नई दिल्ली3 घंटे पहलेलेखक: संजय सिन्हा
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मैं प्रीति पुरैना रायपुर के तिलदा ब्लॉक के बेलदारसिवनी गांव की रहने वाली हूं। सतनामी समाज से आती हूं जो कि शिड्यूल कास्ट (एससी) है।
बचपन से ही घर-परिवार में तंगहाली देखी, दुख सहा। पिछड़ी जाति होने का दंश और उपेक्षा झेली। इन सबके बावजूद पढ़ी और आगे बढ़ी।
35 साल की हो गई हूं और इसमें से 15 साल मैंने खुद को महिलाओं को सशक्त करने में लगाए हैं।
तिलदा ब्लॉक के 55 गांवों में महिलाओं का समूह बनाया जिन्हें कई तरह की ट्रेनिंग दी।
इन समूहों में से कई महिलाएं ईंट बनाती, मछली पालन करती हैं, बकरी पालती, सब्जी उगाती और बेचती हैं। कई महिलाएं दोना-पत्तल भी बनाती हैं जिन्हें बेचकर वे दिन में 150-200 रुपए कमा लेती हैं।
पंचायत चुनावों के लिए महिलाओं को तैयार किया
मेरी बात आपको चौंका सकता है। लेकिन सच यही है कि हम ग्रामीण इलाकों में महिलाओं को पंचायत चुनावों के लिए तैयार करते हैं।
ये दलित बहुल इलाका है तो सीटें रिजर्व होती हैं। जब कोई दलित समुदाय की महिला चुनाव में खड़ी होती है तो उसे कामकाज के तरीके नहीं पता होते।
हम उन्हें लोकल गवर्नेंस की बारिकियां सिखाते हैं। सरपंच और जनपद सदस्य बनने की ट्रेनिंग देते हैं।
मैं अपनी संस्था ‘पहल’ के जरिए महिलाओं को हुनरमंद बनने में मदद करती हूं जिससे उन्हें रोटी रोजी कमाने में मदद मिलती है।
साथ ही दिव्यांगों की पढ़ाई-लिखाई के लिए काम करती हूं। छत्तीसगढ़ की कला संस्कृति को भी संरक्षित कर रही हूं। जिससे आने वाली पीढ़ी इन गुम होती विधाओं को जान सके।
इसलिए छत्तीसगढ़ शासन के साथ मिलकर काम करती हूं। ऐसे कलाकारों को मंच दिलाने का भी काम करती हूं।
पिता का एक हाथ कटा, रिश्तेदारों ने पीठ दिखाई
हमारा परिवार बेहद गरीब रहा। न जमीन न कोई दूसरी प्रॉपर्टी। 3 भाई और एक बहन का परिवार बस एक कमरे में रहता।
जब मैं दूसरी कक्षा में थी तब पिता रायपुर में लोहे की एक फैक्टरी में काम करने गए। उनकी ड्यूटी के तीसरे ही दिन मशीन की सफाई करते वक्त किसी ने बिजली का स्विच ऑन कर दिया। पिता का बायां हाथ कट कर मशीन में गिर गया।
पिता का हाथ क्या कटा, सबने मुंह फेर लिया। कोई मदद को आगे नहीं आया। कंपनी ने थोड़ा बहुत इलाज कराया, लेकिन फिर सबकुछ ठप हो गया।
प्रीति पुरैना को महिला सशक्तिकरण के लिए दिया गया सम्मान।
तालाब की खुदाई में मां के साथ काम करती
जब 13-14 की हुई तब परिवार की तंगहाली, विवशता को समझने लगी। कोई कमाकर लाने वाला नहीं था। पिता एक हाथ से ही खंती चलाते, मिट्टी काटते। जब भी गांव में तालाब खोदा जाता या गहरीकरण किया जाता तो पूरा परिवार मिलकर काम करता।
कई बार लोग अपने खेतों में सिंचाई के लिए छोटे तालाब खुदवाते। तब हम भाई-बहन मां-बाप के साथ मिलकर तालाब के लिए मिट्टी काटते।
कई बार सरकारी अधिकारी तालाब खुदवाते। तब मनरेगा नहीं था, उस समय इसे राहत कार्य कहते। काम के बदले हमें ‘डंगी’ मिलता। 1 डंगी बनाने पर 2 किलो धान मिलता।
1 डंगी 7 फीट लंबा और 7 फीट चौड़ा होता। इतने एरिया में जितना मिट्टी आपने फेंकी वही डंगी है। हम 5 डंगी फेंकते तो 10 किलो धान मिलता।
धान 5 रुपए किलो बिकता तो 50-60 रुपए मिल जाते। इसी से परिवार चलता।
गाय के गोबर में से फल चुनते, धोकर बेचते
