नई दिल्ली1 घंटे पहलेलेखक: संजय सिन्हा

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मैं रीना शाक्य ग्वालियर की रहने वाली हूं। शिक्षा, स्वास्थ्य और महिला समानता को लेकर काम करती हूं। हर मुद्दे पर सवाल उठाती हूं। क्यों और कैसे जानने की नींव बचपन में ही पड़ गई थी।

लोग मुझे बहुत बोलने वाली लड़की कहते है। अपनी शर्तों पर रहती हूं, अपनी आजादी मुझे पसंद है। समाज की दकियानूसी सोच को चुनौती देती हूं। सही सोच की बात करती हूं।

दैनिक भास्कर के ‘ये मैं हूं’ में आज मेरी कहानी जानिए…

दलित समुदाय से हूं, मां स्कूल में टीचर, अपर कास्ट की महिलाएं टिफिन नहीं शेयर करती

हम तीन भाई बहन हैं। घर में सबसे छोटी हूं। भाई 10 साल बड़े हैं। जाहिर सी बात है कि एक लड़के की चाह में मेरा जन्म हुआ। जन्म से लेकर मृत्यु तक जेंडर का सवाल चलता रहता है।

मेरी मां सरकारी स्कूल में टीचर थीं। जिस स्कूल में मां पढ़ाती वहीं मैं भी पढ़ती थीं।

मां जब लंच के समय टिफिन खातीं तो स्कूल की अपर कास्ट की महिला टीचर उनसे टिफिन शेयर नहीं करती थीं। तब यह बात मेरी समझ में नहीं आती थी।

घर में भी देखा कि ब्राह्मण समुदाय के लोग सूखे चीज की ही मांग करते जैसे आलू, आटा, चावल। लेकिन मेरे घर में बना खाना स्वीकार नहीं करते थे। तब समझ में आया कि जाति क्या है?

जाति के आधार पर समाज में भेदभाव है। मैं मिडिल क्लास फैमिली से हूं। लेकिन जो आर्थिक रूप से कमजोर होते हैं उन्हें जातिगत भेदभाव का सामना ज्यादा करना पड़ता है।

इसके बावजूद यह सही है कि हम कितने भी पढ़ जाएं, मिडिल से अपर मिडिल क्लास में चले जाएं, जाति का सवाल पीछा नहीं छोड़ता।

एसडीएम पति से बोले-तुम्हें अपनी जाति में कोई लड़की नहीं मिली क्या?

पेरेंट्स अपनी लड़की को खूब लाड-प्यार देते हैं, महंगे कपड़े-जूते जो उसे पसंद आए खरीद कर दे देंगे। लेकिन जब लाइफ पार्टनर की बात आती है तो मर्जी पेरेंट्स की चलती है। इस पर मैंने सवाल उठाए। मैंने अपना लाइफ पार्टनर खुद चुना जो दूसरी जाति का है।

जब मेरी शादी हुई और एसडीएम के समक्ष बयान दर्ज किया गया तब एसडीएम ने मेरे पति से कहा कि तुम्हें अपनी जाति में लड़की नहीं मिली क्या।

यह मेरे लिए चौंकाने वाली बात थी कि जिनके पास हम सुरक्षा की मदद मांग रहे उस अधिकारी की सोच ऐसी है। तब समझ में आया कि समाज की बेड़ियां कितनी ऊपर तक जकड़ी हुई हैं।

गली-मोहल्ले की महिलाओं की बात छोड़िए, जब पढ़े-लिखे हाई सोसाइटी के लोग ऐसी सोच रखेंगे तो दूसरों से क्या उम्मीद कर सकते हैं।

लोगों के बीच शिक्षा को लेकर जागरुकता फैलाती रीना शाक्य।

लोगों के बीच शिक्षा को लेकर जागरुकता फैलाती रीना शाक्य।

रिश्तेदार बोले, दलित से शादी की है तो हम आपके यहां खाना नहीं खाएंगे

मैं खुशनसीब रही कि ससुराल से किसी तरह का विरोध नहीं झेलना पड़ा। हालांकि लव मैरिज में चुनौतियां हैं, लड़की को एडजस्ट करना पड़ता है। लेकिन मेरे ससुराल वाले प्रगतिशील विचारों वाले हैं।

जब मेरे देवर की शादी हो रही थी तब कई रिश्तेदार घर पर आए। उनमें से कुछ ने मेरी सास से कहा कि आपके बड़े लड़के ने दलित लड़की से शादी की है तो हम आपके यहां खाना नहीं खाएंगे।

