1 घंटे पहलेलेखक: कमला बडोनी

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पता नहीं था कि बेटे को मजबूरी में साइकिल से स्कूल पहुंचाने का फैसला उन्हें अपने बचपन के पुराने शौक से मिलवाएगा जो नई पहचान भी देगा। 41 साल की उम्र में बेटे के दोस्त की साइकिल मांगकर रेस में हिस्सा लेने की पहल उन्हें एक नई दिशा देगी और वह चल पड़ेंगी कामयाबी की एक नई कहानी लिखने। ‘ये मैं हूं’ में पढ़िए साइकिलिस्ट वंदना सिंह की कहानी…

बचपन में हुआ साइकिल से प्यार

पापा एनएमडीसी में काम करते थे इसलिए मेरी शुरुआती पढ़ाई पन्ना, मध्यप्रदेश में हुई। पन्ना में पढ़ते हुए मैं रोज शाम में पड़ोस वाले अंकल की साइकिल चलाया करती और वे मुझे कभी मना न करते। लेकिन कुछ सालों बाद हमें फिर अपने घर पिथौरागढ़, उत्तराखंड लौटना पड़ा। आगे की पढ़ाई गांव में ही करनी पड़ी। मुझे साइकिल चलाना अच्छा लगता था, लेकिन पहाड़ में मेरे लिए साइकिल कौन लाता। तब पहाड़ में कोई साइकिल चलाता ही नहीं था। धीरे-धीरे मेरा साइकिल प्रेम मन में ही सिमट कर रह गया।

खेलने को तरस जाती

हम चार बहनों में मैं सबसे छोटी हूं। मैं खुशनसीब हूं कि मुझे पढ़ने का अवसर मिला, मेरी बहनों की जल्दी शादी कर दी गई, जिसके कारण उनकी पढ़ाई पूरी नहीं हो सकी। मैं सबसे छोटी थी इसलिए पिताजी ने मुझे पढ़ने से नहीं रोका।

मुझे खेलना अच्छा लगता था, लेकिन हमारे गांव में लड़कियों के लिए खेलने का कोई माहौल नहीं था। स्कूल से लौटने के बाद हमें घर के कामों में हाथ बंटाना पड़ता। जंगल से घास लानी होती। हमारे पास खेलने के लिए पेड़ों पर लटकना, उन पर झूला झूलना या पिट्ठू खेलना, यही विकल्प होते थे।

जब मैं स्कूल में थी तो सिर्फ लड़कों को ही एनसीसी या स्पोर्ट्स के लिए ले जाते थे।

तीन दिनों तक दर्द से कराहती रही

ग्रेजुएशन करते ही मेरी शादी कर दी गई। पति स्कूल टीचर थे और मुझे घर संभालने के साथ साथ खेती-बाड़ी के काम करने होते थे। शादी के बाद घर में साड़ी पहनना जरूरी था। खेत, जंगल जाते समय भी साड़ी पहनकर ही काम करना होता था। पति का ट्रांसफर दूर के गांवों में होता रहता था।

एक बार घास काटते हुए मैं पेड़ से गिर गई और मेरी कमर में गहरी चोट लग गई। मैं दर्द के कारण उठ भी नहीं पा रही थी। तब गांव का एक भतीजा मुझे अपनी पीठ पर उठाकर घर लाया।

पति दूर के गांव में स्कूल में पढ़ाते थे और वहीं रहते भी थे। घर में मेरी बूढ़ी सास और 2 साल की बेटी थी। उस समय मोबाइल नहीं होते थे। जिस गांव में पति पढ़ाते थे वहां किसी के घर फोन करके किसी तरह उन तक खबर पहुंचाई गई।

खबर मिलने के तीन दिन बाद पति घर पहुंचे और इन तीनों में मैं घर में दर्द से कराहती रही। मुझे इलाज के लिए ले जाया गया। मेरे लिए खड़े रहना मुश्किल था इसलिए दो डंडों पर तिरपाल बांधकर स्ट्रेचर बनाया गया और मुझे उस पर लिटाकर इलाज के लिए ले जाया गया। 7-8 किलोमीटर पैदल ले जाने के बाद जीप का बंदोबस्त हुआ और मुझे हॉस्पिटल पहुंचाया गया।