गरीबी क्या नहीं करवाती। 2-5 रुपए के लिए भी हमने क्या-क्या नहीं किया। हमारे इलाके में बबूल के अनगिनत पेड़ हैं। इसके फल पकने पर टूटकर गिरते हैं। हम भाई बहन बबूल का फल चुनने जाते।
उसे 2 रुपए किलो बेचते। दिनभर में 3 से 4 किलो फल चुन लेते तो 10-12 रुपए मिल जाते।
गायें इन बीजों को खा जातीं। हम उनके कंडे को खंगालते, उसमें से बबूल का बीज निकालते, तालाब में धोते, सुखाते और फिर उसे 1 रुपए किलो पर बेच आते।
छोटी थैली, बोरी लेकर खेत-खेत घूमते।
पंचायत में लोगों को ट्रेनिंग देती प्रीति।
सुबह-शाम खाना पकाती, स्कूल जाती
मैं एक भाई के बाद दूसरे नंबर पर हूं। मेरी मां दूसरे के खेतों में मजदूरी करने सुबह ही निकल जाती।मैं घर का सारा काम करती। सुबह-शाम खाना पकाती, भाइयों को खिलाती और फिर स्कूल जाती।
कई बार खेतों में फसल कट जाती तो बचे हुए सरकंडे को काटने के लिए भी हम जाते। इसके बदले मात्र 10 रुपए मिलते। गांव में किसी का घर बन रहा हो या कुआं खोदा जा रहा हो हम उसमें काम करते। ऐसे छोटे-छोटे काम करके भी हमने पढ़ाई नहीं छोड़ी।
दादा ने मेरी शादी के लिए लड़का देखा, मां-बाप ने बचाया
आठवीं में मैं 14 साल की थी। इस उम्र में ही दादा मेरे लिए लड़का देखने लगे।
लेकिन मां-पिता ने साफ मना कर दिया। तब चेतना संघ के अध्यक्ष मुन्ना नारंग महिला सशक्तिकरण के लिए काफी कुछ कर रहे थे।
उन्होंने कहा कि लड़की की शादी मत करिए। अगर पैसों की तंगी तो मैं इस लड़की को अपने पास रखकर पढ़ाऊंगा।
उनकी फैमिली 2-3 किमी दूर ही रहती थी। मैं उनके परिवार के साथ रहने लगी। तीज-त्योहार में ही घर आती।
मुझे उन्होंने स्कूल आने-जाने के लिए साइकिल खरीद कर दी। 12वीं के साथ कॉलेज की पढ़ाई का सारा खर्च उन्होंने ही उठाया। इस दौरान ही मैंने महिला सशक्तीकरण के कामों को देखा-समझा।
आज मैं ‘पहल’ संस्था की डायरेक्टर हूं।
निचली जाति की लड़की सरपंच कैसे बनेगी
मैंने 21 साल की उम्र में पंयायत का चुनाव लड़ा। मेरे चुनाव लड़ने पर काफी विरोध हुआ। गांव के कई लोग कहते कि एक निचली जाति की लड़की को हम सरपंच कैसे बनाएंगे।
क्या हम उसके घर दस्तखत कराने जाएंगे, उसके घर का चाय पिएंगे। वो कहते कि सतनामी समुदाय की लड़की को हम सरपंच के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे। मैं चुनाव हार गई।
लोग मेरे चरित्र पर लांछन लगाते
मैं महिला समूहों के लिए काम करने लगी। तब कई लोग मेरे चरित्र पर लांछन लगाते कि ये लड़कों के साथ आती-जाती है।
माता-पिता को उलाहना देते कि गांव की सब लड़कियों की शादी हो रही है आप अपनी बेटी की शादी क्यों नहीं कर रहे।
तब मैंने सब कुछ सहा, उनका सामना किया। पंचायत चुनाव में खुद को जिस तरह से मैंने पेश किया, उससे मेरी छवि बदली। आज गांव वाले अपनी बेटियों को मेरा उदाहरण देते हैं।
सामाजिक भोज में हमें नहीं बुलाया जाता
आज भी समाज में छुआछूत है। पढ़ाई-लिखाई, रहन-सहन बेहतर होने और जागरुकता फैलने से मैं कथित ऊंची जाति के लोगों के घर आती-जाती हूं, खाना खाती हूं, वो भी हमारे घर आते-जाते हैं। लेकिन जब सामाजिक बैठक या भोज की बात होती है तो हमारा बहिष्कार होता है।
हम ऊंची जाति के लोगों के साथ एक पंक्ति में बैठकर खा नहीं सकते।
अगर ऊंची जाति का कोई व्यक्ति हमारे सामाजिक बैठक में शामिल होता है तो उनका समुदाय उन्हें सजा देता है। मैं हमेशा से इन बातों का विरोध करती हूं। आज भी समाज में कुछ लोग हैं जो जाति प्रथा को बनाए रखना चाहते हैं।