3 घंटे पहले

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“एनी थिंग एल्स, सर?” सैफी ने फाइल अपने बॉस सर्वांग के सामने रखकर पूछा। सर्वांग ने बिना उसकी ओर देखे फाइल ठीक से पढ़ी फिर उसकी ओर देखा। सैफी के चेहरे पर विनम्र मुस्कान थी। वहां थकान या शिकायत का नामोनिशान नहीं था। सर्वांग के चेहरे पर प्रशंसा भरी मुस्कान आ गई- “वेल डन, वेरी गुड” “सो, कैन आई गो?” सैफी के पूछने पर सर्वांग ने पहले घड़ी देखी – “नो, नो, दस बजे हैं रात के। इस समय तुम्हारा अकेले घर जाना ठीक नहीं। मैं छोड़ देता हूं।” सैफी घबरा गई। उसे मां की हिदायत याद आई। कोई किसी की परवाह बिना वजह नहीं करता। ‘बॉस से दूरी बनाकर रखना। कोई प्रिविलेज अपनी ओर से तो मांगना नहीं, खुद से ऑफर करें तो भी मना कर देना।’ “इट्स ऑल राइट सर, मैं चली जाऊंगी। मेट्रो सेफ है और वो ग्यारह बजे तक मिलती है।” “ठीक है, पर मेट्रो स्टेशन से तुम्हारे घर का रास्ता? वो सेफ है?” सैफी कुछ बोल न सकी। सच में रास्ता सुनसान था और वहां कोई सवारी भी नहीं मिलती थी। अकेले रात में उस रास्ते से निकलने में डर तो लगता ही था।

बॉस ने कार रोकी तो सैफी को संकोच और सभ्यतावश कॉफी पूछनी पड़ी पर थैंक गॉड उन्होंने मना कर दी। मां गेट पर ही टहल रही थीं। उनके चेहरे पर चिंता की लकीरें सैफी को देखकर गुम हुईं या उसे बॉस की कार में आती देख बढ़ गईं, कहना मुश्किल था। सर्वांग ने उन्हें कार में बैठे-बैठे ही झुककर अभिवादन किया। मां ने पूरी सभ्यता से दोनों हाथ जोड़कर अभिवादन का उत्तर देते हुए शुक्रिया कहा और सर्वांग ने कार तुरंत मोड़ ली।

इस तरह की सहायताएं आम होती जा रही थीं। सैफी के चहरे पर खुमारी साफ दिखने लगी थी। हरकतों में उसके मन की मिट्टी से उठने वाली सोंधी खुशबू सूंघी जा सकती थी। उसकी आवाज़ में उम्र के उस पड़ाव की खनक सुनाई देने लगी थी, जिसे प्यार कहते हैं और मां की चिंता बढ़ती जा रही थी…

रात में मां और सैफी हमेशा की तरह छत पर टहल रहे थे। मां के चेहरे पर चिंता की लकीरें स्पष्ट थीं। “मां, काम सच में ज़रूरी था। बॉस ने जानबूझकर नहीं निकाला था। और हां उन्होंने रुककर काम पूरा करने का दबाव भी नहीं डाला था। ये काम मैं ही कर सकती थी, इसीलिए मैंने हां की। ऑफिस देर रात काम करने का बोनस और हमारी कॉन्फिडेंशियल रिपोर्ट में क्रेडिट प्वॉइंट दोनों देता है इसीलिए मैं मना नहीं करती।”

मां के चेहरे पर आई फीकी सी मुस्कान को प्यारी वाली मुस्कान में बदलने के लिए सैफी ने आगे बोलना शुरू किया – “मेरे बॉस बहुत अच्छे इनसान हैं। वो सबकी परवाह करते हैं तो मेरी भी करते हैं। इसमें क्या गलत है? उस दिन जब मुझे बुखार था तो…” सैफी अपनी धुन में बॉस कि प्रशंसा किए जा रही थी। “तभी उसने इस प्रशंसा में वो वाक्य जोड़ दिया जिससे मां के चेहरे पर चिंता की लकीरें गहरी हो गईं। “पता नहीं इतने अच्छे इनसान के साथ ही इतना गलत क्यों होता है! उनकी पत्नी के बारे में सोचती हूं तो इतनी गुस्सा आती है कि क्या कहूं। कोई इतने भले आदमी को धोखा कैसे दे सकता है!..”

