे होगी तो उन्होंने कहा कि मैं तुमको ऑफिस टाइमिंग से एक घंटे लेट आने की परमिशन दिला देता हूं। उस एक घंटे में तुम लोगों की मदद करना।

हॉस्पिटल से भी सैंपल वाली दवाइयां मिलने लगीं

सिलसिला शुरू हुआ। मैं घर से रोजाना ऑफिस के वक्त ही निकलती लेकिन वहां से इंदौर के सबसे मशहूर एमवाई सरकारी अस्पताल जाती। वहां जाकर मैं सारे डिपार्टमेंट में देखा तो लगा इतने पैसे नहीं है जो सबकी मदद हो सके, तो मैंने फैसला लिया कि पीडियाट्रिक डिपार्टमेंट में ही मदद के लिए पैसे लगाती हूं। जरूरतमंदों को हमने दवा के लिए मदद करना शुरू की। जाने लगी तो जूनियर डॉक्टर से जान पहचान हो गई। उन्होंने मुझसे कहा कि कंपनियों के प्रतिनिधि (एमआर) आते रहते है, वो हमें सैंपल के तौर पर काफी दवाइयां देते है, वो भी आप ले लीजिए। मैंने उनसे का ये तो बहुत अच्छी बात है।

हमने वहां एक कम्पाउंडर रख लिया

एक दिन मैं जूनियर डॉक्टर असोसिएशन से मिली और कहा कि इन दवाइयों को कहां रखूं। रोज घर ले जाना फिर लाना मेरे लिए मुश्किल है। मुझे अस्पताल में ही दवाइयां रखने की जगह भी मिल गई। इसी तरह धीरे धीरे जब लोगों को पता चला तो वो हमसे जुड़ने लगे। काम बढ़ने लगा, इतनी ज्यादा दवाइयां आने लगी कि हमें समझ नहीं आता था कि कौन सी दवा किस काम के लिए है। तो हमने वहां एक कम्पाउंडर रख लिया। वो अभी भी वहां काम कर रहे हैं।

पति की मौत के बाद डिस्टर्ब हो गई

बैंक के फंड के अलावा कुछ ऐसे लोग जुड़े जो हमें डोनेशन के नाम पर पैसों से मदद करने लगे। सब कुछ सही चल रहा था लेकिन 1995 में मेरे पति की अचानक मौत हो गई। जिसकी वजह से मैं काफी दिनों तक डिस्टर्ब रही। उन दिनों हमारे साथियों ने ही उस संस्था को संभाला। उसके बाद हमने उसका नाम बदलकर सहायक संस्था रख दिया। क्योंकि उसमें बाहर से भी लोग जुड़ने लगे थे। अब हर महीने एक से डेढ़ लाख रूपए की दवाइयां आती है।

शिक्षा के लिए इलाज करना बेहतर

मुझे एक दिन एहसास हुआ कि हम किसी की दवा देकर सिर्फ उनके इलाज में मदद कर सकते हैं। अगर सच में गरीबों की मदद करनी है तो उन्हें पढ़ाना चाहिए। जब एक व्यक्ति पढ़ लिख कर सक्षम बन जाएगा तो वो अपना इलाज भी करा लेगा।

आदिवासी बच्चों को पढ़ाती हूं

मेरी एक दोस्त थीं डॉ. अनुराधा, जो आर्मी में मेडिकल सेवा देती थीं। उनका भी रुझान लोगों की मदद करने में था। वह 1995 में आर्मी की नौकरी से रिटायरमेंट लेकर इंदौर से 3 धंटे की दूर खरगोन शिफ्ट हो गईं। वहां उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी गांव के आदिवासी बच्चों को पढ़ाने में लगा दी। मैं इस संस्था की ट्रस्टी थी, कभी कभी आती रहती। लेकिन अनुराध तो यहीं रहती थी। वो मुझे कहतीं- यहीं शिफ्ट हो जाओ, दोनों मिलकर काम करेंगे। लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों की वजह से मैं यहां रुक नहीं पाती।

पिछले साल मार्च में अनुराधा की अचानक कार्डिक अरेस्ट की वजह से मृत्यु हो गई। मैंने 2007 में बैंक की नौकरी से वीआरएस ले लिया। अब 12 एकड़ में फैले स्कूल और हॉस्टल को मैं ही देख रही हूं। मैं परमानेंट यहीं शिफ्ट हो गई हूं। ये बहुत ही खूबसूरत जगह है। पहले भी मैंने यहां अनुराधा के साथ हेल्थ कैंप में गांव-गांव जाकर लोगों को जागरूक करने का काम किया।

स्कूल में आज 200 बच्चे हैं

धीरे-धीरे कुछ बच्चों के पेरेंट्स को हम पर भरोसा हुआ तो उन्होंने अपने बच्चों को हमारे पास पढ़ने भेज दिया। 8-10 बच्चों से इस स्कूल की शुरूआत हुई। धीरे-धीरे लोगों को हमपर विश्वास हुआ। आज स्कूल में 200 बच्चे पढ़ रहे हैं। इनमें 35 बच्चे डिसएबल हैं जिनके लिए हमने स्पेशल टीचर अप्वाइंट किए हैं।

गांव में भी जल्दी शादी करने का चलन

यहां 12वीं तक का सरकारी स्कूल भी है। मैं चाहती हूं कि जो बच्चे हमारे स्कूल से पास आउट हो गए हैं उन्हें यहां एडमिशन मिल जाए। लेकिन अभी भी गांव में बच्चों की जल्दी शादी कर देते हैं। इसलिए बच्चे पढ़ाई छोड़कर खेती में लग जाते हैं। लेकिन कुछ बच्चे पढ़ रहे हैं। एक बच्चा मुझसे मिलने भी आया। जिससे मिलकर मुझे बहुत खुशी हुई। वो कह रहा था मैडम घर वाले शादी का दबाव बना रहे हैं लेकिन मैंने मना कर दिया। मैं पढ़ना चाहता हूं।

बच्चियां मलखम बहुत अच्छा खेलती

लड़कियों को हम स्पोर्टस् के लिए भी प्रैक्टिस कराते हैं। हमारे स्कूल की बच्चियां मलखम बहुत अच्छा खेलती हैं। वो नेशनल लेवल तक जा चुकी हैं। मलखम में खिलाड़ी मलखम रोप पर खुद को लटकाकर कर्तब दिखाता है। स्टूडेंट को ऑल राउंडर बनाने के लिए हम इन्हें आर्ट एंड क्राफ्ट, सिलाई कढ़ाई भी सिखाते हैं। हम हेल्थ कैंम्प और पीरियड्स अवेरनेस के लिए भी काम करते है। बच्चियों को सैनेटरी पैड बांटे जाते हैं। पैसों की दिक्कत है। स्कूल और हॉस्टल के लिए महीने के 4 से 5 लाख रुपए का खर्च आता है जिसका हर महीने इंतजाम कर मुश्किल है। सरकार की तरफ से एक रुपए की मदद नहीं है।

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