सास ने कहा कि जो नहीं खाएंगे, वो बता दें उनका खाना नहीं बनेगा। मेरी सास ने हमेशा मुझे सपोर्ट किया।

लड़का मांग क्यों नहीं भरता, लड़की ही हाथों में चूड़ी क्यों पहने

ससुराल में मुझ पर कभी इस बात का दबाव नहीं बना कि मैं क्या पहनूंगी, क्या नहीं। मैं बिंदी लगाने के सिवा कोई शृंगार नहीं करती। न मांग भरती हूं, न बिछिया, चूड़ी पहनती हूं।

मेरा स्पष्ट मानना है कि लड़का-लड़की दोनों की शादी होती है तो फिर लड़की ही मांग क्यों भरे, लड़का क्यों नहीं। लड़का तो बिछिया नहीं पहनता। वो भी तो पार्टनर है।

अगर वो ये सब नहीं करता तो लड़की से फिर उम्मीद क्यों की जाए।

रीना शाक्य बच्चों को वैज्ञानिक सोच रखने के लिए हमेशा मोटिवेट करती हैं।

रीना शाक्य बच्चों को वैज्ञानिक सोच रखने के लिए हमेशा मोटिवेट करती हैं।

मैं खाना बनाती हूं, पति बर्तन मांजते हैं

मेरे घर में हर काम बंटा हुआ है। मैं खाना बनाती हूं तो पति बर्तन साफ करते हैं। जब कभी मेरा मन नहीं हुआ तो पति खुद खाना बनाते हैं। लेकिन मैं ये जानती हूं कि पति की भी परवरिश पितृ सत्तात्मक माहौल में ही हुई है।

दरअसल, महिलाएं भी पितृसत्तात्मक सोच को ढोती हैं। एक महिला जो बेटे की मां है बहू के साथ कैसा व्यवहार करती है और वही महिला बेटी की मां है तो अपने दामाद की किस तरह खातिरदारी करती है।

दामाद का सत्कार और बहू को दुत्कार ये औरतों के अंदर पितृसत्तात्मक सोच का ही नमूना है। एमपी में कई जगहों पर सास दामाद के चरण स्पर्श करती है। व्यक्ति एक ही है लेकिन दो किरदार निभाती है। ऐसा पितृसत्ता में हो सकता है।

इसलिए 21वीं सदी कह देने भर से नहीं होगा, पितृसत्ता को खत्म करने के लिए लगातार कोशिश करनी होगी। इस सोच पर लगातार चोट करनी होगी।

अपनी संस्था 'नींव' के सदस्यों के साथ रीना।

अपनी संस्था ‘नींव’ के सदस्यों के साथ रीना।

पीरियड्स को लेकर खुद की कहानी वायरल

मुझे पीरियड्स काफी देरी से आए। जब मैं 10वीं में थी तब क्लास के दौरान ही कपड़े खून से रंग गए। मैं डर गई कि मेरे साथ क्या हो रहा है। क्लास में बच्चे हंस रहे थे, मजाक बना रहे थे। टीचर बोली-घर चली जाओ।

मुझे मम्मी, भाभी या किसी ने नहीं बताया था कि पीरियड्स क्या होता है?

जब पीरियड्स आया तो मम्मी बोली कि अब हमेशा होगा। मुझे लगा कि ये खत्म ही नहीं होगा। मैं 10वीं की परीक्षा के दौरान पैड्स लगाकर जाती, इस डर से कि कहीं पीरियड्स आ गए तो क्या होगा। जबकि पीरियड्स खत्म हुए कुछ ही दिन हुए थे। जब मैंने सोसाइटी के लिए काम करना शुरू किया तो अपनी कहानी शेयर की जो वायरल हुई।

पीरियड्स के कारण लड़कियां पढ़ाई छोड़ देतीं

लड़कियों में स्कूल ड्रापआउट का एक बड़ा कारण पीरियड्स है। गांव और दूरदराज के इलाकों में पढ़ने वाली अधिकतर लड़कियां स्कूल छोड़ देती हैं।

लड़कियां पैड्स की जगह कपड़ा इस्तेमाल करती हैं। इससे रैशेज या जख्म हो जाते हैं। अधिकतर सरकारी स्कूलों में टॉयलेट में दरवाजे नहीं होते। गेट होगा तो टॉयलेट में नल नहीं और नल होगा तो उसमें पानी नहीं। इसलिए लड़कियां स्कूल ही छोड़ देती हैं।