अब मां ने उसका वाक्य काट दिया – “मैं जानती हूं मेरी बेटी बहुत होशियार है, पर बेटा, क्या करूं मां हूं, इसलिए समय रहते तुझे कुछ समझाना चाहती हूं। तू कहे तो बोलूं?” सैफी के चेहरे पर हां का इशारा पाकर मां ने बात आगे बढ़ाई – “बेटा, समाज का माहौल कुछ ऐसा है कि सब लड़कियों को शरीर की सुरक्षा के लिए सतर्कता के नियमों के बारे में खुलकर समझाते हैं पर मन की सुरक्षा के लिए सतर्कता के नियम सिर्फ एक मां ही समझा सकती है।”

“बचपन में तुम अपने पिता के बारे में बहुत पूछा करती थी और मैं कहा करती थी कि समय आने पर बताऊंगी। है न?” “और समय आने पर मैं खुद समझ गई कि पापा तुम्हारी ज़िंदगी की किताब का वो पन्ना हैं, जिसे खोलने से तुम्हें दुख होगा, इसलिए मैंने खुद तुमसे कुछ भी पूछना बंद कर दिया। यकीन मानो मां, मैं तुम्हारी बहुत इज़्ज़त करती हूं और हमेशा करती रहूंगी। मुझे कोई फरक नहीं पड़ता इस बात से…” सैफी मुस्कुराई पर मां ने उसकी बात फिर काट दी – “और अगर मैं अपना दिल हल्का करने के लिए बताना चाहूं तो?” “तब तो मुझे बहुत खुशी होगी” सैफी चहक उठी और मां के दोनों हाथ पकड़कर टेरिस पर पड़े झूले पर ले आई। “ज़रा रुकना” कहकर वो कोल्ड-ड्रिंक की बॉटल और मनपसंद स्नैक्स भी ले आई।

“मैंने सोचा ही था कि तुम समझने लायक हो जाएगी तो सब बताऊंगी, पर वो कोई एक दिन तो होता नहीं है जब हमें लगे कि बच्चा बड़ा हो गया है। इसी चक्कर में रह गया।” मां ने तसल्ली से कहना शुरू किया।

“इक्कीस की हुई थी मैं। एक खुमारी और मदहोशी हर समय मन में गुनगुनाती रहती थी। मेरी जॉब लगी तो मैं सांतवें आसमान पर पहुंच गई। उन दिनों अपने शहर से दूर लड़कियों का नौकरी करने जाना इतना कॉमन नहीं था। मैं बहुत अच्छी एम्प्लाई थी। मेरे बॉस मुझसे बहुत खुश थे। वो बहुत अच्छे इनसान थे। ऐसे ही सबकी परवाह करते थे। धीरे-धीरे मुझे महसूस हुआ कि वो मेरी ज्यादा ही परवाह करने लगे हैं। मैं खुश थी। मैं भी उनकी बहुत परवाह करने लगी। उनके साथ मैं सेफ महसूस करती थी इसलिए कभी ओवरटाइम करने या उनके साथ कहीं बाहर जाने से मना नहीं करती थी। मेरी सबसे प्रिय सहेली ने एक दिन इशारा किया कि मैं अपने मन को सम्हालकर रखूं। मैं जानती थी कि वो विवाहित हैं इसलिए मुझे लगता था कि मेरा मन उनके साथ कभी नहीं बंधेगा।”