इलाज के दौरान करीब 3 महीने तक मैं मायके में अपनी मां के पास रही, फिर पति मुझे अपने साथ ले गए। तब मेरे जीवन में बदलाव आने शुरू हुए। जब कमर की तकलीफ ठीक हुई उसके बाद बेटा हुआ। हालांकि अब भी झुकते समय कमर में तकलीफ होती है।

बेटे को साइकिल से स्कूल ले जाती

बच्चों की पढ़ाई की खातिर हम देहरादून आ गए। यहां बेटी तो खुद साइकिल से स्कूल चली जाती थी, लेकिन बेटा छोटा था इसलिए उसे अकेले भेजने में मुझे डर लगता था। जब कुछ नहीं सूझा तो मैं खुद साइकिल चलाकर बेटे को स्कूल लाने-ले जाने लगी। सलवार-कमीज पहनकर साइकिल चलाते हुए कई बार दुपट्टा पैडल में फंस जाता, लेकिन मैं कमर में दुपट्टा बांधकर पूरे आत्मविश्वास के साथ साइकिल चलाती।

तब आसपास की कोई महिला मेरी तरह साइकिल चलाकर बच्चों को स्कूल छोड़ने नहीं जाती थी, लेकिन कभी इन बातों पर ध्यान नहीं दिया। बेटे का स्कूल 11 किलोमीटर दूर था, तो उसे स्कूल छोड़कर घर के काम निपटाती और फिर उसे लेने जाती। इस तरह मैं दिनभर में 44 किलोमीटर साइकिल चला लेती थी। साइकिल चलाना मुझे पसंद था इसलिए मुझे कभी थकान का एहसास नहीं हुआ।

41 साल में पहली साइकिल रेस

जब बच्चे बड़े हो गए तो मुझे अपने लिए टाइम मिलने लगा। मैं रोज सुबह दौड़ने या साइकिल चलाने चली जाती थी। एक दिन मैंने अखबार में साइकिल रेस के बारे में पढ़ा। मेरी भी इच्छा हुई कि मैं रेस का हिस्सा बनूं। मैंने इस बारे में पति से पूछा तो ‘हां’ कर दी। मैंने फोन करके साइकिल रेस के बारे में पता किया और अपना नाम रजिस्टर करा दिया। लेकिन रेस के लिए हमारे पास अच्छी साइकिल नहीं थी।

मुझे पहचान मिलने लगी

अब मुझे साइकिल रेस के नियम और अच्छी साइकिल के बारे में पता चल चुका था। फिर मैंने नई साइकिल, हेलमेट, जूते खरीदे। बीएसएफ की साइकिल रेस में हिस्सा लिया, जिसमें मुझे सेकेंड प्राइज मिला। ४१ की उम्र में साइकिल रेस के लिए प्राइज मिलना मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी।

उसके बाद तो एक के बाद कई अवॉर्ड्स मिलते गए, कभी पीछे मुड़कर देखने की जरूरत ही पड़ी। साइकिल रेस में हिस्सा लेने के लिए मैं अरुणाचल प्रदेश, मसूरी, दिल्ली, कलकत्ता जैसे देशभर में कई शहरों में जा चुकी हूं। मैंने कई साइकिल रेस के साथ साथ मैराथन में भी हिस्सा लेना शुरू किया।

परिवार का सपोर्ट

साइकिल रेस के मेरे सफर में परिवार का बहुत योगदान रहा है। पति और दोनों बच्चों ने हमेशा मेरा हौसला बढ़ाया है। साड़ी, सलवार-कमीज, ट्रैक सूट से लेकर अब साइकिलिंग किट पहनने के लिए पति ने कभी रोका-टोका नहीं। साइकिल की प्रैक्टिस के दौरान मेरे बाल उलझ जाते। जब मैंने पति से बाल छोटे कराने की इच्छा जताई तो उन्होंने फौरन ‘हां’ कर दी। मेरे दोनों बच्चे मुझे नई नई टेकनीक के बारे में बताते हैं, खुद की ग्रूमिंग करना सिखाते हैं। मेरा ये मानना है कि परिवार का साथ हो तो हर महिला आगे बढ़ सकती है।

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