पेरेंट्स भी जोर नहीं देते। अधिकतर पेरेंट्स कहते हैं कि ठीक है घर में रहो। सिलाई-कढ़ाई सीख लो। इसके बाद शादी कर दी जाती है।

रीना शाक्य को परिवार से काफी सपोर्ट मिला।

रीना शाक्य को परिवार से काफी सपोर्ट मिला।

पार्टियों से फ्री सैनिटेरी नैपकिन देने की मांग

पीरियड्स के कारण 2 करोड़ 30 लाख लड़कियों ने पढ़ाई छोड़़ दी। इस रिपोर्ट में बताया गया कि लड़कियों के पास सैनिटरी पैड्स नहीं थे।

तब मैंने ऑनलाइन पिटिशन डाला। अपनी कहानी शेयर करते हुए मध्यप्रदेश के सभी सरकारी स्कूलों में पैड्स और साफ स्वच्छ शौचालय की मांग की।

तब बहुत लोगों ने सपोर्ट किया।

मैं स्कूलों की लड़कियों मिली और से बात की। तब मामाजी के नाम से मशहूर तत्कालीन मुख्यमंत्री को पोस्टकार्ड लेटर लिखवाया कि मामाजी लड़कियों को नि:शुल्क पैड दिलवाएं। पार्टियों से मांग की आप अपने चुनावी मैनिफेस्टो में इसे रखिए।

पीरियड्स को लेकर टैबू को तोड़ रही हूं

ग्वालियर में पॉलिसी और बिहेवियर चेंज को लेकर भी काम कर रही हूं। रूढ़िवादी सोच से बाहर निकालने की कोशिश है।

पीरियड्स को लेकर कई टैबू हैं। जैसे माहवारी है तो अचार नहीं छूना, पापड़ नहीं बनाना। मेडिकल स्टोर वाले काले पन्नी में पैड्स क्यों देंगे? कोई कंडोम मांगता है तो उसे ऐसे ही देते हैं लेकिन पैड को लेकर इतनी शर्म क्यों है?

टीवी पर विज्ञापनों में पैड में ब्लू कलर की लिक्विड गिरते दिखाते हैं। वो नहीं दिखाते कि लाल रंग का ब्लड गिर रहा है।

घर में किसी को लूज मोशन हो जाए तो आप पिता और भाई को शेयर कर लेंगे लेकिन ब्लड गिरेगा तो शर्म की बात हो जाएगी।

एक कान से दूसरे कान तक बात जाएगी। इसलिए बिहेवियर चेंज होना जरूरी है। ‘माहवारी न हो भारी’ कैंपेन इसी का हिस्सा है।

शेरनी शिकार करती है और बच्चे भी पालती है

मैं सोचती हूं कि शुरुआती दौर में दुनिया मातृ सत्तात्मक रही। तब आज की तरह दुनिया नहीं थी। लेकिन कई तरह के डर दिखा औरत को गुलाम और पुरुष को स्वामी बना दिया गया।

जबकि धरती पर मौजूद किसी भी दूसरी प्रजाति में ऐसा है क्या? कहां देखा गया है कि एक जेंडर दूसरे जेंडर की देखभाल करेगा। औरत का पेट आदमी क्यों पालेगा।

शेरनी खुद शिकार करती है और अपने बच्चों को भी पालती है। शेर उसके लिए शिकार पकड़ कर नहीं लाता। किसी पक्षी में भी ऐसा नहीं दिखता। तलाकशुदा या विधवा महिलाएं अपने दम पर बच्चों को न केवल पालती हैं बल्कि उन्हें कामयाब भी बनाती हैं। इसलिए मेरी लड़ाई इसी सोच को लेकर है।

ग्वालियर में चलाती सावित्री भाई फुले की पाठशाला

ग्वालियर के अलग-अलग इलाकों में वंचित लड़कियों के लिए ‘सावित्री भाई फुले की पाठशाला’ चलाती हूं। बच्चों को वैज्ञानिक सोच के बारे में बताती हूं।

कई ऐसे बच्चों को देखती हूं जो एक तरफ साइंस पढ़ते हैं लेकिन दूसरी तरफ दकियानूसी बातों पर यकीन करते हैं।

परीक्षा में पास हो जाएं इसके लिए बाबाओं के पास अपना दिमाग गिरवी रख देते हैं। ऐसे बच्चों को समझाती हूं कि सुलझी वैज्ञानिक सोच रखकर आगे बढ़ें।

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