मां ने एक आह भरी और वो बहुत गंभीर हो गईं। “पर जैसे-जैसे मुझे उनके और उनकी पत्नी के बीच कड़ुआहटो का पता चला, दिल उनसे सहानुभूति रखने लगा। क्योंकि मैंने केवल उनका सौम्य रूप ही देखा था और उनका पक्ष ही सुना था, मुझे वो पूरी तरह से सही और उनकी पत्नी ही गलत लगते थे। हालांकि दिमाग से आवाज़ आती थी कि उनकी समस्याओं के दूसरे पहलू भी हो सकते हैं पर सैफी, बेटा, ये जो दिल होता है न, ये राजा होता है और वो भी दुनिया का सबसे तानाशाह राजा। ये किसी की नहीं सुनता। अगर इसे पहले कदम पर ही न रोक लिया जाए तो…सैफी, मुझे समझ ही नहीं आया, पता ही नहीं चला कि कब उनके प्रति मेरी सहानुभूति लगाव में, लगाव जुड़ाव में, जुड़ाव गहरे प्यार में बदलता गया। ये जो किसी के प्रति मन में नेह जैसे जज़्बे होते हैं न, ये उस फिसलन भरी सीढ़ी की तरह होते हैं जिन पर फिसलते हुए कब इनसान प्यार की गहरी झील में गिर जाएगा, कहा नहीं जा सकता।”

“जब तेरे आने की खबर देते हुए मैंने उनसे शादी की बात की तो उन्होंने साफ कह दिया कि उन्होंने शादी के लिए तो कभी कहा ही नहीं। चूंकि वो एक भले इनसान थे और अपनी पत्नी और बच्चों की भी उतनी ही परवाह करते थे जितनी स्टाफ की, वो उन्हें छोड़ नहीं सकते थे। हां, वो मेरी और तुम्हारी ज़िम्मेदारी लेने और तुझे अपना नाम देने को तैयार थे। उन्होंने अपनी पत्नी के सामने अपनी ‘भूल’ स्वीकार की और मुझसे ये भी कहा कि तुझे अपनी प्रॉपर्टी में हिस्सेदार बनाएंगे।”

“और तब उनकी पत्नी मुझसे मिलने आईं। पहली बार मैंने उसका पहलू देखा, उसका पक्ष सुना, जाना कि उनके बीच की कड़ुआहटों के लिए उनकी पत्नी अकेले ज़िम्मेदार नहीं थी। पर उसने भी मेरे सामने अपने पति के ‘बहकने’ में खुद को भी ज़िम्मेदार बताते हुए तुझे गोद लेने का प्रस्ताव रखा।” सैफी ने देखा मां की आंखों में आंसू आ गए थे।

“मैं उनकी ज़िंदगी से बहुत दूर निकल आई और तुझे अपना नाम देकर अपने बूते पत पाला क्योंकि तू मेरे लिए ‘भूल’ या ‘बहकना’ नहीं मेरे प्यार की निशानी थी। कुल मिलाकर कहना ये है कि प्यार वो धागा है जो ज़िंदगी के सबसे खूबसूरत रिश्ते को बांधने के काम आता है। इस धागे का इस्तेमाल सोच-समझकर करना। याद रखना ज़रूरी नहीं कि चोट देने वाला जानबूझकर चोट दे। कभी बिना किसी की गलती के भी दुर्घटना हो जाती है और इस बात की नियति कतई गारंटी नहीं देती कि जिस दुर्घटना में किसी की गलती न हो उसमें किसी को भयंकर चोट नहीं लगेगी।”

सैफी ने मां के हाथ थाम लिए और उन्हें रो लेने दिया।

मां सो गईं थीं पर नींद सैफी की आंखों से कोसो दूर थी। क्या मां ने उसे समय पर चेताया है या देर हो चुकी है? वो सोचती रही..सोचती रही..’उसे अपने मन को बांधना ही होगा’ एक करवट सोचती तो दिल करवट बदलने पर मजबूर कर देता और कहता ‘प्यार किया नहीं जाता हो जाता है’ रात करवटों में बीती और सुबह सैफी बिना किसी नतीजे पर पहुंचे ऑफिस के लिए तैयार होने लगी।

-भावना प्रकाश

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